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विजयादशमी पर विभाजन का दर्द, जनसंख्या, नशा व हिंदुओ को बांटने के लिए गठबंधन समेत इन विषयों पर बोले सरसंघचालक

विजयादशमी के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 96वें स्थापना दिवस के मौके पर आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा कि यह वर्ष हमारी स्वाधीनता का 75 वां वर्ष है। 15 अगस्त 1947 को हम स्वाधीन हुए। हमने अपने देश के सूत्र देश को आगे चलाने के लिए स्वयं के हाथों में लिए। स्वाधीनता से स्वतंत्रता की ओर हमारी यात्रा का वह प्रारंभ बिंदु था। हम सब जानते हैं कि हमें यह स्वाधीनता रातों रात नहीं मिली । स्वतंत्र भारत का चित्र कैसा हो इसकी, भारत की परंपरा के अनुसार समान सी कल्पनाएँ मन में लेकर, देश के सभी क्षेत्रों से सभी जातिवर्गों से निकले वीरों ने तपस्या त्याग और बलिदान के हिमालय खडे किये, दासता के दंश को झेलता समाज भी एकसाथ उनके साथ खडा रहा, तब शान्तिपूर्ण सत्याग्रह से लेकर सशस्त्र संघर्ष तक सारे पथ स्वाधीनता के पड़ाव तक पहुँच पाये । परन्तु हमारी भेदजर्जर मानसिकता, स्वधर्म स्वराष्ट्र और स्वतंत्रता की समझ का अज्ञान, अस्पष्टता, ढुलमुल नीति, तथा उनपर खेलने वाली अंग्रेजों की कूटनीति के कारण विभाजन की कभी शमन न हो पाने वाली वेदना भी प्रत्येक भारतवासी के हृदय में बस गई । हमारे संपूर्ण समाज को विशेष कर नयी पीढ़ी को इस इतिहास को जानना, समझना तथा स्मरण रखना चाहिए । किसी से शत्रुता पालने के लिए यह नहीं करना है । आपस की शत्रुताओं को बढाकर उस इतिहास की पुनरावृत्ति कराने के कुप्रयासों को पूर्ण विफल करते हुये, खोयी हुई एकात्मता व अखंडता हम पुनः प्राप्त कर सकें इस लिये वह स्मरण आवश्यक हैं।

सामाजिक समरसता

एकात्म व अखण्ड राष्ट्र की पूर्वशर्त समताधिष्ठित भेदरहित समाज का विद्यमान होना है । इस कार्य में बाधक बनती जातिगत विषमता की समस्या हमारे देश की पुरानी समस्या है । इस को ठीक करने के लिए अनेक प्रयास अनेक ओर से, अनेक प्रकार से हुए । फिर भी यह समस्या सम्पूर्णतः समाप्त नहीं हुई है । समाज का मन अभी भी जातिगत विषमता की भावनाओं से जर्जर है । देश के बौद्धिक वातावरण में इस खाई को पाट कर परस्पर आत्मीयता व संवाद को बनानेवाले स्वर कम हैं, बिगाड़ करनेवाले अधिक हैं । यह संवाद सकारात्मक हो इसपर ध्यान रखना पडेगा । समाज की आत्मीयता व समता आधारित रचना चाहनेवाले सभी को प्रयास करने पड़ेंगे । सामाजिक तथा कौटुम्बिक स्तर पर मेलजोल को बढाना होगा । कुटुम्बों की मित्रता व मेलजोल सामाजिक समता व एकता को बढ़ावा दे सकता है । सामाजिक समरसता के वातावरण को निर्माण करने का कार्य संघ के स्वयंसेवक सामाजिक समरसता गतिविधियों के माध्यम से कर रहे हैं ।

स्वातंत्र्य तथा एकात्मता

भारत की अखण्डता व एकात्मता की श्रद्धा व मनुष्यमात्र की स्वतंत्रता की कल्पना तो शतकों की परंपरा से अब तक हमारे यहां चलती आई है । उसके लिए खून पसीना बहाने का कार्य भी चलता आया है । यह वर्ष श्री गुरु तेग बहादुर जी महाराज के प्रकाश का 400 वां वर्ष है । उनका बलिदान भारत में पंथ संप्रदाय की कट्टरता के कारण चले हुए अत्याचारों को समाप्त करने के लिए व अपने अपने पंथ की उपासना करने का स्वातंत्र्य देते हुए सबकी उपासनाओं को सन्मान व स्वीकार्यता देने वाला इस देश का परंपरागत तरीका फिर से स्थापन करने के लिए ही हुआ था । वे हिन्द की चादर कहलाए । प्राचीन समय से समय की उथल-पुथल में भारत की उदार सर्वसमावेशक संस्कृति का प्रवाह अखंड चलता रखने के लिए प्राण अर्पण करने वाले वीरों की आकाशगंगा के वे सूर्य थे । हमारे उन महान पूर्वजों का मन में बसा गौरव, जिस भारत माता के लिये उनका जीवन लगा उस मातृभूमि की अविचल भक्ति, तथा उन्हीं के द्वारा संरक्षित व परिवर्धित हमारी उदार सर्व समावेशी संस्कृति ये हमारे राष्ट्र जीवन के अनिवार्य आधार हैं ।

