जदयू की राज्य कार्यकारिणी की बैठक में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि पता ही नहीं चला कि कौन दोस्त है और कौन दुश्मन? किस पर भरोसा करें किस पर ना करें? लेकिन जब तक समझ पाते तब तक बहुत देर हो चुकी थी। सीट शेयरिंग को लेकर 5 महीने पहले बात-चीत हो जानी चाहिए थी, लेकिन नहीं हुआ। इसी का नतीजा है कि आज जदयू 43 सीटों पर आकर सिमट गई।
नीतीश के इस बयान को भाजपा और लोजपा से जोड़कर देखा जा रहा है। क्योंकि, नीतीश जिस 5 महीने पहले की बात कर रहे हैं उस समय नीतीश कुमार का भाजपा और लोजपा से गठबंधन था। लेकिन, क्या सच में नीतीश कुमार यह समझने में असफल रहे कि उनका दोस्त और दुश्मन कौन है? क्या विधानसभा चुनाव में पिछड़ने का ठीकरा भाजपा पर फोड़ना उचित है? चिराग को टारगेट कर सत्ता विरोधी लहर की बदनामी से बचना चाहते हैं नीतीश?
अगर, बात करें दोस्त व दुश्मन की, तो जिस तरह के परिणाम आए हैं, उस अनुसार यही कहा जा सकता है कि बिहार की जनता ने एक बार पुनः नीतीश के सुशासन को अपनाया है। वहीं, जनता ने नीतीश के विकास को दरकिनार करते हुए नरेंद्र मोदी के विकास को सहजता से स्वीकार किया है। परिणाम आने के बाद यह स्पष्ट दिख रहा है कि बिहार की जनता ने जनमत भाजपा को दिया है न कि जदयू को। लेकिन, भाजपा ने दोस्ती निभाते हुए नीतीश के नेतृत्व में ही बिहार में शासन करना चाहती है।
वहीं, दोस्ती का एक और उदहारण देखें, जिसमें यह साफ़ जाहिर होता है कि भाजपा ने नीतीश कुमार के प्रति एन्टी इनकंबेंसी का ठप्पा दूर करने के लिए पालीगंज, सासाराम, नोखा, ब्रह्मपुर, कदवा, सन्देश, दिनारा, मधुबनी, रघुनाथपुर, महराजगंज तथा इसी तरह की कुछ और सीटें हैं जहाँ, भाजपा प्रत्याशी जीत सकते थे। लेकिन, इन सीटों को जदयू के हवाले कर दिया। लेकिन, जदयू का बोरिया बिस्तर बंध गया और भाजपा नीतीश प्रेम में कुल्हाड़ी पर पैर मार बैठी।
जनादेश भाजपा को
दूसरी बात, चुनाव में पिछड़ने का ठीकरा भाजपा पर फोड़ना उचित कहाँ तक उचित है। अगर ऐसा है तो बिहार की जनता ने इस बार जनादेश भाजपा को दिया है न कि जदयू को। क्योंकि, चुनाव के पहले भाजपा नेताओं को इनपुट मिला था कि नीतीश के कारण उसे एन्टी इनकंबेंसी का सामना करना पड़ सकता है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब तक भाजपा के नेता यानी पहले चरण तक नीतीश कुमार के नाम पर वोट मांग रहे थे और स्थिति एनडीए के पक्ष में नहीं दिख रहा था।
हुआ भी यही मतदान के बाद एनडीए गठबंधन को जिस तरह का फीडबैक मिला उससे उनकी नींद उड़ गई और बिहार भाजपा के नेता भागते-भागते विचार परिवार के मार्गदर्शन में काम कर रहे थिंक टैंक के पास पहुंचे। इसके बाद भाजपा नेताओं ने अपने प्रचार शैली को बदला और मोदी का गुणगान करने के साथ-साथ चिराग के प्रति नरमी दिखाई। इसका नतीजा यह हुआ कि दूसरे चरण में जनता ने भाजपा पर भरोसा दिखाते हुए भाजपा के आत्मनिर्भर बिहार के संकल्प को पूरा करने का मौक़ा देनी का सोची और मतदान के बाद जो फीडबैक मिला उससे एनडीए के नताओं का हौसला बढ़ा।
