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NITISH KUMAR
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2013-2015 और 2017 की तरह पाला बदलना आसान नहीं, जानिए क्यों बैकफुट पर आए नीतीश?

बिहार में एनडीए में सब ठीक है। राज्य की एनडीए सरकार को पांच सालों तक के लिए जनादेश मिला है। एनडीए सरकार 2025 तक चलेगी। ये बयान है जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह का। जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष का बयान वैसे समय में आया जब उन पर हाल के दिनों में बिहार में जारी राजनीतिक उठापटक का मुख्य सूत्रधार कहा जा रहा था। यह चर्चा थी कि जदयू के राष्ट्रीय अध्य्क्ष ललन सिंह भाजपा के साथ सरकार चलाने के पक्ष में नहीं थे।

कोई भी राजनीतिक चाल सेफ नहीं!

ललन सिंह समेत एनडीए के कई नेताओं ने बीते दिन यह कहा कि भाजपा जदयू में सब ठीक है, यह सरकार 2025 तक चलेगी। इसके बाद मई में कैबिनेट की कई बैठकें टलने के बाद गुरूवार को अचानक मंत्रिपरिषद् की बैठक बुलाई गई। जदयू नेताओं के तेवर नरम होने तथा कैबिनेट की बैठक चर्चा होने लगी कि अचानक से एनडीए में सब कुछ सामान्य क्यों होने लगा? वजह तलाशने के बाद यह पता चला कि पाला बदलने को आतुर नीतीश कुमार और ललन सिंह को उनके विश्वस्त लोगों ने समझया कि स्थितियां 2013, 2015 और 2017 की तरह नहीं है, इसलिए अभी कोई भी राजनीतिक चाल सेफ नहीं है।

2013 में संख्याबल, विस अध्यक्ष और राज्यपाल सभी नीतीश के फेवर में

नरेंद्र मोदी को भाजपा द्वारा प्रधानमंत्री का चेहरा घोषित करने के बाद नीतीश कुमार ने भाजपा से गठबंधन तोड़ते हुए कहा था कि ‘आया तो बार-बार संदेशा अमीर का, हमसे मगर हो न सका सौदा ज़मीर का’। नीतीश कुमार इस समय पाला बदलने में सफल इसलिए हुए क्योंकि 2013 में विधानसभा अध्यक्ष और राज्यपाल इनके फेवर का था। उस समय विधानसभा अध्यक्ष हुआ करते थे जदयू के उदय नारायण चौधरी तथा राज्यपाल डी वाई पाटिल, इसके साथ ही जदयू उस समय सदन में 117 विधायकों के साथ सबसे सबसे बड़ी पार्टी थी। दल में नीतीश कुमार का एकतरफा राज था, उस समय नीतीश कुमार के कारण जदयू की पहचान होती थी, इसलिए कोई भी विधायक सपने में भी नीतीश कुमार के खिलाफ जाने का नहीं सोचते थे। कांग्रेस का समर्थन प्राप्त था, इसलिए देश में कांग्रेस की सरकार होने के कारण राज्यपाल भी नीतीश के फेवर में थे।

2013 में नीतीश सरकार के पक्ष में 126 वोट और विपक्ष में 24 वोट पड़े थे। भाजपा के 91 सदस्यों और लोकजनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के एक विधायक ने सदन से वॉकआउट किया था। जदयू के 117 विधायकों, 4 निर्दलीयों, 4 कांग्रेसी विधायकों और एक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के विधायक का समर्थन मिला था। नीतीश के विश्वास प्रस्ताव के विरोध में राजद के 22 विधायकऔर दो निर्दलीय विधायक शामिल थे।

2015 में राजद और बाहुबलियों का समर्थन

इसके साथ ही 2015 में जब नीतीश कुमार, मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी को हटाकर फिर से मुख्यमंत्री बनना चाहते थे, तो उस समय इन्हें भाजपा और लोजपा को छोड़ सभी दलों ने समर्थन दे दिया था। इसके अलावा 2015 में बहुमत परीक्षण को लेकर पहले से आभास हो रहा था कि कुछ विधायक हमारे (जदयू ) खिलाफ जा सकते हैं, तो उस समय विधानसभा अध्यक्ष रहे उदय नारायण चौधरी ने कुछ विधायकों को अनुशासनहीनता के आरोप में निष्कासित कर दिया था।

साथ ही 2015 में भी नीतीश कुमार की पार्टी को सदन में सबसे बड़ी पार्टी थी। सबसे बड़े दल होने के साथ-साथ कई बाहुबली भी सदन के सदस्य थे, जिसमें अनंत सिंह का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। जीतन राम मांझी को हटाने को लेकर अनंत सिंह ने सार्वजनिक रूप से कहा था कि मांझी को हटना पड़ेगा, नहीं तो उसको पीट देंगे और यह सब बयान जदयू के सर्वेसर्वा और राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री के सामने वर्तमान मुख्यमंत्री के लिए कहा जा रहा था।

