~ रामरतन प्रसाद सिंह ‘रत्नाकर’
नवादा : गाँव-भाव बदला, विचार बदला, संस्कार बदला, व्यवहार बदला। प्रेमचंद के समय जब देश गुलाम था, उन दिनों गाँव में सामंत और महाजन गाँववासियों को सताते थे, फिर भी उनका जीवन संतोष से भरा था। किसान और खेत में काम करने वाले मजदूरों के बीच अपनापन था। गाँव में पढ़े-लिखे लोगों की संख्या कम थी। संतोष पर आधारित समाज चलता था। पीपल और वट वृक्ष का काफी महत्व था। लोग इन वृक्षों की सेवा करते थे और उनकी लकड़ी या पत्तों को जलाते तक नहीं थे। पीपल वृक्ष तो देवालय के समान माने जाते थे। पर्यावरण के प्रति ऐसी निष्ठा है। प्रेमचन्द की कहानियों और उपन्यासों में 20वीं शताब्दी के गाँव का दर्शन होता है।
प्रेमाश्रम उपन्यास में नायक या नायिका का सृजन नहीं किया बल्कि वर्ग संघर्ष को आधार बनाया है। गोदान का रचनाकाल गुलामी के समय का है। गोदान के एक पात्र रामदेव की जुबान से शोषण के इस रूप को सुना जा सकता है। यह कहता था थाना पुलिस, कचहरी अदालत सब हैं हमारी रक्षा के लिए, लेकिन रक्षा कोई नहीं करता, चारों तरफ लूट है जो गरीब है, बेबस है, उसकी गर्दन काटने के लिए सभी तैयार हैं। यहाँ तो जो किसान हैं वह सब का नरम चारा है। रामधारी सिंह दिनकर ने भी गाँव को उसी रूप में देखा था लेकिन साहित्य साधना का मूल विषय इतिहास को बनाया। प्रेमचन्द जहाँ मूल रूप से लेखक थे, वहीं दिनकर जी कवि थे। काव्य-साहित्य में कई बार कल्पना या भावना का महत्व अधिक होता है, इस कारण कवि प्रवाहित नदी तो देखता है लेकिन उफान भरे जल के तांडव बहुत बार मूल विषय नहीं बन पाता है। लेकिन लेखकों का मूल विषय तेज धारा में प्रवाहित गाँव और डूबती फसल महत्वपूर्ण हो जाता है। सब कुछ होते हुए भी जन्मभूमि के आस-पास का जीवन सच चाहे। अनचाहे अभिव्यक्त हो ही जाता है।
बिहारी लेखकों में रामवृक्ष बेनीपुरी की कहानियों में कई स्थान पर किसान वर्ग के कई हिस्से प्रपंच और ठगी के नायक के रूप में भी सामने होते हैं। आजादी के बाद गाँव के जीवन में ठग-प्रपंच रचने वाले या पैरवी दलाली करने वालों का चरित्र भी सामने आने लग गया था। विधवाओं की जमीन हड़पना, की भूमि पर अवैध कब्जा करना। कचहरी की दलाली करने वाले वर्ग का उदय भी हो गया था। संतोष पर आधारित गाँव में अर्थ-लोभ का तांडव हो गया था। भाई-भाई के बीच विभाजन ,कही नहीं, एक भाई दूसरे को बढ़ते देख जलने लगे थे। गाँव में नेतृत्व को लेकर भी विवाद होने लग गया था। ठेकेदारी- पट्टेदारी, लाइसेंस-परमिट वाले वर्ग का उदय हो गया था। राष्ट्रहित और समाजहित को नजरअंदाज किया जा रहा है।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने डॉ. विवेकी राय के पास 1.1.58 को लम्बा पत्र लिखा था जिसमें गाँव की सेवा से आपका क्या तात्पर्य है, मैं नहीं जानता। गाँव वाले आपको क्या करने को कहते हैं। मुझसे तो बहुत काम लेते हैं और फिर कलह-प्रपंच आदि से बाज नहीं आते। इतना कहने के बाद भी गाँव के प्रति नाराजगी गाँव नरक है। अपने गाँव की नारकीयता को कम करने में मैं बचपन से लगातार जुटा रहा हूँ। फिर भी सुधार होता नहीं। मैं ग्राम सेवा के बारे में आपको कोई राय नहीं दे सकता। हाँ, साहित्य सेवा कहीं भी रहकर की जा सकती है।
गाँव के जीवन को करीब से देखने वाले फणीश्वर नाथ रेणु का खुद का जीवन आर्थिक परेशानियों से भरा है। इस संदर्भ में उनके पिताजी व्यंग्य कसते है-कहानियाँ लिखते हैं और अपने घर की कहानी पढ़ नहीं सकते। खण्डहर कहानी से उद्धत पहले अंश में तो रेणु का निजी जीवन उभर कर सामने आता है। रेणु जी सामाजिक कार्यकर्ता थे, समाजवादी आन्दोलन से जुड़े थे और लेखक थे।
रेणु गाँव की बदलती तस्वीर पर इसी कहानी में लिखते हैं-मुरली प्रसाद सब दिन से कांग्रेस के खिलाफ कांग्रेसियों को गाली देता रहा। 1942 में पुलिसवालों के साथ घरों में आग लगवाता फिरा लेकिन उसका बेटा आज कांग्रेस का प्रेसिडेंट है, अफसरों के साथ मोटरों में घूमता है। यह आजादी के बाद के गाँव की तस्वीर है। ‘वट बाबा कहानी में अनंत मंडल की पतोहू के बारे में रेणु लिखते हैं कि उसके शरीर पर सिर्फ एक फटी साड़ी थी, जिसमें पाँच-सात पैबन्द लगे थे. चार-पाँच साड़ी के टुकड़ों की पट्टियाँ तथा दो-ढाई हाथ की कंट्रोल की साड़ी, सुहाग की साड़ी का एक टुकड़ा तथा अन्य साड़ियों के टुकड़ों की पट्टियों से बनी ‘पंचरंगी साड़ी से अपनी लाज ढकते आँसू पोछते वह बोली बाबा अब इससे बढ़कर और कौन-सी सजा दोगे ?
