सारण : समय के अनंत प्रवाह में जीवन पानी की तरह बहता जाता है और यह बहाव बहुत कुछ बदल देता है। इसी बहाव में किसी युग का मणिपुर, रतनपुर होते हुए चिरान्द में बदल गया और जानकी घाट जहाज घाट के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उक्क्त बातें अयोध्या से आए मिथलेश नंन्दनी शरण ने अपने प्रवचन के दौरान श्री रसिकशिरोमणि मन्दिर में कही।
चिरान्द वर्णन में उनके द्वारा बताया गया श्री पौराणिक नगरी चिरान्द में गंगा सरयू-सोन के संगम तट पर श्री रसिक शिरोमणि मंदिर ‘अयोध्या मठिया’ के रूप में इतिहास का वह स्वर्ण स्तंभ खड़ा है। जिस पर समय की बहुत सी धूल जम गई है।
श्रीरामभक्ति-धारा की रसिक उपासना में तत्सुखी शाखा के प्रवर्तक स्वामी श्रीयुगलप्रियाशरण जी महाराज, जीवाराम जी की मूल गद्दी यही मन्दिर है। यद्यपि यह स्थान उनके भी पूर्व आचार्यों के समय से चला आ रहा था किंतु उपासना की दृष्टि से ‘तत्सुखसुखित्व’ अंगीकार करके उसकी परम्परा का प्रवर्तन स्वामी जीवाराम जी ने यहीं से किया।
ध्यातव्य है कि इन्ही स्वामी जीवाराम जी के शिष्य स्वामी श्रीयुगलानन्यशरण जी को अंग्रेजी हुकूमत से अयोध्या 52 बीघे भूमि मिली थी जिस 1065 में श्रीलक्ष्मणकिला की स्थापना हुयी। अनुसंधान वस्तुनिष्ठा के आग्रह से प्रायः भौतिकता में जड़ हो जाते हैं।
पुरातत्त्व और इतिहास-भूगोल की पहचान से व्यापक होते चिरान्द में अयोध्या मठिया एक आध्यात्मिक धरोहर है। इसी आश्रम में हाल ही में दिवंगत हुये महान्त के भण्डारे के अवसर पर एक बार फिर से यहाँ धार्मिक जगत् के विशिष्ट महानुभावों का समागम आयोजित हो रहा है। जिसके तहत मंदिर में आयोजन की तैयारी अंतिम चरण में चल रही महन्थ मैथिलीरमणशरण ने बताया कि 4 फरवरी के भंडारा में हजारों की संख्या में श्रधालू संत महात्मा सामिल होंगे।