– वैदिक काल से अबतक की वर्ण व्यवस्था पर राम रतन प्रसाद सिंह रत्नाकर के विचार
नवादा : शृंग वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था उनके द्वारा स्वीकार किए गए कर्म एवं व्यवसाय से था। उत्तर वैदिक काल में यज्ञो के महत्वपूर्ण होने के साथ ही वैदिक भारत की उदार परंपराओं में यज्ञ के महत्वपूर्ण होने के साथ ही वैदिक भारत की उदार परंपराओं की अपेक्षा करके पुरोहित ब्राह्मण ग्रंथों तथा सूत्र ग्रंथों ने वर्ग स्वार्थ की स्थापना की एवं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र का वर्ण विभाजन को अधिक कठोर सुदृढ बना डाला। इसी काल में मनुस्मृति प्रकाश में आया। जिसमें इसके रचयिता भगवान मनु ने वर्ण विभाजन का उद्देश्य लोक विस्तार बताया। (मनु 3/31) मूल खोजना कठिन है लेकिन अलग-अलग वर्ण जाति एवं कुल के लोगों की मान्यता है कि अमुक देव पितर के संतान हैं और उनकी एक जाति है जिसका एक नाम भी है।
ब्रह्मर्षि या वाभन भृगु वंश के महा तपस्वी जमदग्नि ऋषि से अपने को जोड़ते हैं। महाभारत के वन पर्व के अनुसार जमदग्नि आश्रम वासी थे। गृहस्थ धर्म का पालन करते थे। वेद वेदांत का अध्ययन ज्ञान के लिए उन्होंने किया था। वायु पुराण, भागवत पुराण और महाभारत के अनुसार आश्रम वासी तपस्वी जमदग्नि के पांच पुत्रों में सबसे बड़े वसु जिन्होंने मगध का राज नगर प्रथम नाम वसुमति और बाद में राजगृह को अपना राजनगर बनाया। वसु वंशगर के राजा हुए। सबसे छोटे भाई परशुराम ने धरती का विभाजन किया। सबसे बड़ा भूभाग ऋषि कश्यप को प्रदान किया। उन्होंने स्पष्ट किया कि शास्त्र और शस्त्र धारण करना ब्राह्मण धर्म है। बाभन भगवान परशुराम को अपने इष्ट देव मानते हैं और अन्याय का प्रतिकार करना अपना धर्म मानते हैं।
महाभारत के एक लंबे कथा के सार संक्षेप के अनुसार जन्म से मगध सम्राट राजा जरासंध राजा बसु के वंशज थे। भागवत धर्म के पोषक वासुदेव श्री कृष्ण को राजा जरासंध के ब्राह्मण होने के कारण वैर हुआ। वासुदेव श्री कृष्ण ने मगध सम्राट जरासंध से बैर के कारण नीतिगत माना है। महाभारत के सभा पर्व में मगध की राजधानी गिरिवर्ज राजगृह ब्राह्मण का रूप धारण करके वासुदेव श्री कृष्ण भीमसेन, अर्जुन के पधारने पर श्री कृष्ण जरासंध से कहते हैं कि पुष्प माला धारण करना तो आप श्रीमानो का काम है।
क्षत्रियों की भुजाएं ही उनका बल है। सभा पर्व के अनुसार जरासंध से वासुदेव श्री कृष्ण अपनी नीति स्पष्ट करते हैं। राजन तुमने क्षत्रियों का बलिदान करने का निश्चय किया है। तुम सर्वश्रेष्ठ राजा होकर भी क्षत्रियों का नाश करना चाहते हो। इस जाति की अभिवृद्धि के लिए तुम्हारे वध के निश्चय करके यहां पधारे हैं। तुम जो इस घमंड में फूले रहते हो कि मेरे सामने कोई योद्धा क्षत्रिय नहीं है यह तुम्हारा भ्रम है। आगे अपनी नीति वासुदेव श्री कृष्ण क्षत्रिय जाति का विस्तार माना।
प्रजा को कष्ट देने वाले क्षत्रिय राजाओं का जरासंध के रहते खैर नहीं थी। महाभारत काल में जातिगत बैर का सबसे बड़ा उदाहरण है वासुदेव श्री कृष्ण के भाव से स्पष्ट है कि उस काल के में जातिगत भेदभाव था। लेकिन उनका भी महत्व भागवत धर्म के अनुसार जिस जाति के लिए जो कर्म निर्धारित है उसे वही करना है। इस बंधन को भी भृगु वांसियो ने नहीं माना।
