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जिले का कश्मीर ककोलत जल प्रपात अनोखा पर्यटन स्थल 

– रामरतन प्रसाद सिंह रत्नाकर 

नवादा : हजारीबाग पर्वत माला के लोहदंड पर्वत के किसी अज्ञात भण्डार से अनन्त काल से 150 फीट की ऊंचाई से पत्थर की एक पतली पट्टी पर गिरकर गहरे जलाशय और धारा का रूप लेती है, इस स्थान को ककोलत कहा जाता है। प्रकृति की सुरम्य वादियों में बसा ककोलत जलप्रपात लौहदण्ड पर्वत के 150 फीट नीचे गिरते जल के कारण यहां नयनाभिराम दृश्य उपस्थित करते हैं।

वन वृक्षों, लताओं से भरा यह परिवेश सैलानियों के लिए आकर्षण का केन्द्र है। जलप्रपात का गिरता जल जैसे रूई के गोलों में बदलकर वर्षा के फुहार का रूप लेकर मनमोहक दृश्य उपस्थित करता है। जिले के नवादा रेलवे स्टेशन से 21 मील दूर गोविन्दपुर प्रखंड क्षेत्र का ककोलत जलप्रपात प्रकृति की अनुपम देन है। ककोलत जलप्रपात का दर्शन फ्रांसिस बुकानिन ने 19 दिसम्बर 1811 ई. में अकबरपुर के एक व्यापारी के साथ किया और पाया कि एक ऊंचे पर्वत से साफ जल नीचे गिर रहा है। जिस स्थान पर जल गिर रहा था उस स्थान पर एक गहरा तालाब था।

फ्रांसिस बुकानन अपनी यात्रा-वृतांत में लिखते हैं कि जहां पर ऊंचाई से जल गिरता था उस स्थान के दक्षिण, पश्चिम और पूरब में पर्वत और वन हैं। यहां के पत्थर को राजमहल के आस-पास के जैसा पत्थर मानते हैं। फ्रांसिस बुकानन ने ककोलत को किसी ढंग के धार्मिक स्थल के रूप में नहीं पाया। मात्र इसको प्रकृति नैसर्गिक स्थल के रूप में देखा था। 1845 ई. में जिले के अन्तर्गत नवादा अनुमंडल कायम किया गया। नवादा को अनुमंडल का दर्जा प्राप्त होने के बाद नवादा के प्रथम अनुमंडल पदाधिकारी ने बैलगाड़ी से नवादा से यात्रा करते हुये ककोलत जलप्रपात को देखा था।

1919 ई० में प्रकाशित गया जिला गजेटियर के अनुसार नवादा रेलवे स्टेशन से 21 मील दक्षिण पूरब में धरती से 160 फीट ऊंचाई पर ककोलत नामक जलप्रपात है। इस जलप्रपात के पास राजा नृप एक ऋषि के द्वारा श्राप देने के कारण गिरगिट के रूप में समय बिता रहे थे। जब पाण्डव अज्ञातवास के समय यहां पधारे तो राजा को श्राप से मुक्ति मिली और तभी से सांप योनि में जन्म लेने से मुक्ति के लिए आस-पास के लोग चैत संक्रांति के समय विसुआ पर्व के मौके पर धार्मिक विचार से स्नान करते हैं।

ककोलत के साथ जुड़ी है, सती मदालसा की गाथा

सप्तऋषियों में गृहस्थ जमदग्नि महत्वपूर्ण हैं। इनके पांच पुत्र हुए। ज्येष्ठ पुत्र रुकमान फिर सुषेण वसु और विश्वावसु और छोटे पुत्र भगवान परशुराम जी वसु वंशगर राजा हुए। मगध की राजधानी पांच पर्वतों के बीच गिरिब्रज को राजा वसु ने बसाया था इस कारण इस स्थान का प्रथम नाम वसुमति है।

जमदग्नि के पुत्र विश्वावसु की पुत्री मदालसा हुई। मदालसा भारतीय पवित्र साध्वी नारियों में एक मानी जाती हैं। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार मदालसा प्राचीन काम्यक वन के पास निवास करती थीं। इस काम्यक वन की चर्चा महाभारत के वनपर्व के अनुसार अज्ञातवास के समय कुछ दिनों तक पाण्डवों ने इसी स्थान पर अपना समय गुजारा था। सती मदालसा मगध देश की महत्वपूर्ण विदुषि नारी के रूप में जानी जाती हैं। मदालसा के व्यक्तित्व में गृहस्थ धर्म के महत्वपूर्ण योगदान अंकित है।

