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निर्णायक पड़ाव पर नीतीश…

राजनीति उपयोग और प्रयोग के बीच बहने वाली ऐसी धारा का नाम है जहां हिसाब लगाकर चलना तय नहीं होता। जरूरत और मांग के अनुरूप चाल चलनी पड़ती है। चार राज्यों में जीत का सेहरा बांध चुकी भाजपा अगले पड़ाव की विजयगाथा लिखने के क्रम में ऐसा ही एक प्रयोग बिहार में करने को बाध्य दिख रही है। राज्य में सत्तारूढ़ गठबंधन की आंतरिक कशमकश भरी घटनाओं के नमूने तो यही बताते नजर आ रहे हैं। दबाव के दौर से आगे निकलकर राहें अब गठबंधन के सहयोगी दलों के बीच सामंजस्य साधने की ओर चल पड़ी लग रही हैं। बिहार में सत्तारूढ़ गठबंधन के नेता और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के ताजा तेवर तो यही बता रहे हैं।

गठबंधन के दोनों प्रमुख दलों में लंबे समय से चले आ रहे प्रतिस्पर्धी द्वंद्व और तूतू-मैंमैं के पटाक्षेप के साथ जो संदेश संचारित हुआ उससे विरोधी भी विचलित हो गए। मुख्यमंत्री और विधानसभा में सदन के नेता ने अपनी ही गठबंधन सरकार के सर्वसम्मत चुने गए सभाध्यक्ष विजय कुमार सिन्हा को जिस भाषा और शैली में संबोधित किया वह भारतीय लोकतंत्र का ऐतिहासिक उदाहरण बन गया। उन्होंने अध्यक्ष को भरी सदन में बिना अनुमति के हस्तक्षेप करते हुए कड़े शब्दों में कहा- ’’आप होते कौन हैं?’’ क्या कोई नेता सदन विधानसभा अध्यक्ष को ऐसा भी कह सकता है? मुख्यमंत्री यह भी कह गए कि आप जिस तरह सदन चला रहे हैं वह ठीक नहीं है? सभाध्यक्ष ने हालांकि मर्यादित और शालीन जवाब देकर बड़ी गंभीरता का प्रकटीकरण किया। मुख्यमंत्री के रवैये से क्या यह नहीं सिद्ध होता कि वह कोई पिट्ठू सभाध्यक्ष के लिए अभ्यस्त हो गए और इसकी पूर्ति नहीं होने से वह अब कहीं अधिक आहत हैं? इन सवालों के जवाब तो तलाशे ही जाएंगे। मगर इस एक घटना की वजह से नीतीश कुमार की उदारमना समाजवादी नेता की छवि और परिवारपोषक नहीं रहने वाले मुख्यमंत्री की साख को गहरा आघात तो लग ही गया।

इस बात पर भी गौर करना होगा कि नीतीश कुमार को गुस्सा आने की वजह क्या है? क्या वह दल के भीतर जारी शीर्ष नेताओं के अंतर्द्ंद्व का शमन सफलतापूर्वक नहीं कर पाने से प्रभावित हैं अथवा संतुलन बिठाने की बजाय किसी एक ओर के अधिक झुकाव से विचलित तो नहीं हैं? इसका जवाब तो उन्हीं के पास हो सकता है पर इसके तार तो विधानसभा चुनावों में पार्टी के संख्यात्मक रूप में कमजोर होने और बाद के घटनाक्रम से बखूबी जुड़ जाते हैं। मुख्यमंत्री के सबसे खास माने जाने वाले आरसीपी सिंह अब केंद्रीय मंत्री हैं और उनकी प्रतिबद्धता एक जमाने से नीतीश कुमार के स्वकल्पित सियासी प्रतिद्वंदी और मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति स्वाभाविक तौर पर कम नहीं आंकी जा सकती।

पांच राज्यों के चुनावों के दौरान पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में भाजपा के साथ सीट शेयरिंग को लेकर आरसीपी सिंह और पार्टी अध्यक्ष ललन सिंह के बीच सामंजस्य का अभाव दिखा और अंततः पार्टी ने जिस तरह अपने उम्मीदवार उतार दिए उसे नजरअंदाज कर कोई निष्कर्ष निकाल पाना पार्टी के आंतरिक मतभेदों को झुठला देने जैसा होगा। सभी अटकलों को धराशायी करके भाजपा जिस तरह यूपी में दोबारा सत्ता हासिल कर ले गई वह गठबंधन की हिस्सेदारी के बावजूद जदयू को आंतरिक प्रसन्नता से लबालब कर देने वाली भी नहीं है। मणिपुर विधानसभा में जदयू भले अपने दम पर छः सीटें हासिल होने से खुश हो सकता है।