भारतवर्ष की कल्पना में स्वतंत्र जीवन का एक निश्चित अर्थ है । शतकों पहले महाराष्ट्र में संत ज्ञानेश्वर महाराज हो गए उनके द्वारा रचित पसायदान में वे कहते हैं कि दुष्टों का टेढ़ापन जाए, उनकी प्रवृत्ति सदाचार में बढ़े, जीवों में परस्पर मित्र भाव हो, संकटों का अंधेरा छठ जाए, सब में स्वधर्म का बोध जगे तथा सब की सब मनोकामनाएँ पूरी हों। यही बात आधुनिक काल में गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर द्वारा रचित सुप्रसिद्ध कविता में दूसरे शब्दों में कही गई है। जहां चित्त भय से शून्य हो, जहां हम गर्व से माथा ऊँचा करके चल सकें, जहां ज्ञान मुक्त हो, जहां दिन रात विशाल वसुधा को खंडों में विभाजित कर छोटे और छोटे आंगन न बनाए जाते हों, जहाँ हर वाक्य ह्रदय की गहराई से निकलता हो, जहाँ हर दिशा में कर्म के अजस्त्र नदी के स्रोत फूटते हों और निरंतर अबाधित बहते हों, जहाँ विचारों की सरिता तुच्छ आचारों की मरू भूमि में न खोती हो, जहाँ पुरूषार्थ सौ सौ टुकड़ों में बँटा हुआ न हो, जहां पर सभी कर्म, भावनाएँ, आनंदानुभुतियाँ तुम्हारे अनुगत हों। हे पिता, अपने हाथों से निर्दयता पूर्ण प्रहार कर उसी स्वातंत्र्य स्वर्ग में इस सोते हुए भारत को जगाओ ।

संघ प्रमुख ने कहा कि देश के स्वातंत्र्योत्तर जीवन के इस कल्पना चित्र के संदर्भ में जब परिस्थितियाँ देखते हैं तो स्वाधीनता से स्वतंत्रता तक हमारी यात्रा अभी जारी है, पूरी नहीं हुई है यह ध्यान में आता है। भारत की प्रगति तथा विश्व में सम्मानित स्थान पर उसका पहुँचना जिनको अपने निहित स्वार्थों के खिलाफ लगता है ऐसे दुनिया में कुछ तत्वं हैं। कुछ देशों में उनका बल भी है । भारत में सनातन मानवता के मूल्यों के आधार पर विश्व की धारणा करने वाला धर्म प्रभावी होता है तो स्वार्थी तत्वों के कुत्सित खेल बंद हो जाएंगे।

विश्व को उसका खोया हुआ संतुलन व परस्पर मैत्री की भावना देने वाला धर्म का प्रभाव ही भारत को प्रभावी करता है । यह ना हो पाए इसीलिए भारत की जनता, भारत की वर्तमान स्थिति,भारत का इतिहास, भारत की संस्कृति, भारत में राष्ट्रीय नवोदय का आधार बन सकने वाली शक्तियाँ, इन सबके विरुद्ध असत्य कुत्सित प्रचार करते हुए, विश्व को तथा भारत के जनों को भी भ्रमित करने का काम चल रहा है । अपनी पराजय तथा संपूर्ण विनाश का भय इन शक्तियों के आंखों के सामने होने के कारण अपनी शक्तियों को सम्मिलित करते हुए विभिन्न रूप में, प्रकट तथा प्रच्छन्न रूप से ध्यान में आने वाले स्थूल तथा ध्यान में ना आने वाले सूक्ष्म प्रयास चल रहे हैं । उन सबके द्वारा निर्मित छल कपट तथा भ्रमजाल से सजगतापूर्वक स्वयं को तथा समाज को बचाना होगा ।

सारांश में कहना हो तो दुष्टों की टेढी बुद्धि अभी भी वैसी ही है और अपने दुष्कर्मों को नये नये साधनों के माध्यम से आगे बढाने के प्रयास मे लगी है । निहित स्वार्थों के चलते तथा अहंकारी कट्टरपंथियों के चलते कुछ समर्थन जुटा लेना, लोगों की अज्ञानता का लाभ उठाकर उन्हें असत्य के आधार पर भ्रमित करना, उनकी वर्तमान अथवा काल्पनिक समस्याओं के आधार पर उन्हें भडकाना, समाज में किसी प्रकार से व किसी भी कीमत पर असंतोष, परस्पर विरोध, कलह, आतंक औंर अराजकता उत्पन्न कर अपने ढलते प्रभाव को फिर समाज पर थोपने का उनका कुत्सित मन्तव्य पहले ही उजागर हो चुका है ।