यहां यह स्पष्ट है कि भगवान बुद्ध के पूर्व से ही बाभन वर्णाश्रम भागवत धर्म के द्वारा जातियों के लिए निर्धारित कर्म को नहीं मानते थे। इस कारण बाभन राजा कृषक और याज्ञिक होते आए हैं। इसके अलावा बाभन सदा वैदिक देवताओं जिसमें भगवान सूर्य, इंद्र को इष्ट देव मानते रहे हैं। विचारों की समानता के कारण वाभनो के निवास भौगोलिक स्थिति के क्षेत्रों में बौद्ध धर्म का विस्तार हुआ। भगवान बुद्ध का भी कथन है जाति से कोई बड़ा छोटा नहीं होता अच्छे कर्म से आदमी महत्वपूर्ण होते हैं।
बौद्ध साहित्य के कुणाल जातक एवं स्तंभ 2,10,26 के अनुसार इस काल में ब्राह्मण भूमिपति थे। जिनको गृह पति कहा जाता था। बौद्ध साहित्य की पवित्र पुस्तक मस्जिम में निकाय 12,164 में लिखा गया है उस काल में ब्राह्मण आध्यात्मिक जीवन छोड़कर भूमि संग्रह में लगे थे। तथा भूपति के रूप में गांव के अगुआ थे। इस काल में भूमि से जुड़े ब्राह्मणों को बाभन कहा जाता था। लेकिन भूमिहार नाम नहीं था। यह नाम 100 वर्षो के अंदर सीमित ढंग से उपयोग में है। 1931 के जनगणना और 1929 में प्रकाशित जिला गजेटेरियट में भी पांच जाति के नाम अंकित हैं। लोकमत में भी वाभन और संस्कृत पाली भाषा में बाभन और ब्रह्मर्षि नाम है।
फारसी और उर्दू साहित्य के जानकारों ने बताया कि मुगल बादशाह अकबर के 10 रत्नों में एक टोडरमल बाभन थे और भूमि संबंधी विभाग के मंत्री थे। मान्यता है कि संत तुलसीदास की कृति राम चरित्र मानस को प्रकाशित टोडरमल ने कराया था। भारत में ईस्ट इंडिया के नाम से व्यवसायिक संगठन ने अपने जाल में फंसाया और देश 200 सालों तक अंग्रेजों का गुलाम हो गया। इस अंधेरा से भरे कालखंड में शिक्षा की ज्योति बिहार में जलाने का काम बाभन जाति के लंगट सिंह ,राम दयालु सिंह, कैप्टन गोपाल शरण सिंह , येदल सिंह एवं दो दर्जन बाभन जाति के लोगों ने किया था।
भारत के खासकर बिहार में अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में सैकड़ों वभानो ने बंदूक का सामना किया। बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री डॉ श्रीकृष्ण सिंह सात वर्षों तक जेल यात्रा सही। मगध क्षेत्र के शत्रुघ्न प्रसाद सिंह ने काला पानी की सजा काटी। शीलभद्र याजी और उनके सैकड़ों सहयोगियों ने सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में संघर्ष किया और शारीरिक यातनाएं सही।
जमींदारों और महाजनों के खिलाफ स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में जोरदार संघर्ष किया। इनके बड़े सहयोगी साहित्यकार रामवृक्ष शर्मा बेनीपुरी, कार्यानंद शर्मा, यदुनंदन शर्मा ने लाठी खाई, जेल यात्रा सही। यह नाम महज बानगी के हैं। जन ज्वार में सैकड़ों ने अपने को बलिदान किया। सबसे आश्चर्यजनक स्थिति है बिहार में सबसे अधिक जमींदार बाभन थे और उसके प्रतिकार करने वाले में बड़ी संख्या में बाभन ही थे। जमींदारी प्रथा समाप्त भी बिहार में श्री कृष्ण सिंह ने किया। उन्हें बिहार के लिए लेलिन कहा जाता है।