इसे खूब समझने की आवश्यकता है कि परिस्थितियों ने करवटें बदल ली हैं मगर नीतीश कुमार और उनके आभामंडल के सरपरस्तों को भाजपा गठबंधन में बने रहने को विवश किया है। यह स्वाभाविक रूप में स्वीकार करना होगा कि उनका नेतृत्व गठबंधन और भाजपा की विवशता है और इसकी वजहें सभी जानते हैं। पर यह भी धु्रव सत्य सरीखा है कि वह अपने सहयोगी दलों के भरोसे रहने के बावजूद कभी उनके भरोसे और विश्वास को स्थापित नहीं होने दिया। 1995 से अभी तक भाजपा इन्हें सिर माथे सजाए रखकर आगे बढ़ती रही। पर, भाजपा कोे भी वक्त के साथ दुरदुराने में देरी नहीं की। विपक्षी आरजेडी के साथ वे गए और उसका भरोसा भी नहीं कायम रख सके।

बोचहां उपचुनाव और विधान परिषद चुनावों में वोटों के अंकगणित की स्थापना भाजपा गठबंधन की निरंतरता का प्रवाह है और यह समय की मांग भी है। लगे हाथों भाजपा के नेताओं का यह बयान भी कम महत्वपूर्ण नहीं कि नीतीश कुमार 2025 तक मुख्यमंत्री बने रहेंगे। यह एक बड़ा पक्ष हो सकता है कि नीतीश कुमार भाजपा का वह चेहरा हैं जो गठबंधन का स्वरूप अक्षुण्ण बनाए रखने में सहायक बने रहें पर उनके बदले तेवर और तैश भी सच के दूसरी तरफ के खास हिस्से हैं जिसकी अनदेखी आत्मसात नहीं की जा सकती।

गौर करिए, अभी हाल के दिनों में अपने गृह क्षेत्र नालंदा और बाढ़ समेत अन्य इलाकों का निरंतर सघन दौरा कर रहे और लोगों से आत्मीय भाव से खूब मिल रहे हैं। पत्रकारों ने उनसे इसकी वजह पूछी और यह भी जानना चाहा कि क्या आप फिर चुनाव लड़ेंगे? जवाब मिला- ’’मैं अनेक बार सांसद और और विधायक रह चुका हूं। विधान परिषद सदस्य हूं। अब मेरे लिए राज्यसभा ही एक ऐसी जगह बची है जिसका प्रतिनिधित्व कभी नहीं किया।’’ इसके मायने तलाशे गए कि वह राज्यसभा में जाएंगे क्या? साथ-़.साथ और भी सवाल उठ खड़े हुए कि कहीं वह उपराष्ट्रपति बनकर राज्यसभा सभापति बनने की तैयारी में तो नहीं लगे हैं?

पिछले महीनों में दो महत्वपूर्ण ऐसी घटनाएं हुईं जिनके ताल्लुक इन बातों से सीधे जुड़ जाते हैं। दिल्ली प्रवास के दौरान वह बीते दिनों चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर से मिले और बंद कमरे में खूब गुफ्तगु हुई। फौरन बाद यह खबर चली या चलाई गई कि नीतीश विपक्ष के राष्ट्रपति उम्मीदवार बन सकते हैं। कांग्रेस ने आगे बढ़कर राष्ट्रपति चुनाव में इन्हें समर्थन देने के बयान दिए। राष्ट्रपति चुनाव जुलाई तक हो सकते हैं। लेकिन, मुख्यमंत्री ने इन खबरों का सिरे से खंडन करते हुए कहा कि ऐसी बातें निराधार और बेमतलब हैं। यह भी कहा कि वह अभी एनडीए में हैं और कंफर्टेबल पोजिशन में हैं। नीतीश कुमार जब बात करते हैं तो उससे और भी बातें निकलती हैं। ’अभी हैं’ के भी मायने निकाले गए कि क्या वह फिर पाला बदलने की सोच तो नहीं रखते? लेकिन, वह आरजेडी के समर्थन से अब आगे मुख्यमंत्री कैसे बन सकते हैं जबकि पिछले विधानसभा चुनावों में आरजेडी बड़ी पार्टी बनकर उभर चुकी है और लालू यादव की विरासत संभाल रहे तेजस्वी यादव के रूप में उसका अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार दमदार धमक दिखा चुका है।

प्रधानमंत्री की एनडीए में कोई वैकेंसी नहीं है और यूपीए में इनके नाम पर सहमति बनने के आसार अब तो दूर तक भी नहीं दिखते। लेकिन, समय-समय पर प्रदेश भाजपा और उसके नेताओं पर रोष दिखाते रहने के अंदाज और इनकी अकुलाहट ने अटकलों का बाजार भी खूब गरमाए रखा है। इसके पीछे की वजहें तलाशने की जरूरत पड़ जाती है। क्या भाजपा के बड़े दल बनने और उसके सहयोग से सरकार का नेतृत्व करने के बावजूद वह उसे दबाव में रखने के आदी हो चुके हैं और क्या आदतन ऐसा करते रहते हैं कि भाजपा असहज दिखे? उन्हें अच्छी तरह पता है कि भाजपा की कमान अब लालकृष्ण आडवाणी के हाथों मे नहीं। पर उसे धौंस दिखाने का मतलब आखिर क्या है?