अपने समाज में व्याप्त “स्व” के बारे में अज्ञान, अस्पष्टता तथा अश्रद्धा के साथ साथ आजकल विश्व में बहुत गति से प्रचारित होती जा रही कुछ नयी बातें भी इन स्वार्थी शक्तियों के कुत्सित खेलों के लिए सुविधाजनक बनी है । बिटक्वाइन जैसा अनियंत्रित चलन प्रच्छन्न आर्थिक स्वैराचार का माध्यम बन कर सभी देशों की अर्थव्यवस्थाओं के लिए एक चुनौती बन सकता है । ओ. टी. टी. प्लैटफॉर्म पर कुछ भी प्रदर्शित होगा और कोई भी उसे देखेगा ऐसी स्थिति है । अभी ऑनलाइन शिक्षा चलानी पडी । बालकों का मोबाइल पर देखना भी नियम सा बन गया । विवेकबुद्धि तथा उचित नियंत्रण का अभाव इन सभी नये वैध अवैध साधनों के सम्पर्क में समाज को किधर व कहाँ तक ले जाएगा यह कहना कठिन है, परन्तु देश के विरोधी तत्व इन साधनों का क्या उपयोग करना चाहते हैं यह सब जानते हैं । इसलिए ऐसी सभी बातों पर समय रहते हुए उचित नियंत्रण का प्रबंध शासन को करना चाहिए।

कुटुंब प्रबोधन

परन्तु इन सब बातों के परिणामकारक नियंत्रण के लिए अपने अपने घर में ही उचित अनुचित तथा करणीय अकरणीय का विवेक देनेवाले संस्कारों का वातावरण बनाना होगा । अनेक व्यक्ति, संगठन तथा संत महात्मा इस कार्य को कर रहे हैं । हम भी अपने कुटुम्ब में इस प्रकार की चर्चा संवाद प्रारम्भ कर सहमति बना सकते हैं । कुटुम्ब प्रबोधन गतिविधि के माध्यम से संघ के स्वयंसेवक भी यह कार्य कर रहे हैं । “मन का ब्रेक उत्तम ब्रेक” ऐसा एक वाक्य आपने सुना या पढा होगा । भारतीय संस्कारजगत पर सभी ओर से हमले के द्वारा हमारे जीवन में श्रद्धा के निखन्दन तथा भ्रष्ट स्वैराचार के बीजारोपण का जो भीतरघात चल रहा है उसके सभी उपायों का आधार यही वि्वेकबुद्धि होगी ।

कोरोना से संघर्ष

कोरोना विषाणु के आक्रमण के तीसरी लहर का सामना करने की पूरी तैयारी रखते हुए हम अपनी स्वतंत्रता के 75 वर्ष भी मनाने की तैयारियां कर रहे हैं। कोरोना की दूसरी लहर में समाज ने फिर एक बार अपने सामूहिक प्रयास के आधार पर कोरोना बीमारी के प्रतिकार का उदाहरण खडा किया। इस दूसरी लहर ने अधिक मात्रा में विनाश किया तथा युवा अवस्था में ही कई जीवनों का ग्रास कर लिया। परन्तु ऐसी स्थिति में भी प्राणों की पर्वा न करते हुए जिन बंधु भगिनियों ने समाज के लिए सेवा का परिश्रम किया वे वास्तव में अभिनंदनीय है। और संकटों के बादल भी पूरी तरह छटे नहीं है। कोरोना की बीमारी से हमारा संघर्ष अभी समाप्त नहीं हुआ, यद्यपि तीसरी लहर का सामना करने की हमारी तैयारी लगभग पूरी हो चुकी है। बड़ी मात्रा में टीकाकरण हो चुका है, उसे पूर्ण करना पड़ेगा। समाज भी सावधान है, और संघ के स्वयंसेवक तथा समाज के अनेक सज्जन तथा संगठनों ने गांव स्तर तक, कोरोना के संकट से संघर्ष में समाज को सहायता करने वाले, सजग रखने वाले कार्यकर्ताओं के समूहों का प्रशिक्षण कर लिया है। हमारी तैयारी पुरी है भी है तथा इस संकट का संभवत: यह आखिरी चरण, बहुत तीव्र नहीं होगा ऐसी आशा करने की गुंजाइश भी है । परंतु किसी भी अनुमान पर निर्भर न रहते हुए पूर्ण सजगता के साथ तथा सरकारों के निर्बंधों का अनुशासन पालन करते हुए हमें चलना होगा ।

