कौन है चुगिला? क्या है सामा और चकेवा की दुखभरी दास्तां?

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पटना : भाई-बहन के अटूट प्रेम का प्रतीक सामा-चकेवा आज से शुरू हो गया। सामा चकेवा पर्व का संबंध पर्यावरण से भी माना जाता है। पारंपरिक लोक​गीतों से जुड़ा सामा—चकेवा मिथिला संस्कृति की वह खासियत है जो सभी समुदायों के बीच व्याप्त जड़ बाधाओं को तोड़ता है। आठ दिनों तक यह उत्सव मनाया जाता है और नौवें दिन बहनें अपने भाइयों को धान की नयी फसल का चूड़़ा एवं दही खिला कर सामा-चकेवा की मूर्तियों को तालाब में विसर्जित कर देते हैं। शाम ढ़लते ही बहनों द्वारा डाला में सामा चकेवा को सजा कर सार्वजनिक स्थान पर बैठ कर गीत गाया जाता है। जैसे सामा चकेवा अइह हे…! वृंदावन में आग लगले…! सामा चकेवा खेल गेलीए हे बहिना… आदि गीतों द्वारा हंसी-ठिठोली की जाती है और भाई को दीर्घायु होने की कामना की जाती है।

भाई-बहन के अटूट प्रेम का प्रतीक सामा-चकेवा

मिथिलांचल में सामा चकेवा की तैयारियां दीवावली के समय से ही शुरू हो जाती हैं। कार्तिक मास के पंचमी शुक्ल पक्ष तिथि से सामा चकेवा के मूर्ति की खरीदारी शुरू हो जाती है। पंचमी से पूर्णिमा तक चलने वाले इस लोकपर्व सामा-चकेवा में भाई-बहन के सात्विक स्नेह की गंगा निरंतर प्रभावित होती रहती है। पर्व के दौरान बहन अपने भाई के दीर्घजीवन एवं संपन्नता की मंगलकामना करती है।

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चंपारण से लेकर मालदा तक मिथिला संस्कृति

सामा-चकेवा हिमालय की तलहट्टी से लेकर गंगा तट तक और चम्पारण से लेकर मालदा-दीनाजपुर (बंगाल) तक मनाया जाता है। दीनाजपुर मालदह में बंगला भाषी होने के बाद भी वहां की महिलाएं एवं युवतियां सामा-चकेवा पर मैथिली गीत ही गाती हैं, जबकि चम्पारण में भोजपुरी—मैथिली मिश्रित सामा-चकेवा के गीत गाए जाते हैं।

क्या है सामा—चकेवा की पौराणिक कथा?

पौराणिकता एवं लौकिकता के इस लोक पर्व की कहानी कुछ यूं है—भगवान कृष्ण की पुत्री श्यामा और पुत्र शाम्भ के बीच अपार स्नेह था। कृष्ण की पुत्री श्यामा ऋषि कुमार चारूदत्त से ब्याही गयी थी। श्यामा ऋषि मुनियों की सेवा करने बराबर उनके आश्रमों में जाया करती थी। भगवान कृष्ण के दुष्ट स्वभाव के मंत्री चुरक को यह रास नहीं आया और उसने श्यामा के विरूद्ध राजा के कान भरना शुरू किया। क्रुद्ध होकर भगवान श्रीकृष्ण ने श्यामा को पक्षी बन जाने का श्राप दे दिया।
श्यामा का पति चारूदत्त भी भगवान महादेव की पूजा-अर्चना कर उन्हें प्रसन्न कर स्वयं भी पक्षी का रूप प्राप्त कर लिया। श्यामा के भाई एवं भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र शाम्भ ने अपने बहन-बहनोई की इस दशा से मर्माहत होकर अपने पिता की ही आराधना शुरू कर दी। इससे प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण ने उससे वरदान मांगने को कहा। तब पुत्र से अपने बहन-बहनोई को मानव रूप में वापस लाने का वरदान मांगे जाने पर उन्हें पूरी सच्चाई का पता लगा और उन्हें श्राप मुक्ति के उपाय बताते हुए कहा कि श्यामा रूपी सामा एवं चारूदत्त रूपी चकेवा की मूर्ति बनाकर उनके गीत गाये और चुरक की कारगुजारियों को उजागर करें तो वे दोनों पुनः अपने पुराने स्वरूप को प्राप्त कर सकेंगे।