राजनीति में एक और चलन है- जिसे साधा जाता है उसकी हर बात मान ली जाती है। उसे मनाने के लिए उसका मान रखा जाता है। दूसरी घटना पर गौर फरमाइए। होली के पहले बिना तयशुदा कार्यक्रम के केंद्रीय गृहराज्य मंत्री नित्यानंद राय पटना आए और हवाई अड्डे से सीधे मुख्यमंत्री आवास पहुंचकर गुलदस्ता भेंट करते हुए लंबी गुफ्तगु के बाद वापस दिल्ली लौट गए। नित्यानंद ने नीतीश कुमार को कोई संदेश तो दिया ही होगा पर वह सार्वजनिक नहीं है। अब दिल्ली से नीतीश को क्या संदेश दिया गया जो कयासों का बाजार गर्म कर चुका है। इन कयासों पर नीतीश मौन हैं पर नित्यानंद से लेकर शाहनवाज हुसैन तक यह सफाई दे चुके हैं कि नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद से विस्थापित करने की कोई योजना नहीं, वह मुख्यमंत्री बने रहेंगे। आखिर इस बात की जरूरत क्यों आ पड़ी कि सफाई देनी पड़े? पिछले विधानसभा चुनाव में लोकजनशक्ति पार्टी की भूमिका पर सवाल उठाए गये। नीतीश कुमार ने चिराग पासवान को केंद्र में मंत्री नहीं बनने दिया।

भाजपा नेतृत्व ने उनकी हर बात मानी। चिराग के चाचा पशुपति पारस ने पार्टी तोड़ डाली और चिराग पासवान को अकेला छोड़ एनडीए का हिस्सा बनकर केंद्र सरकार में शामिल हो गए। भाजपा मौन रही। नीतीश को खुश रखा। चिराग अब भी एनडीए से अलग नहीं किए गए। सांसद होने के बावजूद रामविलास पासवान को आवंटित बंगले से चिराग को बाहर कर दिया गया। यह किसकी इच्छापूर्ति के लिए किया गया? फिर भी नीतीश के तेवर प्रदेश भाजपा पर नरम नहीं पड़े। शराबबंदी पर दोनों दलों के बीच वाकयुद्ध हुआ तो क्या-क्या कहासुनी नहीं हुई? यूपी विधानसभा चुनाव के दौरान विकासशील इंसान पार्टी के नेता मुकेश साहनी प्रधानमंत्री और केंद्रीय गृहमंत्री के खिलाफ अभद्र बोल बोलते आखिर किसकी शय पर ताल ठोकते रहे? यह बात छिपी नहीं कि भाजपा कोटे से विधान परिषद भेजे गए थे और उसी के हिस्से की सीटें पार्टी को दी गई थीं। अब गठबंधन धर्म को निभाते हुए मुख्यमंत्री को उनसे इस्तीफा लेकर राजभवन अग्रसारित करने की नौबत सहनी पड़ी। पार्टी अब एनडीए का हिस्सा नहीं है और बोचहां में भाजपा उम्मीदवार बेबी कुमारी के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को दलबल समेत प्रचार करना पड़ गया। इस दौर में भाजपा मुखर है और नीतीश मौन रहने पर विवश हैं।

यहीं यह लागू होता है कि राजनीति उपयोग और प्रयोग के बीच बहने वाली धारा का दूसरा नाम है। भाजपा बिहार में जो प्रयोग करने वाली है क्या उसके केंद्रबिंदु नीतीश तो नहीं? केंद्र सरकार की अगुवाई कर रही भाजपा बिहार में अब और सहन करने और पिछलग्गू बने रहना निश्चय ही नहीं चाहती। यूपी की तरह बिहार में भी अपनी सरकार बनाने का लक्ष्य हासिल करने का अभियान नीतीश कुमार से होकर ही गुजरता है। भले भाजपा उनके बने रहने की बयानबाजी करती चले। इस अभियान की सफलता इसी पर निर्भर करती है कि आने वाले समय में नीतीश कुमार को और बड़ा पद देकर दिल्ली की शोभा बढ़ाने को रजामंद कर लिया जाए।

बहुत मुमकिन है कि उन्हें उपराष्ट्रपति के संवैधानिक पद से नवाजा जाए और भाजपा अपने दम पर बिहार में सरकार बना ले। विकासशील इंसान पार्टी के विधायकों की ही तरह विपक्ष और और दूसरे दलों के बहुतेरे विधायक भाजपा को बहुमत दिलाने के लिए दलबदल को तैयार बैठे हैं। नीतीश कुमार की विवशता ही होगी कि वह मौन साधे रहकर सम्मानजनक पद प्राप्त करें। यही वक्त की मांग है और नीतीश कुमार का सम्मान भी। यह नहीं तो उन्हें यह भी मालूम है कि परिस्थितियां आगे और भी विषम हो सकती हैं और राजनीति में अब और करामात कर दिखाने का उनका समय बहुत पीछे छूट चुका है।