लगता है कि कोरोना के चलते समाज के क्रियाकलापों को बंद रखने की न शासन की मन:स्थिति है न समाज की । कोरोना की गत दो लहरों में लॉकडाउन के कारण आर्थिक क्षेत्र की काफी हानि हुई है । उसको पूरा करते हुए देश के अर्थ तंत्र को पहलेसे भी अधिक गति से आगे बढ़ाने की चुनौती हम सब लोगों के सामने है । उसके लिए चिंतन तथा प्रयास भी चल रहे हैं, चलने होंगे । अपने भारतीय आर्थिक क्षेत्र में आज कोरोना के कारण उपस्थित आर्थिक संकट का सामना करने का आत्मविश्वास व सामर्थ्य दिखाई देता है । कुछ क्षेत्रों से यह बात भी सुनाई दे रही है कि बहुत द्रुत गति से व्यापार तथा अर्थायाम पूर्ववत हो रहा है । ठीक से सबकी सहभागिता शासन प्राप्त कर लें तो उपरोक्त संकट का सामना देश कर लेगा यह विश्वास लगता हैं । परंतु यह हमारे लिए अपने ” स्व ” पर आधारित तंत्र का चिंतन, मनन तथा रचना करने का अवसर भी बन सकता है।

समाज में भी स्व का जागरण तथा आत्मविश्वास बढ़ रहा है यह दिख रहा है। श्रीरामजन्मभमि मंदिर के लिए धन संग्रह अभियान के समय देखा गया सार्वत्रिक उत्साहपूर्ण तथा भक्तियुक्त प्रतिसाद इसी ‘स्व’ के जागरण का लक्षण है । उसका स्वाभाविक परिणाम समाज के पुरुषार्थ का अनेक क्षेत्रों में प्रगटीकरण होने में होता है । हमारे खिलाड़ियों ने टोकियो ऑलंपिक में 1 स्वर्ण, 2 रौप्य व 4 कांस्य पदक जीतकर तथा पॉरा ऑलंपिक में 5 स्वर्ण, 8 रौप्य ताथा 6 कांस्य पदक जीतकर अत्यंत अभिनंदनीय विजय तथा पुरुषार्थ का परिचय दिया है। देश में सर्वत्र हुए उनके अभिनन्दन में हम सभी सहभागी है ।

स्वास्थ्य के प्रति हमारी दृष्टि

हमारे पास हमारे ” स्व” की परंपरा से आयी हुई दृष्टि व ज्ञान आज भी उपयोगी है यह इसी कोरोना की परिस्थिति ने दिखा दिया । हमारे परंपरागत जीवन शैली की रोगों के प्रतिबंध में तथा आयुर्वेदिक औषधियों की कोरोना के प्रतिकार व उपचार में प्रभावी भूमिका को हमने अनुभव किया । हमारे विशाल देश में प्रत्येक व्यक्ति को सुलभता से मिल सके तथा सस्ते दामों में उपलब्ध हो ऐसी चिकित्सा व्यवस्था आवश्यक है यह हम सब लोग जानते हैं, अनुभव करते हैं । भौगोलिक विस्तार तथा जनसंख्या की दृष्टि से विशाल इस देश में हमें रोगमुक्ति के साथ ही आयुर्वेद के स्वास्थ्यवृत्त का भी विचार करना पड़ेगा ।

आहार, विहार, व्यायाम तथा चिंतन के हमारे परंपरागत विधि निषेध के आधार पर ऐसा जीवन, जिसकी शैली से ही रोगों का उपद्रव ही न हो या कम से कम हो, ऐसा वातावरण खड़ा किया जा सकता है । हमारी वह जीवनशैली पर्यावरण से पूर्ण सुसंगत तथा संयम आदि दैवी गुणसंपदा प्रदान करनेवाली है । कोरोना बीमारी के दौर में सार्वजनिक कार्यक्रम, विवाहादि कार्यक्रम सब प्रतिबंधित थे । उन्हें हमें सादगी से ही निभाना पड़ा । दिखनेवाले उत्साह व रौनक में कमी त़ो आयी, परन्तु हम धन, ऊर्जा, तथा अन्य संसाधनों की फिजूलखर्ची से बच गये और पर्यावरण पर उसका सीधा अनुकूल परिणाम भी हमने प्रत्यक्ष अनुभव किया । अब परिस्थितियों के पूर्ववत होने पर इस अनुभव से बोध लेकर हमें उन अपनी मूल जीवनशैली के अनुसार उन फिजूलखर्ची व तामझामों से बचते हुए पर्यावरण-सुसंगत जीवनशैली में ही कायम होना चाहिए । पर्यावरण से सुसंगत जीवनशैली के प्रचार प्रसार कार्य बहुतों के द्वारा चल ही रहा है । संघ के स्वयंसेवक भी पर्यावरण संरक्षण गतिविधि द्वारा पानी बचाना, प्लास्टिक छुडाना तथा पेड लगाना इन आदतों को लोगों में डालने का प्रयास कर रहे हैं ।