काम्यक वन में मार्कण्डेय मुनि के आश्रम होने की बात वायुपुराण में भी अंकित है। मार्कण्डेय पुराण का ही एक हिस्सा दुर्गा सप्तसती है। दुर्गासप्तसती नारी जाति को महिमा मंडित करने एवं शक्ति पुंज मानने का ग्रंथ है। मार्कण्डेय पुराण में ही साध्वी नारी मदालसा का वर्णन किया गया है। मदालसा जैसी माँ, पत्नी और गृहस्थ नारी भारतीय नारियों के लिए आदर्श हैं। मदालसा का विवाह राजा ऋतध्वज के साथ हुआ। मदालसा की कोख से चार पुत्रों का जन्म हुआ। ककोलत या काम्यक वन को लौहदण्डकारण्य क्षेत्र के रूप में गया महात्म्य के प्रसंग में माना गया है एवं मदालसा की धरती माना गया है।

प्राचीन काम्यक वन ही ककोलत वन है

महाभारत के वन पर्व में काम्यक वन की चर्चा है। इस वन की चर्चा में कहा गया है कि अज्ञातवास के समय पाण्डवों ने इस स्थान पर निवास किया था। वन और पर्वत के इस मनोरम स्थान पर किसी अज्ञात जल भण्डार से गिरते शीतल जल के पास समय गुजारते पाण्डवों से मिलने इस स्थान पर सत्यभामा के साथ भगवान श्रीकृष्ण पधारे। भगवान श्री कृष्ण के पास आते “देख राजा नृप जो किसी ऋषि के श्राप के कारण गिरगिट के रूप में निवास कर रहे थे।

भगवान श्रीकृष्ण के पैर यहां पड़ते ही राजा नृप अपने मानव योनि में प्रकट हो गये। तभी से काम्यक वन के ककोलत जलप्रपात के शीतल जल में खासकर चैत संक्रांति में स्नान करने मात्र से सांप योनि में जन्म लेने से मुक्ति प्राप्त करने के लिए लोग स्नान करते आ रहे हैं। वायुपुराण के गया महात्म्य में आर्यावर्त में प्रसिद्ध आठ पवित्र जलाशयों में एक लौहदण्डकारण्य क्षेत्र का पवित्र जल तन को शीतल कर देने वाला ककोलत जलप्रपात है। इस जलप्रपात को पताल गंगा भी माना गया है। और इस स्थान के आस-पास ही ऋषि मार्कण्डेय का निवास स्थल था।

ऋषि मार्कण्डेय के निवास स्थल में एक शक्ति पुंज की चमक के कारण लोगों में वनों के बीच पर्वतों की तनहाई में इस प्रकाश पुंज को एकतारा नाम से पुकारा, वर्तमान में ककोलत जलप्रपात से दो किलोमीटर उत्तर पश्चिम में एकतारा नामक स्थल है। इस एकतारा नामक स्थल के पास से प्रस्तर कालीन सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं। पत्थर का हस्तकुठार, ढाल, तलवार, चौपर आदि प्राप्त हुआ है । एकतारा के आस-पास हरे आम का वन था जिसके सम्बंध में कहा जाता था कि एक कोल जाति के जागीरदार के द्वारा लगाया गया आमवन था।

एकतारा से तात्पर्य है घने वन और पर्वतों के बीच मात्र एक चमकने वाला स्थल जो आसमान के तारे जैसा प्रतीत होता था। कहते हैं ऋषि मार्कण्डेय ने इसी स्थल पर मार्कण्डेय पुराण की रचना की जिसका एक भाग दुर्गासप्तसती है। प्राचीन काम्यक वन ही वर्तमान का ककोलत वन या ककोलत जलप्रपात है। 1966 ई० में भारत सरकार का एक केन्द्रीय दल ककोलत आया और भारी गर्मी और तपिश में जब जिले का जल स्तर काफी नीचे चला गया था तब भी ककोलत जलप्रपात से जल नीचे लगातार गिर रहा था।

