भगवा दल को भगवाधारी पर भरोसा

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अजीत ओझा

राष्ट्रीय विचारों को मानने वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का अस्सी के दशक में उदय हो रहा था, तो उसे पोस्टर बॉय के रूप अटल बिहारी वाजपेयी का सर्वस्वीकार्य चेहरा मिला। बाद के दिनों में जब श्रीराम जन्मभूमि का आंदोलन जोर पकड़ा तो यह माइलेज लालकृष्ण आडवाणी को मिलने लगा। यहां तक कि आडवाणी को भाजपा का लौहपुरुष भी कहा जाने लगा। नब्बे के दशक वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के घटक दलों की नजर में आडवाणी रैडिकल थे इसलिए उनके नाम पर तथाकथित सेक्युलर दल एकमत नहीं होते थे, वहीं अटलजी का चेहरा उन दलों को सूट करता था। इसलिए उनके नेतृत्व में 24 घटक दलों को लेकर 1998-99 में सरकार बन पाई।

21वीं के पहले दशक में संप्रग (संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन) सरकार के दौरान अटलजी के नेपथ्य में जाने से उनकी जगह आडवाणी ने ले ली और आडवाणी की सीट पर नरेंद्र मोदी आ गए। उस समय वे ही आडवाणी सौम्य प्रतीत होने लगे, जबकि नरेंद्र मोदी के नाम पर राजग के अंदर सहमति नहीं बन पाती थी। कुछ दल तो भाजपा द्वारा आडवाणी के बदले मोदी को प्रोमोट करने के कारण से ही एनडीए ने अलग हो गए। लेकिन, भाजपा ने संकल्पबद्ध होकर मोदी को आगे बढ़ाया, जिसका परिणाम हुआ कि पार्टी को लगातार दूसरी बार पूर्ण बहुमत का जनादेश मिला। पहले अटल-आडवाणी, फिर आडवाणी-मोदी का दौर आया (हालांकि इस जोड़ी को सरकार बनाने का अवसर कभी नहीं मिल पाया तथा यह जोड़ी संप्रग शासनकाल में ही बनकर समाप्त भी हो गई) और वर्तमान में भाजपा मोदी-शाह के दौर में फल-फूल रही है। लेकिन, इस तीसरे दौर की पारी भी निकट भविष्य में पूर्ण होगी और उसके बाद भाजपा के शीर्ष क्रम में चेहरा शिफ्टििंग का चौथा पड़ाव आएगा।

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क्रिकेट हो या राजनीति, यह आवश्यक नहीं है कि नंबर-2 रहने वाले को नंबर-1 की कुर्सी हासिल हो जाए। आडवाणी इसके सशक्त उदाहरण हैं। हाल ही भी संपन्न उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा को लगतार दूसरी बार दो-तिहाई से अधिक सीटें सौंपकर जनता ने विश्वास जताया है। मोदी के ब्रांडनेम के बाद यूपी जीतने का सबसे अधिक श्रेय भगवाधारी संन्यासी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को दिया जा रहा है। स्मरण रहे कि मोदी और योगी की चर्चा के शोर में अमित शाह के नाम की गूंज दब रही है।

…तो क्या यह माना जाए कि मोदी काल के बाद भाजपा सीधे योगी के चेहरे पर शिफ्ट करेगी? वर्तमान में योगी की छवि और भाजपा की नेतृत्व क्षमता को देखते हुए यह स्वाभाविक लगता है कि भगवा दल को भगवाधारी पर भरोसा करना होगा। कम से कम यूपी की जीत तो यही कहानी कह रही है।

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