आयुर्वेद सहित आज उपलब्ध सभी चिकित्सा पद्धतियों के उपयोग से, छोटी मोटी तथा प्राथमिक चिकित्सा का प्रबंध प्रत्येक व्यक्ति को अपने गांव में ही उपलब्ध हो सकता है । द्वितीय चरण की चिकित्सा, खंड स्तर पर हम व्यवस्थित करते हैं तो जिला स्तर पर तृतीय स्तर की चिकित्सा व महानगरों में अति प्रगट विशिष्ट चिकित्सा ऐसा प्रबंध किया जा सकता है । चिकित्सा पद्धति के अहंकार से ऊपर उठकर सभी चिकित्सा पद्धतियोंका यथातथ्य नियोजन करने से प्रत्येक व्यक्ति को उसके लिए सस्ती, सुलभ, परिणामकारक चिकित्सा प्रदान करने की व्यवस्था बन सकती है।

हमारी आर्थिक दृष्टि

प्रचलित अर्थचिंतन आज नई समस्याओं का सामना कर रहा है, जिन का समाधानकारक उत्तर अन्य देशों के पास नहीं है । यांत्रिकीकरणसे बढती बेरोजगारी, नीतिरहित तकनीकी के कारण घटती मानवीयता व उत्तरदायित्व के बिना प्राप्त सामर्थ्य यह उनके कुछ उदाहरण हैं । भारत से अर्थव्यवस्था के तथा विकास के नए मानक की अपेक्षा व प्रतीक्षा संपूर्ण विश्व को है । हमारी विशिष्ट आर्थिक दृष्टि हमारे राष्ट्र के प्रदीर्घ जीवनानुभव तथा देशविदेश मे सम्पन्न किए गए आर्थिक पुरुषार्थ से बनी है । उसमें सुख का उद्गम मनुष्य के अंदर माना गया है । सुख वस्तुओं में नहीं होता है । सुख केवल शरीर का भी नहीं होता है । शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा चारों को एक साथ सुख देने वाली; मनुष्य, सृष्टि, समष्टि का एक साथ विकास करते हुए उसको परमेष्ठी की ओर बढ़ाने वाली; अर्थ-काम को धर्म के अनुशासन में चलाकर मनुष्य मात्र की सच्ची स्वतंत्रता को बढ़ावा देने वाली अर्थव्यवस्था हमारे यहाँ अच्छी मानी गई है । हमारे आर्थिक दृष्टि में उपभोग नहीं संयम का महत्व है । भौतिक साधन संपत्ति का मनुष्य विश्वस्त है, स्वामी नहीं । सृष्टि का वह अंग है, स्वयं की आजीविका के लिये सृष्टि का दोहन करनेके साथ ही उसका संरक्षण संवर्धन भी उसका कर्तव्य है ऐसी हमारी मान्यता है । वह दृष्टि एकांतिक नहीं है । केवल पूंजीपति अथवा व्यापारी अथवा उत्पादक अथवा श्रमिक के एकतरफा हित की नहीं है । इन सब को ग्राहकसहित एक परिवार जैसा देखते हुए सब के सुखों की, संतुलित, परस्पर संबंधों पर आधारित वह दृष्टि है । उस दृष्टि के आधार पर विचार करते हुए, विश्व के आज तक के अनुभव से जो नया सीखा है, अच्छा सीखा है तथा आज की हमारी देश काल परिस्थिति से सुसंगत है, उसको साथ जोडते हुये ऐसी एक नई आर्थिक रचना को हम अपने देश में खड़ी करके दिखाएँ, यह समय की आवश्यकता है । समग्र व एकात्म विकास के नये धारणाक्षम प्रतिमानका प्रकटीकरण होना स्वाधीनता का स्वाभाविक परिणाम है, “स्व” की दृष्टि का चिरप्रतीक्षित आविष्कार है।

जनसंख्या नीति

देश के विकास की बात सोचते हैं तो औंर एक समस्या सामने आती है जिससे सभी चिंतित हैं ऐसा लगता है । गति से बढनेवाली देश की जनसंख्या निकट भविष्य में कई समस्याओं को जन्म दे सकती है । इसलिए उसका ठीक से विचार होना चाहिये। वर्ष 2015 में रांची मे संपन्न अ. भा. कार्यकारी मंडल की बैठक ने इस विषय पर एक प्रस्ताव पारित किया है ।

