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लालू की गैरमौजूदगी में आरजेडी असहाय कैसे? पढ़ें

पटना : आरजेडी सुप्रीमो लालू यादव की कमी न सिर्फ चुनाव अभियान के दौरान महसूस होगी बल्कि इसका अहसास अभी से ही पार्टी नेताओं को पग—पग पर होना शुरू हो गया है। शुक्रवार को जिसतरह से महागठबंधन के घटक दलों ने राबड़ी देवी या तेजश्वी यादव पर दबाव बनाकर ज्यादा से ज्यादा सीटें अपनी झोली में डालने का प्रयास किया उससे स्पष्ट है कि आरजेडी के लिए घटक दलों को एकसाथ लेकर चलना आसान नहीं होगा।
शायद यही कारण था कि न तो तेजश्वी यादव प्रेस कॉन्फ्रेन्स में दिखे ना उपेंद्र कुशवाहा या जीतन राम मांझी। वास्तव में आरजेडी केवल 17 सीट पर ही अपने उम्मीदवार उतार सकेगी। उसे दो सीटें अपने कोटे से घटक दलों को देनी होगी। एक सीट सीपीआई एमएल को तथा एक सीट शरद यादव की पार्टी लोजद को देनी होगी। चुनाव बाद शरद यादव की पार्टी का आरजेडी में विलय हो जायेगा।
आरजेडी के एक पूर्व सांसद का मानना है कि राजद के लिए 17 सीट का आंकड़ा इसलिए तय किया गया कि बीजेपी और जेडीयू भी 17-17 सीटों पर उम्मीदवार खड़ा कर रहे हैं। इस प्रकार तीन मुख्य दल एक समान सीटों पर चुनाव लड़ेंगे। जहां तक क्षेत्रीय दल का सबाल है, उसमें उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी आरएलएसपी को पांच और पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी की पार्टी को तीन सीटें दी गईं हैं। मुकेश साहनी की पार्टी वीआइपी को तीन सीट मिली है।
कांग्रेस 9 सीटों पर अपना उम्मीदवार खड़ा करेगी। लालू का ही दबाव था कि कांग्रेस को 9 सीटों से संतुष्ट होना पड़ा। अगर राज्यसभा सदस्य अखिलेश प्रसाद सिंह की बात मानें तो कांग्रेस शुरू में 15 सीटों पर चुनाव लड़ना चाह रही थी, मगर बात 11 सीट पर बन गई थी। लेकिन महागठबंधन के घटक दल के दबाव के कारण सिर्फ 9 सीटों से उसे संतोष करना पड़ा।
महागठबंधन के सीट बंटवारे से स्पष्ट है कि लालू जातीय आधार को ध्यान में रख कर सीट बंटवारे के पक्ष में थे। 2015 के विधानसभा चुनाव में जब जेडीयू आरजेडी से साथ थी, तब लालू ने जाति को ही आधार बनाकर चुनाव लड़ा था और उसमें सफलता हासिल की थी। लालू पुनः उसी रणनीति को आजमाना चाहते हैं।