संकट में व्यक्ति और समाज की परीक्षा होती है। आजादी के बाद 1967 में भयानक अकाल पड़ा था। उस समय आजादी के बाद प्रथम गैर कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ था। इस सरकार के संदर्भ में ब्रिटेन से प्रकाशित एक महत्वपूर्ण पत्रिका के कवर स्टोरी में लिखा संबिद सरकार नहीं, वाभनों की सरकार उसमें श्रम मंत्री बसावन सिंह, वित्त मंत्री कैलाशपति मिश्र, राजस्व मंत्री इंद्रदीप सिंह, ऊर्जा मंत्री चंद्रशेखर सिंह, खाद्य और आपूर्ति मंत्री कपिल देव सिंह के व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला गया था। बसावन सिंह मजदूर नेता थे। इंद्रदीप अर्थशास्त्र के विद्वान नेता थे।
चंद्रशेखर सिंह जोरदार भाषण देने वाले किसान मजदूरों के नेता थे। कपिल देव सिंह ने खाद आपूर्ति मंत्री के रूप में केंद्र सरकार को चेतावनी दी थी कि अगर खाद्यान्न देने में उपेक्षा की गई तब कोयला और लोहा बंद कर देंगे। कपिल देव सिंह पिछड़ों के सहयोग से विधायक बनते थे। बहुत संक्षेप में हमने लिखा है पत्रिका में विस्तार से लिखा था।
बाभन जाति के संघर्षशील व्यक्तित्व में समाजवादी नेता राजनारायण जी का नाम आदर और प्यार से बिहार के लोग आज भी लेते हैं। राज नारायण जी उत्तर प्रदेश के थे। लेकिन बिहार के संघर्षशील जनता के संघर्ष में सदा बिहार में रहते थे। उस समय शक्ति संपन्न भारत के प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को वोट से और कोट से पराजित किया था। यहां यह भी स्पष्ट है कि उस समय अन्य किसी नेता को इंदिरा जी के खिलाफ लड़ने की हिम्मत नहीं थी।
बाभन नेताओं में समन्वय की राजनीति करने वाले श्याम नंदन मिश्र केंद्रीय मंत्री मंडल में बिहार के प्रथम महिला मंत्री तारकेश्वरी सिन्हा, बिहार के सादगी पसंद मंत्री राम जीवन सिंह, शिक्षा का अलख जगाने वाले एलपी शाही, बिहार के मंत्री महेश प्रसाद सिंह का स्मरण किया जाता है। स्थिति चाहे जैसा भी हो जो सिर्फ अपने लिए और अपनी जाति के लिए सोचता है वह नेता और व्यक्ति को कभी इतिहास में स्मरण नहीं किया जा सकता है। इतिहास गवाह है कि भी भृगुवंश से लेकर आज तक इस समाज के तेजस्वी व्यक्तित्व के नायकों के मन में शोषण दोहन विहीन समाज का निर्माण लक्ष्य रहा है।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने 4 जून1961 को रामसागर चौधरी के पास पत्र लिखा था। उस पत्र में दिनकर जी ने लिखा मैं जातिवाद में विश्वास नहीं करता हूं। मुझसे जातिवाद के आधार पर कुछ बात करना और आस्वाभाविक एवं अन्याय पूर्ण है। अगर आप भूमिहार वंश में जन्मे या में जन्मा तो यह काम हमने अपनी इच्छा से तो नहीं किया। उसी प्रकार जो लोग दूसरी जातियों में जन्मते हैं उनका भी अपने जन्म पर अधिकार नहीं होता है। हमारे वंश की बात यह है कि भूमिहार होकर भी हम गुण केवल भूमि हारों में ही नहीं देखें अपनी जाति का आदमी अच्छा और दूसरी जाति का आदमी अच्छा और दूसरी जाति का बुरा होता है या सिद्धांत मानकर चलने वाला आदमी छोटे मिजाज का आदमी होता है। इस कारण लोग जातियों को भूलकर गुण के आधार में एक हो।
राम रतन प्रसाद सिंह रत्नाकर
ग्राम+पोस्ट – मकनपुर, वारिसलीगंज, नवादा