लिट्टी/चोखा नहीं, दही-चूड़ा होना चाहिए बिहार का स्टेट फुड! आर्यभट्ट से जानें क्यों?

0

पटना : मकर संक्रांति पर दिन में दही-चूड़ा और रात में खिचड़ी खाने की परंपरा है। लेकिन क्या आपको मालूम है कि बिहार से जुड़ी संस्कृति की यह कड़ी दुनिया की सबसे शुरुआती परंपराओं के आरंभ के तौर पर मानी जाती है। पौष मास में जब सूर्य देव धनु राशि से मकर राशि में गमन करते हैं तब यह खगोलीय घटना संक्रांति कहलाती है। सभ्यता की शुरुआत में यह महज एक खगोलीय घटना थी, लेकिन वैदिक काल की कई घटनाओं ने इसे पवित्र बना दिया।

खगोलीय गणना की भूमि रहा है बिहार

हाल के भौगोलिक शोधों से पता चला है कि पहले बिहार का हिस्सा रहे झारखंड का सिंहभूम समुद्र से ऊपर आने वाला दुनिया के इस ​भाग में स्थित भारतवर्ष का सबसे पहला भूखंड था। यहां जब वैदिक संस्कृति पनपी तभी से खगोलीय गणनाओं और अन्य विधाओं ने बिहार में ही जन्म लिया। कहते हैं कि जब मनु ने पृथ्वी पर बीज रोपकर खेती की शुरुआत की थी, तब अन्न उपजे। खीर सबसे पहले पकाया जाने वाला भोजन रहा तो इसके बाद दही और धान के मिश्रण से पकवान की परंपरा शुरू हुई। आर्यभट्ट की खगोलीय गणना और सूर्य के मकर राशि में गमन को बिहार की धरती ने ही सर्वप्रथम अंजाम दिया।

swatva

महर्षि दधीचि ने शुरू की थी परंपरा

बताया जाता है दूध से दही बनाने की परंपरा विकसित हुई तो धान के लावे को इसके साथ खाया गया। भोजन को तले जाने की व्यवस्था की शुरुआत तब नहीं हुई थी। महर्षि दधीचि ने सबसे पहले दही में धान मिलाकर भोजन की व्यवस्था की थी। वैदिक काल की पवित्रता का यह प्रतीक एक परंपरा के रूप में आज तक भारतीय और बिहारी समाज में बतौर अभिन्न अंग मौजूद है। बिहार में दही—चूड़ा खाने की परंपरा यहां उपजी वैदिक कथाओं पर आधारित है।

सारण की मां अंबिका भवानी से नाता

बिहार के सारण जिले में स्थित है मां अम्बिका भवानी मंदिर। सतयुग के समय में यही दधिचि ऋषि की तपस्थली थी। एक बार अकाल के समय दधिचि ऋषि ने माता को दही और धान का भोग लगाया था। तब देवी अन्नपूर्णा रूप में प्रकट हुईं और उसी क्षण उस इलाके में पड़ा अनाज का भयंकर अकाल तत्काल समाप्त हो गया।

मिथिला में भी मौजूद इसकी जड़ें

दही-चूड़ा खाने की परंपरा मिथिला से भी जुड़ी हुई है। पौराणिक आख्यानों में आया है कि धनुष यज्ञ के समय मिथिला पहुंचे ऋषि मुनियों ने दही चूड़ा का भोज किया था। इतने बड़े आयोजन में ऋषियों ने भोजन में इसे प्रसाद के तौर पर लिया था। कहा जाता है कि इसी के बाद से मिथिला और फिर पूरे बिहार में संक्रांति के दिन दही चूड़ा खाने की परंपरा चल पड़ी।

पुराने बिहार यानी बंगाल में दही-चूड़ा

दही-चूड़ा की परम्परा को लगातार बरकरार रखने का श्रेय बंगाल के गौड़ सिद्धों को भी जाता है। यह कहानी तब की है जब बिहार नहीं, बंगाल ही स्टेट था। यहां चैतन्य महाप्रभु के शिष्य रघुनाथ दास ने बड़े पैमाने पर दही—चूड़ा का भोग लगवाया और प्रसाद बंटवाया था। इसी के बाद यह पूरे प्रांत में एक उत्सव केेेेेे तौर पर मनाया जाने लगा।

हेल्थ की दृष्टि से दही-चूड़ा सम्पूर्ण डायट

स्वास्थ्य के लिहाज से जैसे तमाम हेल्थ एक्सपर्ट ने कहा है कि दूध एक सम्पूर्ण पेय है, ठीक उसी प्रकार उन्होंने दही—चूड़ा को भी सम्पूर्ण आहार करार दिया है। यह बिना पकाए और बिना गर्म किये बनता है। इसलिए इसके प्राकृतिक पोषक तत्व नष्ट नहीं होते। साथ ही दही में हमारे शरीर को लाभ पहुंचाने वाले वैक्टीरिया भरपूर मात्रा में मौजूद होते हैं। ये वैक्टीरिया हमारे शरीर को न सिर्फ पोषण देते हैं, बल्कि हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी बढ़ाते हैं।

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here