सामा—चकेवा पक्षी की जोड़ियों का आगमन शुरू

जनश्रुति के अनुसार शरद महीने में सामा-चकेवा पक्षी की जोड़ियां मिथिला में प्रवास करने पहुंच गयी थीं। भाई साम्भ भी उसे खोजते मिथिला पहुंचे और वहां की महिलाओं से अपने बहन-बहनोई को श्राप से मुक्त करने के लिये सामा-चकेवा का खेल खेलने का आग्रह किया और कहते हैं कि उसी द्वापर युग से आजतक इसका आयोजन हो रहा है। सामा चकेवा पर्व में बहनें सामा-चकेवा, सतभइया, खड़रीच, चुगिला, वृन्दावन, चैकीदार, झाझीकुकुर, साम्भ आदि की प्रतिमा एवं उपकरण मिट्टी एवं खड़ से बनाती हैं और उसे डाला (बांस की बनी टोकरी) में लेकर शाम होते ही शहर एवं गांव के चौक-चैराहा एवं जुते हुए खेतों में जुटती हैं और सामा-चकेवा से संबंधित पारम्परिक गीतों का गायन करती हैं। इसके बाद खड़ से बने नकली वृंदावन में आग लगाती हैं और बुझाती हैं। इस दौरान महिलाएं ‘वृंदावन में आगि लागल क्यों न बुझाबै हे, हमरो से बड़का भइया दौड़ल चली आबै हे, हाथ सुवर्ण लोटा वृंदावन मुझावै हे’ इसके बाद महिलाएं चुगला (संठी से निर्मित) को गालियां देती हुई। उसके ढाढी में आग लगाते हुए गाती है कि ‘चुगला करे चुगलपन, बिल्लाई करै म्याउं, ध के ला चुगला के फांसी द आउं’।

चुगला के खात्मे के बाद पूर्णिमा को पर्व का समापन

इस दौरान सामा-चकेवा का विशेष श्रृंगार किया जाता है और उसे खाने के लिये हरे धान की बालियां दी जाती हैं और रात्रि में उसे युवतियों द्वारा खुले आसमान के नीचे ओस पीने के लिये छोड़ दिया जाता है। पूर्णिमा के दिन इस पर्व का समापन होता है। समापन के पूर्व भाइयों द्वारा सामा-चकेवा की मूर्तियों को घुटने से तोड़ा जाता है और उसका आकर्षक रूप से सजे बेर जो एक मंजिला, दो मंजिला और झिझरीदार एवं मंदिरनुमा होता है, उसमें रखकर नदी एवं तालाब या खुले खेतों में विसर्जित कर देते हैं।
पंचकोसी मिथिला में उसे जुते हुए खेतों में भसाने की परम्परा है, जबकि अन्य जगह उसे नदी एवं तालाब में प्रवाहित किया जाता है। महिलाएं अपने भाइयों को उसके धोती एवं गमछा से बने फाफर में मुढ़ी और बतासा खाने के लिये देती हैं। विसर्जन के दौरान महिलाएं सामा-चकेवा से फिर अगले वर्ष आने का आग्रह करते हुए ‘सामचको-सामचको अबिह हे जोतला खेत में बैसियह हे सब रंग पटिया ओछिबइह हे भइया के आशीष दीह हे’ गाना गाती हैं। विसर्जन के दिन भाइयों की काफी अहम भूमिका होती है।

डा. शंकर कुमार लाल
(लेखक समाजशास्त्र विभाग, काशी—हिंदू विवि, वाराणसी में पोस्ट डॉक्टोरल फेलो हैं)

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