केन्द्रीय दल ने कौतूहल के साथ जलप्रपात को देखा और इस जलप्रपात से बिजली उत्पादन करने की अनुशंसा की। इस अनुशंसा के कारण ककोलत जल प्रपात की चर्चा देश के अखबार और पत्र-पत्रिकाओं में हुई। 1973 ई० को जब नवादा जिले का गठन किया गया तब से इसके विकास के लिए प्रयास तेज हो गया। नवादा जिला के गठन के बाद दो जिला पदाधिकारी इतिहास और संस्कृति के जानकार होने के कारण ककोलत जलप्रपात के विकास को अन्जाम देने में लग गये।

प्रथम जिला पदाधिकारी नरेन्द्र पाल सिंह ने थाली के पास से ककोलत जलप्रपात तक का पांच किलोमीटर पथ का निर्माण किया। इसके बाद पंचम लाल, जो स्वयं इतिहास और संस्कृति के लेखक भी हैं, ने जिला पदाधिकारी के रूप में अपने कार्यकाल के समय जलप्रपात तक पहुंचने के लिए सीढ़ी का निर्माण किया जिसे पूर्व में एक टिकैत जागीरदार ने बनाया था।निर्माण और विकास के काम को 1990 ई० में नवादा के तात्कालीन समाहर्ता फैज अकरम ने धरती पर उतारने का जोरदार प्रयास किया। गहरे तालाब को समतल किया। पूर्व में स्नान करने वाले कई लोगों की मौत गहरे तालाब में हुई है। अब यह डर नहीं है।

पुनश्चय

बिहार के कश्मीर नाम से प्रसिद्ध ककोलत जलप्रपात के विकास एवं प्रचार प्रसार में नवादा के पत्रकारों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। एक समाजिक कार्यकर्ता मसीहउद्दीन ने ककोलत विकास परिषद का गठन 1998 में किया। इस संगठन के महत्वपूर्ण सहयोगी रामरतन प्रसाद सिंह रत्नाकर ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह संगठन 1998 से 2013 तक चलता रहा, इस बीच मगध क्षेत्र के कम से कम 30 और अधिक से अधिक 50 साहित्यकार कवियों की भागीदारी ककोलत महोत्सव के अवसर पर खासकर 14 अप्रैल से 16 अप्रैल के बीच कवि, साहित्यकारों, अधिकारियों, राजनेताओं इत्यादि की भागीदारी भी इस आयोजन में होता रहा।

2013 में बिहार सरकार ने उस समय के समाहर्ता देवेश सेहरा को अवगत कराया की यह महोत्सव सरकार आयोजित करेगी लेकिन फिर कभी आयोजित नहीं हो सका। इस आयोजन में चार बार माउंटेन कटर दशरथ मांझी ने मुख्य अतिथि के रूप में भाग लिया, इसके अलावे बिहार विधानसभा के तत्कालिन अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी, नवादा के आधा दर्जन के करीब समाहर्ता, इसके अलावे प्रदेश स्तर के पत्रकारों की भागीदारी रही। यहां यह भी स्पष्ट है कि ककोलत पर प्रथम बार काम्यक वन ही ककोलत वन है, इस आशय का लेख रामरतन प्रसाद सिंह रत्नाकर का दैनिक आर्यावर्त, दैनिक प्रदीप, दैनिक आज एवं दैनिक जनशक्ति में प्रकाशित हुआ। इसी ढंग से एक दर्जन के करीब लेखक एवं पत्रकारों के लेख एवं कविता का प्रकाशन भी हुआ।

उंचे पर्वत से गिरते जल का नैसर्गिक सौंदर्य कई बार बाढ़ आ जाने से बिगड़ जाता है और कई बार प्रपात तक पहुंचने की सीढ़ी का नुकसान भी होता है लेकिन, पर्यटकों का उत्साह गर्मी के मौसम में देखते ही बनता है। 14 अप्रैल से 16 अप्रैल तक परंपरागत ढंग से सर्प योनि से मुक्ति के लिए स्नान करते हैं, इस कारण यहां विसुआ मेला का भी आयोजन होता है। फिलहाल वन विभाग ने ककोलत जलप्रपात पर जाने पर रोक लगा रखा है। 14 अप्रैल विसुआ संक्रांति पर पर्यटकों के लिए खोलने की मांग तेज हो गई है।