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मोहल्ला अस्सी के रिलीज में क्यों लग गए तीन साल? पढ़ें इसकी संघर्ष गाथा

कहते हैं हर इंसान अपनी किस्मत लेकर आता है। इसी प्रकार फिल्में भी अपनी किस्मत लेकर आतीं हैं। विद्वान फिल्मकार डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी के निर्देशन में बनी ‘मोहल्ला अस्सी’ को इस मामले में बदकिस्मत कहा जा सकता है। क्यों? यह इसलिए, क्योंकि यह फिल्म 2011 में बननी शुरू हुई और 2014—15 में बनकर तैयार हो गई। यहां तक सबकुछ ठीक है। निर्माण के बाद इसे प्रमाणन के लिए सीबीएफसी (सेंसर बोर्ड) के पास भेजा गया। यहीं से ‘मोहल्ला अस्सी’ का मुकद्दर पलट गया। तीन साल तक यह फिल्म न सिर्फ रिलीज को तरसती रही, बल्कि इसकी सेंसर कॉपी यू—ट्युब पर लीक भी हो गई। पूरी फिल्म लीक हुई और आनन—फानन में कई लोगों ने इंटरनेट पर देख लिया। जाहिर है इससे फिल्म के व्यावसायिक पक्ष को नुकसान हुआ। मुद्दतों संघर्ष के बाद आखिरकार 16 नवंबर 2018 को इसे पर्दा नसीब भी हुआ, तो कई काट—छांट के बाद। सीबीएफसी द्वारा लगाए गए कट्स के कारण फिल्म के कई दृश्यों के मूल भाव कमजोर हो गए हैं।

Sakshi Tanwar and Sunny Deol in a scene from Mohalla Assi

यह तो हुई ‘मोहल्ला अस्सी’ के रिलीज की संघर्ष गाथा। अब इसके कंटेंट की बात। कहानी 1980—90 के दशक की है। बनारस के अस्सी घाट (या अस्सी मोहल्ला) पर पंडित धर्मनाथ पांडेय (सनी देयोल) कर्मकांड कराते हैं और संस्कृत पढ़ाते हैं। पांडेय जी सिद्धांतवादी हैं। बनारस के व्यावसायिक उपयोग व विदेशियों के जमावड़े के वे विरोधी हैं। वहीं उनकी पत्नी (साक्षी तंवर) घर के विपन्न हालत पर पांडेय जी से नाराज रहती है। गिन्नी (रवि किशन) मस्तमौला नवजवान है, जो विदेशियों के लिए गाइड का काम कर पैसे कमाता है। फिल्म में सनातन समाज के मूल्यों में हो रहे क्षरण, बनारस की आध्यात्मिकता का व्यावसायीकरण, कर्मकांड के नाम पर पाखंड जैसे विषयों को रोचकता के साथ दिखाया गया है। बनारस में यह फिल्म रची—बसी लगती है। संकरी गलियां, भरे बाजार, दुकानें, बनारसी पान, ठेठ बोली, गंगा घाट अादि को डॉ. द्विवेदी ने विश्वसनीयता के साथ फिल्माया है। साथ ही यह फिल्म राम जन्मभूमि के विषय को भी सहलाते हुए देश के दरकते राजनीतिक व सामाजिक संरचना पर तंज कसती है। फिल्मकार ने ‘मोहल्ला अस्सी’ को बहुस्तरीय बनाने की कोशिश की है। यह प्रशंसनीय है। इसका दूसरा पहलू है कि इसे बहुस्तरीय बनाने और बहुत कुछ दिखाने की चाहत में यह फिल्म एक डोर में बंधी नजर नहीं आती है। सनी देयोल को एक्शन हीरो के रूप में ही अब तक देखते आ रहे हैं। पहली बार उन्होंने अपनी हीरोइज्म से बाहर निकलकर एक सीधे—साधे संसकृत अध्यापक का किरदार निभाया है। फिल्म में सौरभ शुक्ला, राजेंद्र गुप्ता, मुकेश तिवारी, मिथिलेश चतुर्वेदी जैसे मंजे हुए कलाकार हैं। परंतु, इनका सही इस्तेमाल फिल्म में नहीं हो सका है। उपन्यास के आधार पर ही पूरी फिल्म को व्यंग्यात्मक अंदाज में प्रस्तुत किया गया है। खासकर चाय की दुकान पर लगने वाली बैठकी और रवि किशन के गाइड वाले दृश्य गुदगुदाने वाले हैं।

Film Mohalla Assi shows different facets of Indian Culture that prevails in Banaras.

विद्वान फिल्मकार डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. काशीनाथ सिंह के चर्चित उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ पर बड़े जतन से इस फिल्म की रूपरेखा रची थी। लेकिन, उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ के विस्तृत क्षितिज को वे एकीकृत रूप में समेट नहीं पाए। इस कारण यह फिल्म टुकड़ों में तो पूरी प्रमाणिकता के साथ बनारस के विभिन्न रंगों को दिखाती है। लेकिन, एक संपूर्ण फिल्म के स्तर पर कुछ अधूरापन छोड़ जाती है। कई खामियों के बावजूद ‘मोहल्ला अस्सी’ को देखा जा सकता है, क्योंकि बनारस में बसे भारतीय संस्कृति का यह समकालीन दास्तावेजीकरण करती है।