2017 में संख्याबल, विस अध्यक्ष और राज्यपाल फिर से सभी नीतीश के फेवर में

इसके अलावा 2017 की बात करें, तो 2017 में नीतीश कुमार भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने जा रहे थे। उस समय विधानसभा अध्यक्ष जदयू का और केंद्र में मोदी सरकार होने के कारण राज्यपाल का भी कथित रूप से झुकाव एनडीए की तरफ था। ऐसे में 2017 में उन्हें फिर से मुख्यमंत्री बनने के लिए ज्यादा माथापच्ची नहीं करनी पड़ी। क्योंकि, इस समय बहुमत से ज्यादा आंकड़ा एनडीए को प्राप्त था।

संख्याबल, विस अध्यक्ष और राज्यपाल भाजपा के फेवर में

वहीं, 2022 की बात करें, तो अब नीतीश के लिए स्थितियां 2013-2015 और 2017 की तरह नहीं है। इस समय की सबसे बड़ी समस्या यह है कि नीतीश कुमार तीसरे नंबर की पार्टी के नेता बने हुए हैं। नीतीश कुमार की पार्टी के मात्र 45 विधायक हैं। वहीं, भाजपा सबसे बड़ी पार्टी है, साथ ही विधानसभा अध्यक्ष भी भाजपा कोटे से हैं और केंद्र में भाजपा की सरकार होने के कारण राज्यपाल की नियुक्ति भी भाजपा ने अपने पसंद के लोगों की कर रखी है, ऐसे में किसी भी परिस्थिति में यह समय नीतीश कुमार के अनुकूल नहीं है।

पार्टी में गुटबाजी

साथ ही चर्चाओं की मानें तो नीतीश कुमार के बेबस होने का कारण यह भी बताया जाता है कि इस समय जदयू तीन धरे में बंटी हुई है। एक खेमा ललन सिंह के साथ है, तो दूसरा खेमा नीतीश कुमार के साथ तथा तीसरा खेमा आरसीपी के साथ, अब नीतीश ऐसी स्थिति में है कि वे स्वतंत्र होकर एकतरफा निर्णय नहीं ले सकते हैं, अगर निर्णय लेते हैं, तो पार्टी में बड़ी टूट हो सकती है।

साम, दाम, दंड-भेद अपना सकती है भाजपा

साथी कांग्रेस विधायकों को लेकर असमंजस की स्थिति है, समय-समय पर खबरें आती है कि कांग्रेस के विधायक कभी भी टूट सकते हैं। ऐसे में वर्तमान में जो राजनीतिक माहौल है इसमें एक बार फिर कांग्रेस के विधायकों के टूटने की चर्चा शुरू हो चुकी है। इसके अलावा भाजपा सत्ता प्राप्त करने के लिए हर हथकंडे को अपना सकती है। भाजपा वह भी तरीका अपना सकती है, जो तरीका जदयू ने 2014-2015 में अपनाई थी। 2014 के अंतिम में अनुशासनहीनता के आरोप में विधानसभा अध्यक्ष ने कुछ विधायकों को निलंबित किया था, यही स्थिति या आज भी बनी हुई है। 2014 में विस अध्यक्ष ने पार्टी विरोधी गतिविधियों के कारण जदयू के अजीत कुमार (कांटी), पूनम देवी (दीघा), राजू सिंह (साहेबगंज) और सुरेश चंचल (सकरा) को बर्खास्त कर दिया गया था। इन विधायकों का झुकाव मांझी की तरफ था।

चुनाव की मांग

अल्पमत होने के बावजूद सबसे बड़ा दल होने के कारण भाजपा यहां मुख्यमंत्री बना लेती है, तो बहुमत परीक्षण में असफल होने के बाद भाजपा यह कह सकती है कि अभी जो स्थिति है ऐसे में सरकार चलाना बड़ा मुश्किल काम है और हॉर्स ट्रेडिंग की संभावना बनी हुई है। इसलिए मेरा अनुरोध है कि प्रदेश में एक बार चुनाव करा लिया जाए, इसके बाद जिस दल को बहुमत मिलेगी वह सरकार चलाएंगे। ऐसे में संभव है कि सुबे में एक बार चुनाव करा ली जाय।

पहली पसंद भाजपा

एक इंटरनल सर्वे की मानें तो जदयू, राजद और कांग्रेस के कई ऐसे विधायक हैं, जो दोबारा चुनाव में जाने की स्थिति में नहीं है। इन दलों के कई विधायक और नेता तमाम तरह के मुश्किलों का सामना कर रहे हैं, ऐसे में कई विधायकों और नेताओं की पसंद भाजपा हो सकती है।

रणनीति के तहत VIP के विधायकों को BJP में कराया गया विलय

वीआईपी के विधायकों को भाजपा में विलय कराने के पीछे की मंशा यह है कि अगर भविष्य में कभी राजनीतिक उठापटक होती है, तो कानूनी रूप से सबसे बड़े दल को सरकार बनाने का मौका मिलेगा। वीआईपी के विधायकों के भाजपा में शामिल होने से पूर्व राजद बिहार विधानसभा में सबसे बड़ा दल था, लेकिन वीआईपी के विधायकों केभाजपा में शामिल होते ही अब भाजपा विधानसभा में सबसे बड़े दल के रूप में है।