पटना : पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ कॉमर्स में ‘प्राचीन भारतीय शिक्षा और एशिया में इसके प्रभाव’ विषय पर दो दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन किया गया। इस मौके पर पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय के कुलपति गुलाब चंद राम जायसवाल ने कहा कि हमारी शिक्षा व्यवस्था गुरुकुल की शिक्षा व्यवस्था से निकल कर आई है जिसमें चरित्र निर्माण पर विशेष ध्यान दिया जाता था।
‘प्राचीन भारतीय शिक्षा और एशिया में प्रभाव’ पर सेमिनार
उन्होंने कहा कि ये बड़े दुख की बात है कि जिस देश, जिस राज्य में कभी सबसे पुराना नालंदा महाविहार हुआ करता था, आज उस राज्य की साक्षरता दर सबसे कम है। शिक्षा व्यवस्था में व्यापक बदलाव की जरूरत को महामना मदन मोहन मलवीय ने भी प्रमुखता से कार्य करने योग्य माना। पाश्चात्य देशों की नकल करना हमारी शिक्षा पद्धति को विमूढ़ बना देता है। हमारी शिक्षा पद्धति संस्कार, मूलगत चेतना और चरित्र निर्माण पर आधारित है जो अब बिल्कुल भ्रष्ट सी हो गई है। इसमें सुधार की आवश्यकता है। नव नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो बैधनाथ लाभ ने कहा कि शिक्षा का मूल उद्देश्य ज्ञानोपार्जन होना चाहिए, अर्थोपार्जन नहीं। उन्होंने कहा कि जब आप बुद्धिस्ट, जैन और इस्लामिक शिक्षा पद्धति की बात करते हैं तो हम सेक्युलर हैं और जैसे ही सनातन शिक्षा पद्धति की बात करते हैं तो हम एकपक्षीय हो जाते हैं।
भारतीय शिक्षा व्यवस्था में गिरावट रोकने को बदलाव जरूरी
भारतीय इतिहास संकलन समिति के डॉ बालमुकुंद पांडेय ने कहा कि भारतीय शिक्षा का उद्देश्य मनुर्भवः यानी मनुष्य बनाना है। जानवर से मनुष्य बनाने की प्रक्रिया ही शिक्षा है। उन्होंने कहा कि धरती का सबसे पुराना ग्रंथ ऋग्वेद है जिसके सांतवें मंडल में शिक्षा की परंपरा है।
इस मौके पर दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो केटीएस सरांव ने बताया कि प्राचीन भारत के समृद्ध इतिहास को भ्रष्ट पाश्चात्य सभ्यता ने कर दिया। केटीएस सरांव ने यह भी कहा कि भारतीय इतिहास में कभी भी साम्प्रदायिक दंगों के इतिहास कभी नहीं मिल सकेंगे। उन्होंने ये भी कहा कि जब आप भारतीय शिक्षा व्यवस्था को किसी दूसरे शिक्षा व्यवस्था से तुलना करेंगे। तो पाएंगे कि भारतीय व्यवस्था भौतिकवादी न हो कर आध्यात्मिक थी जो सबतक पहुंचने और सबको शिक्षित करने की बात करती थी। जबकि पश्चिम सभ्यता भारी भेदभाव पर आधारित थी जो समाज में एक बड़ा गैप पैदा करती थी। उन्हीने कहा कि इसका एक तर्क भी दिया जाता है कि लक्ष्मी और सरस्वती एक सतग कभी नहीं रह सकती। यानी ज्ञान और भौतिकतावाद एक साथ अस्तित्व में नही रह सकता। हमें प्राचीन सभ्यता और शिक्षा व्यवस्था को दोबारा से लागू करने की कोशिश करनी चाहिए।
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद इंस्टिट्यूट ऑफ एशियन स्टडीज के चेयरमैन सुजीत कुमार घोष ने बताया कि इस संस्थान की स्थापना 1993 में भारत सरकार के सांस्कृतिक मंत्रालय के अंतर्गत की गई थी। उन्होंने कहा कि ये सोचने वाली बात है कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति ने दक्षिण एशिया के आकर्षण का केन्द्र कैसे बना। भारत की संस्कृति 7 वीं शताब्दी से ही कभी राजनीतिक सहयोग से तो कभी व्यापारिक रिश्तों के माध्यम से फैलता रहा।
इस मौके पर कॉलेज ऑफ कॉमर्स, आर्ट्स एंड साइंस के प्राचार्य तपन कुमार शांडिल्य ने कहा कि हम चाहते हैं कि हमारे विवि में ट्रेडिशनल पाठ्यक्रमों के अलावा वोकेशनल पाठ्यक्रमों की भी शुरुआत हो। जैसे कि बुद्धिस्ट स्टडीज। इसके अलावा कुछ बुद्धिस्ट इतिहास पर आधारित कुछ पुस्तकों का विमोचन भी किया गया। इतिहास चिंतन और अन्य पुस्तकों के बारे में संक्षेप में बताया गया। इस सेमिनार में कुलपति गुलाबचंद राम जायसवाल, नव नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो बी लब्ज, दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो केटीएस सरांव, प्रो सुजीत कुमार घोष, इतिहास संकलन समिति के डॉ बालमुकुंद पांडेय , प्राचार्य तपन कुमार शांडिल्य के अलावा प्रो राजीव रंजन , अन्य प्रोफेसर और छात्र-छात्राएं भी मौजूद रहे।
सत्यम दुबे