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लोजपा स्थापना दिवस : कहानी रामविलास की, जिन्होंने साइकिल बेचकर शुरू की राजनीति और बने दलितों के मसीहा

लोजपा आज यानी 28 नवंबर को अपना 21वां स्थापना दिवस मना रही है। आज ही के दिन 2000 में रामविलास पासवान ने लोजपा का गठन किया था। इसके बाद से यह दल लगातार केंद्र की सत्ता में बनी रही। बिहार के तीन प्रमुख क्षेत्रीय दलों में लोजपा सबसे ज्यादा केंद्र की सत्ता में शामिल रही। इसका एक ही कारण रहा रामविलास पासवान का राजनीतिक समझ और बिहार के महादलित वर्ग (पासवान) वोटरों पर एकतरफा पकड़।

वर्ष 2000 में लोक जनशक्ति पार्टी की स्थापना से पहले रामविलास जनता पार्टी से होते हुए जनता दल और उसके बाद जनता दल यूनाइटेड का हिस्सा रहे। इससे पहले रामविलास 1981 में दलित सेना संगठन की स्थापना की, जो अभी भी दलितों का हितैषी बना हुआ है।

कैसे साइकिल बेचकर बने दलितों का मसीहा

दक्षिण भारत में दलितों के अधिकार व उत्थान के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित करने वाले दलित नेता रामास्वामी नायकर का प्रभाव उत्तर भारत के एक सुदूर गांव के एक दलित युवा पर ऐसा पड़ा कि उसने पुलिस की नौकरी ठुकरा कर राजनीति के जोखिम भरे मार्ग पर आजीवन चलने का दृढ़ संकल्प लिया। ताकि वह अपने समाज के दुख-दर्द को समाप्त कर सके, उन्हें उनका अधिकार दिला सके।

वही युवक आगे चलकर दलित नेता बाबू जगजीवन राम के उतराधिकारी बनकर उभरा। हां, हम बात कर रहे हैं दिवंगत जननेता रामविलास पासवान की। गुलाम भारत में वर्ष 1946 में जन्म लेने वाले रामविलास पासवान ने स्वतंत्र भारत में होश सम्भाला था। गांधीजी के लाख प्रयास के बावजूद दलितों की स्थिति संतोष जनक नहीं थी। युवा रामविलास पासवान ने राजनीति के माध्यम से संघर्ष का रास्ता अपनाया। अपनी सायकिल बेच दी और अपने गृह जिले खगड़िया के अलौली (सु) क्षेत्र से 1969 में पहली बार संसोपा के टिकट पर विधायक चुने गये।

1972 में विधानसभा चुनाव हारने के बाद वे कटिहार के कोढा से उपचुनाव में उतरे, लेकिन जीत नहीं सके। पहली बार सन 1969 में राम विलास पासवान का नाम बिहार की राजनीति में चर्चा में आया था। सिर्फ इसलिए नहीं कि वे संसोपा के विधायक बनकर पटना आए थे। बल्कि इसलिए कि विधायक चुनकर आते-आते उन्होंने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) विधायक दल के नेता पद के उम्मीदवार के रूप में उन्होंने स्वयं को पेश किया था।

पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र की वजह से सुर्ख़ियों में आये रामविलास

1969 में बिहार विधान सभा चुनाव में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के 50 विधायक विजयी हुए थे। उस समय पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र कायम थी। संसोपा विधायक दल के नेता पद का चुनाव हो रहा था। प्रसिद्ध समाजवादी नेता रामानंद तिवारी और धनिकलाल मंडल के बीच चयन की चर्चा थी। लेकिन, अचानक राम विलास पासवान भी उम्मीदवार बन गए थे। उनके इस हिम्मत भरे कार्य से उस समय के पत्रकारों व नेताओं को आश्चर्य हुआ था। लेकिन, अपने इस निर्णय से वे अचानक सुर्ख़ियों में आ गए थे।

शालीन व्यवहार के धनी रामविलास दोस्तपरस्त व्यक्ति थे

राजनीति में जो लोग हैं या आते रहते हैं, वे पासवान जी से शालीनता, विनम्रता सीखें, यदि उनमें इन गुणों की कमी है। वे ऐसी सामाजिक पृष्ठभूमि से आते थे, जिसके सदस्य में उत्पीड़क लोगों के लिए गुस्सा स्वाभाविक है। लेकिन, रामविलास पासवान के व्यवहार में वैसी तल्खी नहीं थी। रामविलास पासवान के जीवन से विधायिका के नए सदस्यों को सीखना चाहिए। वे संसद या विधान सभा के ‘जीरो आवर’ और ‘आधे घंटे के डिबेट’ की सुविधाओं का बेहतर इस्तेमाल करते थें। जिसके कारण उनकी छवि निखरी थी।

टूट गई लोजपा

हालांकि, रामविलास के निधन के बाद उनकी बनी-बनाई पार्टी बिखर गई है। जिंदा रहते रामविलास ने अपने बेटे चिराग पासवान को लोजपा का सर्वेसर्वा बनाया था। लेकिन, रामविलास के छोटे भाई पशुपति कुमार पारस पर सत्ता का ऐसा नशा चढ़ा कि भाई के द्वारा बरसों की मेहनत को खंड-खंड कर दिया। चिराग की माने तो रामविलास पासवान के छोटे भाई यानी पशुपति कुमार पारस उनके साथ ही जा मिले, जो रामविलास के जिंदा रहते उन्हें बेइज्जत किया था। फिलहाल, लोजपा दो गुटों में बंटी हुई है, एक गुट के नेता चिराग पासवान हैं और उनके गुट का नाम है लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) और दूसरे गुट के नेता हैं पशुपति कुमार पारस जिनके गुटका नाम है रालोसपा यानि राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी।