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क्या है मांझी-मुकेश और पूर्णमासी की ‘दलित तिकड़ी’? नई गोलबंदी की कवायद!

पटना : वर्चस्व की लड़ाई में बिहार में दलित राजनीति कई धाराओं में फूटकर एक दूसरे को ललकारने लगी है। यह ललकार कहीं राम विलास पासवान के खिलाफ है, तो कहीं स्थापित सत्ता को सीधी चुनौती है।

उभरने लगा बिहार में दलित राजनीति का नया फोर्स

पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने महागठबंधन से अलग हट कर घोषणा कर दी है कि दलितों की राजनीति उनके हाथों है, राम विलास पासवान के हाथों में नहीं। जबकि चिराग पासवान ने उन पर सीधे हमला करते हुए आज पटना में कहा कि मांझी आधार विहीन नेता हैं। दलितों का असली रहनुमा तो राम विालास पासवान ही रहे हैं।

मुकेश सहनी कर रहे पूर्णमासी व मांझी की लाइजनिंग

चम्पारण के ताकतवर दलित नेता पूर्णमासी राम ने हाल ही में कांग्रेस का दामन छोड़ कर महागठबंधन को तो झटका दिया ही, अलग जनसंघर्ष पार्टी बना कर अपनी दलित राजनीति को धार भी दी। पूर्णमासी राम लालू सरकार में मंत्री रह चुके हैं। गोपालगंज से सांसद भी रहे। उन्होंने तब सुर्खियां बटोरी थी जब मंत्री रहते उन्होंने लालू प्रसाद से किसी बात पर अनबन होने पर इस्तीफा दे चुनाव के लिए ललकारा था।

असली दलित नेता तो राम विलास ही हैं : चिराग

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उधर, वीआईपी के मुकेश सहनी पूर्णमासी और जीतन राम के बीच लाइजनिंग कर एक नया दलित फोर्स बनाने की जु्गत में भिड़ गये हैं। मुकेश सहनी युवा और महात्वाकांक्षी नेता हैं। फिल्मी दुनिया में सेट तैयार करने वाले मुकेश बिहार में एक नया पाॅलिटिकल सेटिंग की तैयारी में हैं। हालांकि मुकेश सहनी ने बताया कि उनकी बात सभी नेताओं से होती है। इसमें लाइजनिंग का सवाल नहीं उठता। बात करना तो औपचारिकता भर है। हां, उन्होंने स्वीकार किया कि महागठबंधन के नेताओं में वो माद्दा नहीं है कि एनडीए जैसे विशालकाय हाथी से वो लड़ सकें।

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पूर्णमासी ने अलग पार्टी बना दिखायी औकात

मुकेश सहनी ने दलित राजनीति के रहनुमाओं की दुखती रग पर हाथ रखते हुए कहा कि दलित राजनीति की बिसात पर फारवार्डोंं की सभी राजनीति करते रहे हैं। दलित अभी भी वहीं हैं, जहां सौ साल पहले थे। हां, कुछ में राजनीतिक चेतना आयी है।

अब सवाल उठता है कि क्या बिहार में उभर रही दलित फोर्स एनडीए के साथ होगी अथवा अकेले अपनी औकात बताएगी? महागठबंधन से तो मांझी, सहनी तथा पूर्णमासी ने नाता तोड़ ही लिया। बात अगर रामविलास पासवान की करें तो वे एनडीए में हैं ही। वैसे, विधानसभा चुनाव अगले साल है। ऐसे में दलित राजनीति की नई गोलबंदी किस दिशा जाएगी-अभी साफ नहीं है।