भाषाई भावुकता के अतिरेक से बाहर आए क्षेत्रीय सिनेमा

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बिहार में फिल्म सिटी से पहले अधिक सिनेमाघरों की आवश्यकता

पटना: बिहार के क्षेत्रीय सिनेमा में अधिकतर फिल्मों की असफलता के पीछे भाषाई भावुकता का अतिरेक है। इसको ऐसे कहें कि किसी फिल्म की प्रशंसा की अपेक्षा सिर्फ इसलिए नहीं करना चाहिए क्योंकि उसके संवाद मगही, अंगिका या मैथिली में बोले गए हैं। क्षेत्रीय सिनेमा के फिल्मकारों को सहानुभूति मोड से बाहर आना चाहिए और ताल ठोककर मौलिक कहानी पर फिल्में बनानी चाहिए। उक्त बातें फिल्म अध्येता एवं केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के सदस्य प्रशांत रंजन ने गुरुवार को कहीं। वे पटना पुस्तक मेले में चल रहे फिल्म फेस्टीवल में बोल रहे थे। उनके साथ रंगकर्मी व सिने सोसायटी के सहायक सचिव रविकांत सिंह ने बातचीत की। विषय था— क्षेत्रीय सिनेमा। वार्ता के बाद लघु फिल्म दैट डे आफ्टर एवरी डे और वृत्त चित्र अहिल्याबाई होलकर दिखाई गई।

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उन्होंने कहा कि कई फिल्मकारों की शिकायत होती है कि उन्होंने अपनी मिट्टी की कहानी कहने के लिए क्षेत्रीय भाषा में फिल्म बनाई। लेकिन, लोगों ने ठीक रिसपांस नहीं दिया। दरअसल, ऐसे फिल्मकार भाषाई भावुकता के अतिरेक में फंसकर फिल्म निर्माण के अन्य आवश्यक आयामों जैसे सुलझी हुई कहानी, सशक्त पटकथा व भावपूर्ण अभिनय आदि को नजरअंदाज कर देते हैं। इस कारण अंत में एक कमजोर फिल्म सामने आती है, जिसे न तो व्यवसायिक रूप से सफलता मिलती है और न ही समीक्षकों व बौद्धिक वर्ग द्वारा सराहा जाता है।

क्षेत्रीय सिनेमा के फिल्मकारों को यह समझना चाहिए कि भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं है, बल्कि यह पूरी संस्कृति को अपने साथ लेकर चलती है। इसलिए जब कोई फिल्मकार क्षेत्रीय सिनेमा में आयातित कहानी परोसता है, तो दर्शकों को खटकता है। इस मामले में यहां के फिल्मकारों को मराठी व मलयाली सिनेमा से प्रेरणा लेनी चाहिए कि कैसे कम संसाधन में अपनी माटी की कहानी को विश्वस्तर पर पहुंचाया जाता है।

बिहार में क्षेत्रीय सिनेमा को बढ़ावा देने के एक प्रश्न के का उत्तर देते हुए प्रशांत ने कहा कि बिहार में फिल्म सिटी से पहले ऐसे सिनेमाघरों की आवश्यकता है, जिनमें प्राथमिकता के आधार पर क्षेत्रीय फिल्मों को स्थान मिले। लेकिन, इससे भी पहले बिहार में सिनेमाघरों की संख्या बढ़ाने की आवश्यकता है।

उन्होंने इस मामले मराठी सिनेमा का उदाहरण दिया, जहां महाराष्ट्र के मल्टीप्लेक्सों में मराठी फिल्मों के लिए कुछ स्क्रीन आरक्षित होते हैं। सरकारी सहयोग के सवाल पर उन्होंने कहा कि सरकार को फिल्म निर्माण से अधिक फिल्मों की स्क्रीनिंग की चिंता करनी चाहिए, क्योंकि डिजिटल युग फिल्म बनाना अभूतपूर्व रूप से सरल हो गया है, जहां मोबाइल कैमरे से फीचर फिल्में बनाई जा रही हैं। हां, बनी हुई फिल्म को थियेटर तक ले जाना छोटे फिल्मकारों के लिए अब भी टेढ़ी खीर है। विशेषकर बिहार के क्षेत्रीय सिनेमा के मामले में तो यह कटु सत्य है।

अश्लील और फूहड़ फिल्मों को देखने के लिए क्या वंचित वर्ग के दर्शकों को दोष देना चाहिए, इसके जवाब में उन्होंने कहा कि यह फिल्मकारों की जिम्मेदारी है कि वे हर वर्ग के दर्शकों के लिए जिम्मेदारी के साथ फिल्में बनाएं।

उन्होंने कहा कि भाषा या बोली एक भौगोलिक क्षेत्र में सिमटे होने के कारण क्षेत्रीय होते हैं। लेकिन, जैसे ही उस भाषा विशेष में कोई फिल्म बन जाती है, तब उसकी अपील वैश्विक हो जाती है, क्योंकि फिल्म में शाब्दिक भाषा के साथ—साथ सिनेमा विधा की भाषा यानी सांकेतिकी भी जुड़ जाती है।

इस अवसर पर जानेमाने फिल्म विश्लेषक प्रो. जय मंगल देव, राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक विनोद अनुपम, डॉ. शत्रुघ्न किशोर, पटना विमेंस कॉलेज की असिस्टेंट प्रोफेसर दिव्या गौतम, अंकिता कुमार, पत्रकार सीटू तिवारी समेत फिल्म विधा से जुड़े कलाकार, जनसंचार के छात्र-छात्रा उपस्थित थे। तकनीकी सहयोग प्रभात शाही का रहा।

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