जनसंख्या वृद्धि दर में असंतुलन की चुनौती

देश में जनसंख्या नियंत्रण हेतु किये विविध उपायों से पिछले दशक में जनसंख्या वृद्धि दर में पर्याप्त कमी आयी है । लेकिन, इस सम्बन्ध में अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल का मानना है कि 2011 की जनगणना के पांथिक आधार (Religious ground) पर किये गये विश्लेषण से विविध संप्रदायों की जनसंख्या के अनुपात में जो परिवर्तन सामने आया है, उसे देखते हुए जनसंख्या नीति पर पुनर्विचार की आवश्यकता प्रतीत होती है । विविध सम्प्रदायों की जनसंख्या वृद्धि दर में भारी अन्तर, अनवरत विदेशी घुसपैठ व मतांतरण के कारण देश की समग्र जनसंख्या विशेषकर सीमावर्ती क्षेत्रों की जनसंख्या के अनुपात में बढ़ रहा असंतुलन देश की एकता, अखंडता व सांस्कृतिक पहचान के लिए गंभीर संकट का कारण बन सकता है।

विश्व में भारत उन अग्रणी देशों में से था जिसने 1952 में हीं जनसंख्या नियंत्रण के उपायों की घोषणा की थी, परन्तु सन 2000 में जाकर ही वह एक समग्र जनसंख्या नीति का निर्माण और जनसंख्या आयोग का गठन कर सका । इस नीति का उद्देश्य 2.1 की ‘सकल प्रजनन-दर’ की आदर्श स्थिति को 2045 तक प्राप्त कर स्थिर व स्वस्थ जनसंख्या के लक्ष्य को प्राप्त करना था । ऐसी अपेक्षा थी कि अपने राष्ट्रीय संसाधनों और भविष्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए प्रजनन-दर का यह लक्ष्य समाज के सभी वर्गों पर समान रुप से लागू होगा । परन्तु 2005-06 का राष्ट्रीय प्रजनन एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण और सन 2011 की जनगणना के 0-6 आयु वर्ग के पांथिक आधार पर प्राप्त आँकड़ों से ‘असमान’ सकल प्रजनन दर एवं बाल जनसंख्या अनुपात का संकेत मिलता है । यह इस तथ्य में से भी प्रकट होता है कि वर्ष 1951 से 2011 के बीच जनसंख्या वृद्धि दर में भारी अन्तर के कारण देश की जनसंख्या में जहाँ भारत में उत्पन्न मतपंथों के अनुयायिओं का अनुपात 88 प्रतिशत से घटकर 83.8 प्रतिशत रह गया है वहीं मुस्लिम जनसंख्या का अनुपात 9.8 प्रतिशत से बढ़ कर 14.23 प्रतिशत हो गया है।

इसके अतिरिक्त, देश के सीमावर्ती प्रदेशों तथा असम, पश्चिम बंगाल व बिहार के सीमावर्ती जिलों में तो मुस्लिम जनसंख्या की वृद्धि दर राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक है, जो स्पष्ट रूप से बंगलादेश से अनवरत घुसपैठ का संकेत देता है । माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त उपमन्यु हाजरिका आयोग के प्रतिवेदन एवं समय-समय पर आये न्यायिक निर्णयों में भी इन तथ्यों की पुष्टि की गयी है । यह भी एक सत्य है कि अवैध घुसपैठियें राज्य के नागरिकों के अधिकार हड़प रहे है तथा इन राज्यों के सीमित संसाधनों पर भारी बोझ बन सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनैतिक तथा आर्थिक तनावों का कारण बन रहे हैं।

पूर्वोत्तर के राज्यों में पांथिक आधार पर हो रहा जनसांख्यिकीय असंतुलन और भी गंभीर रूप ले चुका है । अरुणाचल प्रदेश में भारत में उत्पन्न मत-पंथों को मानने वाले जहाँ 1951 में 99.21 प्रतिशत थे वे 2001 में 81.3 प्रतिशत व 2011 में 67 प्रतिशत ही रह गये हैं । केवल एक दशक में ही अरूणाचल प्रदेश में ईसाई जनसंख्या में 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई है । इसी प्रकार मणिपुर की जनसंख्या में इनका अनुपात 1951 में जहाँ 80 प्रतिशत से अधिक था वह 2011 की जनगणना में 50 प्रतिशत ही रह गया है । उपरोक्त उदाहरण तथा देश के अनेक जिलों में ईसाईयों की अस्वाभाविक वृद्धि दर कुछ स्वार्थी तत्वों द्वारा एक संगठित एवं लक्षित मतांतरण की गतिविधि का ही संकेत देती है।

अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल इन सभी जनसांख्यिकीय असंतुलनों पर गम्भीर चिंता व्यक्त करते हुए सरकार से आग्रह करता है कि :

1. देश में उपलब्ध संसाधनों, भविष्य की आवश्यकताओं एवं जनसांख्यिकीय असंतुलन की समस्या को ध्यान में रखते हुए देश की जनसंख्या नीति का पुनर्निर्धारण कर उसे सब पर समान रूप से लागू किया जाए।

