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पटना में जीवंत होंगे दीनदयाल जी, सीएम नीतीश करेंगे प्रतिमा का अनावरण

पटना : राजधानी पटना के राजेन्द्र नगर स्थित शाखा मैदान के पास एक पार्क में एकात्म मानववाद के प्रवर्तक और भाजपा के वैचारिक अधिष्ठान के शिल्पकार पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की प्रतिमा का कल 11 फरवरी को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अनावरण करेंगे। अनावरण समारोह में सीएम नीतीश, उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी, भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल व दीनदयाल सांगठनिक दायित्वबोध के प्रतिनिधि भाजपा के संगठन महामंत्री नागेन्द्र जी भी उपस्थित रहेंगे।

पटना नहीं पहुंच सके थे पं. दीनदयाल उपाध्याय

पटना में दीनदयाल जी की प्रतिम का लगाया जाना इन जैसे महान भारतीय विचारक, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, इतिहासकार, संगठनकर्ता और पत्रकार तथा राजनेता को बिहार की ओर से सच्ची श्रद्धांजली की तरह है। आज भी 51 वर्ष पहले का वह समय चित्रित हो उठता है जब पंडित दीनदयाल उपाध्याय का पटना में इंतजार हो रहा था। लेकिन, वे पटना नहीं पहुंचे। दो दिनों बाद जब उनकी हत्या की खबर पहुंची तो आज की भाजपा और तब के जनसंघ के नेता और कार्यकर्ता बदहवास गिर पड़े थे। कैलाशपति मिश्र, गंगा प्रसाद, ठाकुर प्रसाद, ताराकांत झा जैसे नेताओं की आंखों के सामने अंधेरा छा गया था। पूर संघ विचार परिवार आहत व सदमे में था।

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11 फरवरी 1968 की रात में रेलयात्रा के दौरान मुगलसराय जंक्शन के वार्ड में उनकी हत्या कर दी गयी थी। उनके शव को लावारिश बता कर उनकी अंत्येष्टि कर देने की तैयारी थी। इसी बीच कुछ लोगों ने उन्हें पहचान लिया और शोर मचाना शुरू कर दिया। उनकी हत्या के 51 वर्ष बाद

दीनदयाल जी का जन्म और जीवन चरित

दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितम्बर, 1916 को उत्तर प्रदेश के मथुरा के पास स्थित नगला चन्द्रभान में हुआ था। वैचारिक अंतर के बावजूद दूसरे विचार वालंों को पूरा सम्मान देने वाले दीनदयाल उपाध्याय आजादी के बाद भारत की राजनीति के अजातशत्रु माने जाने लगे थे। मात्र 3 वर्ष की अवस्था में दीनदयाल पिता के प्यार से वंचित हो गये। पति की मृत्यु से माँ रामप्यारी को अपना जीवन अंधकारमय लगने लगा। वे अत्यधिक बीमार रहने लगीं। 8 अगस्त 1924 को रामप्यारी बच्चों को अकेला छोड़ ईश्वर को प्यारी हो गयीं। मात्र सात वर्ष की कोमल अवस्था में दीनदयाल माता-पिता के प्यार से वंचित हो गये थे।

उनके परदादा का नाम पंडित हरिराम उपाध्याय था, जो एक प्रख्यात ज्योतिषी थे। उनके पिता का नाम श्री भगवती प्रसाद उपाध्याय तथा मां का नाम रामप्यारी था। उनके पिता जलेसर में सहायक स्टेशन मास्टर के रूप में कार्यरत थे और माँ बहुत ही धार्मिक विचारधारा वाली महिला थीं। इनके छोटे भाई का नाम शिवदयाल उपाध्याय था। दुर्भाग्यवश जब उनकी उम्र तीन वर्ष थी तो उनके पिता का असामियक निधन हो गया. इसके बाद उनका परिवार उनके नाना के साथ रहने लगा. यहां उनका परिवार दुखों से उबरने का प्रयास ही कर रहा था कि तपेदिक रोग के इलाज के दौरान उनकी माँ दो छोटे बच्चों को छोड़कर संसार से चली गयीं। सिर्फ यही नहीं जब वे मात्र 10 वर्षों के थे तो उनके नाना का भी निधन हो गया। उनके मामा ने उनका पालन पोषण अपने ही बच्चों की तरह किया। छोटी अवस्था में ही अपना ध्यान रखने के साथ-साथ उन्होंने अपने छोटे भाई के अभिभावक का दायित्व भी निभाया परन्तु दुर्भाग्य से भाई को चेचक की बीमारी हो गयी और 18 नवंबर, 1934 को उसका भी निधन हो गया।

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उतार—चढ़ाव से भरा रहा समूचा जीवन

दीनदयाल ने कम ऊम्र में ही अनेक उतार-चढ़ाव देखा, परंतु अपने दृढ़ निश्चय से जिन्दगी में आगे बढ़े। उन्होंने सीकर से हाई स्कूल की परीक्षा पास की। जन्म से बुद्धिमान और उज्ज्वल प्रतिभा के धनी दीनदयाल को स्कूल और कालेज में अध्ययन के दौरान कई स्वर्ण पदक और प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त हुए। उन्होंने अपनी स्कूल की शिक्षा जीडी बिड़ला कालेज, पिलानी, और स्नातक की की शिक्षा कानपुर विश्वविद्यालय के सनातन धर्म कालेज से पूरी की। उपाध्याय जी ने पिलानी, आगरा तथा प्रयाग में रहकर शिक्षा प्राप्त की। बीएससी बीटी पास करने के बाद भी उन्होंने नौकरी नहीं की। छात्र जीवन से ही वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सक्रिय कार्यकर्ता हो गये थे। कालेज छोड़ने के तुरन्त बाद वे आरएसएस के प्रचारक बन गये और एकनिष्ठ भाव से संघ का संगठन कार्य करने लगे। उपाध्यायजी नितान्त सरल और सौम्य स्वभाव के व्यक्ति थे। सन 1951 ई० में अखिल भारतीय जनसंघ की स्थापना होने पर वे उसके संगठन मंत्री बनाये गये। दो वर्ष बाद सन् 1953 ई० में उपाध्यायजी अखिल भारतीय जनसंघ के महामन्त्री निर्वाचित हुए और लगभग 15 वर्ष तक इस पद पर रहकर उन्होंने अपने दल की अमूल्य सेवा की। दिसम्बर 1967 में कालीकट अधिवेशन में वे अखिल भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए।

कांग्रेसी विचारधारा का राजनीतिक विकल्प

विलक्षण बुद्धि, सरल व्यक्तित्व एवं नेतृत्व के अनगिनत गुणों के स्वामी दीनदयाल उपाध्याय मात्र 52 वर्ष की उम्र में ही भारतीय राजनीतिक क्षितिज के प्रकाशमान सूर्य के रूप में उभरे। उन्होंने भारतवर्ष में समतामूलक राजनीतिक विचारधारा का प्रचार एवं प्रोत्साहन करते हुए कांग्रेस का विकल्प खड़ा किया। जनसंघ के राष्ट्रजीवन दर्शन के निर्माता दीनदयालजी का उद्देश्य स्वतंत्रता की पुनर्रचना के प्रयासों के लिए विशुद्ध भारतीय तत्व-दृष्टी प्रदान करना था। उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए देश को एकात्म मानववाद जैसी प्रगतिशील विचारधारा दी। दीनदयालजी को जनसंघ की आर्थिक नीति का रचनाकार माना जाता है। उनका विचार में आर्थिक विकास का मुख्य उद्देश्य सामान्य मानव का सुख है। संस्कृतिनिष्ठा दीनदयाल जी ने राजनैतिक जीवनदर्शन के प्रथम सूत्र को रेखांकित करते हुए कहा थां- “ भारत में रहनेवाला और इसके प्रति ममत्व की भावना रखने वाला मानव समूह एक जन हैं। उनकी जीवन प्रणाली ,कला , साहित्य , दर्शन सब भारतीय संस्कृति है। इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद का आधार यह संस्कृति है। इस संस्कृति में निष्ठा रहे तभी भारत एकात्म रहेगा .” उन्होंने दो योजनाएँ, राजनीतिक डायरी, भारतीय अर्थनीति का अवमूल्यन, सम्राट चन्द्रगुप्त, जगद्गुरु शंकराचार्य, एकात्म मानववाद और राष्ट्र जीवन की दिशा इन आठ पुस्तकों की रचना की। ब्रिटिश शासन के दौरान भारत द्वारा पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता और पश्चिमी लोकतंत्र का आँख बंद कर समर्थन का उन्होंने विरोध किया।

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समाजसेवा से गहरा और जमीनी जुड़ाव

दीनदयाल उपाध्याय अपने जीवन के प्रारंभिक वर्षों से ही समाज सेवा के प्रति अत्यधिक समर्पित थे। वर्ष 1937 में अपने कॉलेज के दिनों में वे कानपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) के साथ जुड़ें। वहां आर.एस.एस. के संस्थापक डॉ. हेडगेवार के साथ विचार-विनिमय के बाद उन्होंने अपना सब कुछ संगठन को समर्पित कर दिया। वर्ष 1942 में कॉलेज की शिक्षा पूर्ण करने के बाद उन्होंने न तो नौकरी के लिए प्रयास किया और न ही विवाह की बल्कि वे संघ की शिक्षा का प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए आर.एस.एस. के 40 दिवसीय शिविर में भाग लेने नागपुर चले गए।
भारतीय जनसंघ की स्थापना डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा वर्ष 1951 में की गयी। उनकी कार्यक्षमता, योजना कौशल और चारित्रिक परिपूर्णता के गुणों से डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी अत्यंत प्रभावित थे। उनके लिए वे गर्व से सम्मानपूर्वक कहते थे कि- ‘यदि मेरे पास दो दीनदयाल हों, तो मैं भारत का राजनीतिक चेहरा बदल सकता हूं’। अचानक वर्ष 1953 में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के असमय निधन से पूरे संगठन की जिम्मेदारी दीनदयाल उपाध्याय के युवा कंधों पर आ गयीं।