बाकी बची कसर योगी आदित्यनाथ ने पूरी कर दी। जिस तरह से तीसरे चरण में एनडीए में सीट बंटवारे से नाराज मिथिलांचल के लोग और महागठबंधन का गढ़ सीमांचल में मोदी- योगी की रैली ने जनता के मिजाज को बदल दिया। योगी के घुसपैठिये वाले बयान के कारण वोटों का ध्रुवीकरण काफी तेजी से हुआ। इसी कारण सीमांचल में लीड कर रही महागठबंधन को बड़ा झटका लगा और असुदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ने 5 सीटें जीत ली। लेकिन, नीतीश कुमार के साथ-साथ प्रदेश नेतृत्व के कुछ नेताओं को योगी पसंद नहीं थे। बावजूद इसके जनता की डिमांड को माना गया और योगी ने ताबड़तोड़ सभाएं की।
तो क्या नीतीश ने जानबूझकर चिराग को किया बाहर
चिराग को टारगेट कर सत्ता विरोधी लहर की बदनामी से बचना चाहते हैं नीतीश?, अगर जानकारों की मानें तो नीतीश कुमार ने जानबूझकर चिराग को एनडीए से बाहर किया। क्योंकि, चिराग को बाहर निकाला और एन्टी इनकंबेंसी वोट को महागठबंधन में जाने से रोका। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि राजनीतिक जादूगर नीतीश कुमार जादुई कला के माहिर खिलाड़ी हैं। बगैर बहुमत लाए मुख्यमंत्री बनने की कला जानने वाले नीतीश कुमार को यह अंदाजा हो गया था कि अगर सत्ता में रहनी है तो बड़ी कुर्बानी देनी होगी, इसलिए कुछ बड़ा चाल नहीं चलेंगे तो सत्ता गवां सकते हैं।
नीतीश कुमार इस बात को समझ गए थे कि चिराग को बिहार एनडीए गठबंधन से बाहर निकालने से फायदा होगा। क्योंकि, अगर चिराग गठबंधन में होते तो एंटी नीतीश और सत्ता विरोधी वोट महागठबंधन को चला जाता और सत्ता से दूर होना पड़ता। क्योंकि, वे भाजपा को ज्यादा सीटें देने को तैयार नहीं थे।
इसलिए नीतीश कुमार बिहार भाजपा के कुछ नेताओं के साथ-साथ बिहार भाजपा को तथाकथित रूप से चलाने वाले पर अपना जादू दिखाने में सफल रहे और चिराग को मजबूरन गठबंधन से बाहर करवाकर सत्ता विरोधी वोट को महागठबंधन में जाने से रोका। इसका फायदा नीतीश कुमार को हो गया। इसलिए हालिया राजनीतिक घटनाओं को देखें तो चिराग को एनडीए में रहने को लेकर नीतीश ज्यादा विरोध नहीं कर रहे हैं।
‘विक्टिम कार्ड’ का सुरक्षित दांव फेंकना जरुरी समझे नीतीश
नीतीश कुमार को अच्छी तरह पता है कि विधानसभा चुनाव के पहले उनके चेहरे को लेकर आम बिहारियों में नराजगी थी। भाजपा ने नरेंद्र मोदी के चेहरे को आगे कर दूसरे व तीसरे में चरण में डैमेज कंट्रोल किया। अब जब नीतीश के नेतृत्व में जदयू 71 से लुढ़ककर 43 पर आ गया, तो पार्टी का फेस होने के नाते उन्हें सफाई देनी है और साथ ही कार्यकर्ताओं का मनोबल भी बनाए रखना है। इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए नीतीश कुमार ने भाजपा-लोजपा को लेकर ‘विक्टिम कार्ड’ का सुरक्षित दांव फेंकना जरुरी समझा है।