2. सीमा पार से हो रही अवैध घुसपैठ पर पूर्ण रूप से अंकुश लगाया जाए । राष्ट्रीय नागरिक पंजिका (National Register of Citizens) का निर्माण कर इन घुसपैठियों को नागरिकता के अधिकारों से तथा भूमि खरीद के अधिकार से वंचित किया जाए।

अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल सभी स्वयंसेवकों सहित देशवासियों का आह्वान करता है कि वे अपना राष्ट्रीय कर्तव्य मानकर जनसंख्या में असंतुलन उत्पन्न कर रहे सभी कारणों की पहचान करते हुए जन-जागरण द्वारा देश को जनसांख्यिकीय असंतुलन से बचाने के सभी विधि सम्मत प्रयास करें।

ऐसे विषयों के प्रति जो भी नीति बनती हो, उसके सार्वत्रिक संपूर्ण तथा परिणामकारक क्रियान्वयन के लिये अमलीकरण के पूर्व व्यापक लोकप्रबोधन तथा निष्पक्ष कार्यवाई आवश्यक रहेगी । सद्यस्थिति में असंतुलित जनसंख्या वृद्धि के कारण देश में स्थानीय हिन्दू समाज पर पलायन का दबाव बनने की, अपराध बढने की घटनाएँ सामने आयी हैं । पश्चिम बंगाल में हाल ही के चुनाव के बाद हुई हिंसा में हिन्दू समाज की जो दुरवस्था हुई उसका, शासन प्रशासन द्वारा हिंसक तत्वों के अनुनय के साथ वहां का जनसंख्या असंतुलन यह भी एक कारण था । इसलिए यह आवश्यक है कि सबपर समान रूपसे लागू हो सकने वाली नीति बने । अपने छोटे समूहों के संकुचित स्वार्थों के मोहजाल से बाहर आकर सम्पूर्ण देश के हित को सर्वोपरि मानकर चलने की आदत हम सभी को करनी ही पड़ेगी।

वायव्य सीमा पार

और एक परिस्थिति, जो अप्रत्याशित तो नहीं थी, परंतु अनुमान से पहले ही आकर खडी हुई है, वह है अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार बनना ! उनका अपना पूर्वचरित्र – जुनूनी कट्टरता तथा अत्याचार व इस्लाम के हवाले से दहशतगर्दी – तो अपनेआपमें ही सबको तालिबान के बारे में आशंकित करने के लिये पर्याप्त है । अब तो उनके साथ चीन, पाकिस्तान तथा तुर्कस्थान भी जुडकर एक अपवित्र गठबंधन बन गया है । अब्दाली के बाद एक बार फिर हमारी वायव्य सीमा हमारी गंभीर चिंता का विषय बन रही है । तालिबान की ओर से कभी शांति की तो कभी काश्मीर की बात होती रही है । संकेत यह है, हम आश्वस्त बन कर नहीं रह सकते । हमें अपनी सामरिक तय्यारी को सभी ओर की सीमाओंपर पूर्ण रूप से चुस्त दुरुस्त तथा सजग रखना है। ऐसी स्थिति में देश के अंदर की सुरक्षा, व्यवस्था तथा शान्ति की ओर भी शासन, प्रशासन तथा समाज को पूर्ण सजगता व सिद्धता रखनी होगी । सुरक्षा में स्वनिर्भरता तथा सायबरसुरक्षा जैसे नये विषयों में अद्यतन उच्च स्थिति प्राप्त करने के प्रयास की गति बहुत बढ़ानी होगी । सुरक्षा के विषय में हमें शीघ्रातिशीघ्र स्वनिर्भर होना होगा । बातचीत का रास्ता खुला रखते हुए भी तथा हृदयपरिवर्तन होता है इस आस्था को न नकारते हुए भी सब संभावनाओं के लिए तैयार रहना होगा । इस संकट की पृष्ठभूमि में जम्मू-काश्मीर के लोगों का भारत के साथ भावनिक सात्मीकरण भी द्रुतगति से होने की आवश्यकता ध्यान में आती है । राष्ट्रीय मनोवृत्ती के नागरीकोंका मनोबल तोडने के लिये तथा अपने आतंक के साम्राज्य को पुनर्स्थापित करने के लिए; जम्मू कश्मीर में आतंवादियों ने उन नागरिकोंकी – विशेषकर हिंदुओं की लक्षित हिंसा का मार्ग फिर अपनाया है । नागरिक इस स्थिति का सामना धैर्यपूर्वक कर रहे है व निश्चित ही करते रहेंगे, परन्तु आतंकवादियों की गतिविधि का बंदोबस्त व समाप्ति के प्रयासों में अधिक गति लाने की आवश्यकता है।