इस लेख के लेखक की कहानी कोलसार हिन्दी और मगही में प्रकाशित है। लेखक ने बदलते गाँव की तस्वीर पर लिखा है-प्रखण्डों के निर्माण से विकास योजनाओं का फैलाव होने लगा। धीरे-धीरे त्याग सद्भावना पर संचालित राजनीति से रूप व संस्कार भी बदलने लग गया। अब फागु का बेटा ब्लॉक जाता है, तो डेंगु का बेटा थाने की दलाली करता है। अब मउगउगवा मुंह बाला हो गया है। अब सिमेंट-चीनी परमिट तो गन्ना पेराई के लिए प्रवेश पुज बेचने वाले लोग हैं। अब स्वतंत्रता सेनानी दर्पण चाचा-सागर सिंह जब कोलसार और आजादी की लड़ाई और किसान संघर्ष की बात करते हैं तो आजादी के बाद की बड़ी पीढ़ी के लोग हँसते हैं।
इसी कहानी में स्वतंत्रता सेनानी दर्पण सिंह कहते हैं-वस्तुहारी का गजब का अनुभव हो रहा है। कहीं लड़का है, तब देखने में सुंदर नहीं है, कहाँ सुंदर लड़का है तो पढ़ने-लिखने में जीरो है। कहीं सब ठीक है तो गाँव ठीक नहीं है। गाँव के जवान लड़के, हाथ में लाल धागा बांध कहीं गांजे का दम तो कहीं शराब की छाँक लगा रहे हैं। जिस गाँव में यह सब है वहीं चोर उचक्के भी हैं, यही सब पचड़ा है। सागर सिंह गाँव का हाल देख परेशान हैं, कोलसार के बंद हो जाने के कारण घाय पीने का सामूहिक आयोजन भी बंद है। कोलसार महज गन्ना से गुड़ बनाने का स्थान ही नहीं था बल्कि सामूहिक सामुदायिक जीवन की पाठशाला भी था।
आजादी मिलने के दो दशकों के बीच गाँव के नकारात्मक विकास की महज यह बानगी है। फणिश्वरनाथ रेणु ने जिस गाँव की राजनीतिक काया को बदलते देखा, बहुत कुछ रत्नाकर की कहानियों में भी वही सब स्पष्ट हुआ है। 21 वी शताब्दी में गाँव की तस्वीर में राजनीतिक कार्यकर्ताओं का अभाव है । अब मुनाफा जनित राजनीति का दौर जारी है। इस दौर में धनबल और बाहुबल का प्रभाव सब पर हावी है। कई ढंग के ठेकेदार ढंग-ढंग के लाइसेंस परमिट वाले सड़कों पर वाहन दौड़ा रहे हैं।
प्रेमचंद के समय के दलित का चाल चरित्र बदल गया है। वे सरकारी फण्ड के बड़े हिस्से के हकदार है। ज्ञान ऐसा बढ़ा है कि एक ही दलित एक से अधिक इंदिरा आवास का धन ले चुका है। बैंकों के ऋण के साथ भी यही स्थिति है। इस वर्ग के कई लोग दलाली भी करने लगे हैं। ग्रामीण स्तर पर दे राजनीतिक गतिविधियों के भागीदार भी हैं। प्रेमचंद और रेणु ने जिस दलित को देखा था. अब वैसा नहीं है। दलित अधिकारियों का बड़ा वर्ग सामंतों जैसा व्यवहार करने लगा है। डॉ. लोहिया का कथन सही है कि साधन आते ही दलित और पिछड़े घरों की औरते ठकुरानी की चाल चलती है। एक नए सामंत वर्ग का उदय सही नहीं है।फणिश्वरनाथ रेणु ने जो पाँच पैबंद की साड़ी देखी थी वह भी अब नहीं है। अब इन वर्गों का बड़ा हिस्सा साल के आठ महीने गाँव से बाहर रहता है।
चार महीने के लिए जब घर आता है तो ईंट-भट्टा वाले दादनी (अग्रिम भुगतान) के प्रति जोड़ी को साठ हजार से एक लाख रुपया मिलता है। बिहार के गाँव में अब पिछड़े वर्ग का राजनीतिक प्रभाव बढ़ा है। उनके सभी वाहन है और अन्य साधन है। गाँव के जीवन में भौतिकवाद के उदय के कारण लोभ-प्रपंच और ठगी विस्तार से राष्ट्रपिता के सपने के गाँव में मानवीय मूल्य का हनन और धन और बाहुबल के बढ़ते प्रभाव को रोकने वाली युवा पीढ़ी खुद मानसिक रूप से खाली और सामाजिक प्रतिबद्धता से अलग है। अब दर्शन तो बड़ी चीज है, यह सामान्य साहित्य से भी विमुख है। अर्थात् आत्माविहीन महज शरीर का ढाँचा दिख रहा है। यह स्थिति विचलन का साक्षी है। इसे बदलने की जरूरत है।