हिंदू मंदिरों का प्रश्न

राष्ट्र की एकात्मता, अखण्डता, सुरक्षा, सुव्यवस्था, समृद्धि तथा शान्ति के लिये चुनौती बनकर आनेवाली अथवा लायी गयी अन्तर्गत अथवा बाह्य समस्याओं के प्रतिकार की तैयारी रखने के साथ साथ हिन्दू समाज के कुछ प्रश्न भी हैं; जिन्हें सुलझाने का कार्य होने की आवश्यकता है । हिंदू मंदिरों की आज की स्थिति यह ऐसा एक प्रश्न है । दक्षिण भारत के मन्दिर पूर्णतः वहां की सरकारों के अधीन हैं । शेष भारत में कुछ सरकार के पास, कुछ पारिवारिक निजी स्वामित्व में, कुछ समाज के द्वारा विधिवत् स्थापित विश्वस्त न्यासोंकी व्यवस्था में हैं । कई मंदिरों की कोई व्यवस्था ही नहीं ऐसी स्थिति है । मन्दिरों की चल/अचल सम्पत्ति का अपहार होने की कई घटनाएँ सामने आयी हैं । प्रत्येक मन्दिर तथा उसमें प्रतिष्ठित देवता के लिए पूजा इत्यादि विधान की परंपराएँ तथा शास्त्र अलग अलग विशिष्ट है, उसमें भी दखल देने के मामले सामने आते हैं । भगवान का दर्शन, उसकी पूजा करना, जातपातपंथ न देखते हुए सभी श्रद्धालु भक्तों के लिये सुलभ हों, ऐसा सभी मन्दिरोंमें नहीं है, यह होना चाहिये । मन्दिरों के, धार्मिक आचार के मामलों में शास्त्र के ज्ञाता विद्वान, धर्माचार्य, हिन्दू समाज की श्रद्धा आदि का विचार लिए बिना ही निर्णय किया जाता है ये सारी परिस्थितियाँ सबके सामने हैं । “सेक्युलर” होकर भी केवल हिन्दू धर्मस्थानों को व्यवस्था के नाम पर दशकों शतकों तक हडप लेना, अभक्त/अधर्मी/विधर्मी के हाथों उनका संचालन करवाना आदि अन्याय दूर हों, हिन्दू मन्दिरों का संचालन हिन्दू भक्तों के ही हाथों में रहे तथा हिन्दू मन्दिरों की सम्पत्ति का विनियोग भगवान की पूजा तथा हिन्दू समाज की सेवा तथा कल्याण के लिए ही हो, यह भी उचित व आवश्यक है । इस विचार के साथ साथ ही हिन्दू समाज के मन्दिरों का सुयोग्य व्यवस्थापन तथा संचालन करते हुए, मन्दिर फिरसे समाजजीवन के और संस्कृति के केन्द्र बनाने वाली रचना हिन्दू समाज के बल पर कैसी बनायी जा सकती है, इसकी भी योजना आवश्यक है।

हमारी एकात्मता के सूत्र

शासन प्रशासन के व्यक्ति अपना कार्य करेंगे तो भी सभी राष्ट्रीय क्रियाकलापों में समाज की मन, वचन तथा कर्म से सहभागिता महत्वपूर्ण होती है । कई समस्याओं का निदान तो केवल समाज की पहल से ही हो सकता है । इस लिये उपरोक्त समस्याओं के संदर्भ में समाज के प्रबोधन के साथ ही समाज के मन, वचन व आचरण की आदतों में परिवर्तन की आवश्यकता है । अतएव इस अपने प्राचीन काल से चलते आये सनातन राष्ट्र के अमर स्वत्त्व की जानकारी, समझदारी पूरे समाज में ठीक से बननी चाहिए । भारत की सभी भाषिक, पांथिक, प्रांतीय, विविधताओं को पूर्ण स्वीकृति, सम्मान, तथा विकास के सम्पूर्ण अवसर के सहित एक राष्ट्रीयता के सनातन सूत्रमें गूँथ कर जोड़ने वाली हमारी संस्कृति है । इसके अनुरूप हमें बनना चाहिए । अपने मत, पंथ, जाति, भाषा, प्रान्त आदि छोटी पहचानों के संकुचित अहंकार को हमें भूलना होगा । बाहर से आये सभी सम्प्रदायों के माननेवाले भारतीयों सहित सभी को यह मानना, समझना होगा कि हमारी आध्यात्मिक मान्यता व पूजा की पद्धति की विशिष्टता के अतिरिक्त अन्य सभी प्रकार से हम एक सनातन राष्ट्र, एक समाज, एक संस्कृति में पलेबढ़े समान पूर्वजों के वंशज हैं । उस संस्कृति के कारण ही हम सब अपनी अपनी उपासना करने के लिए स्वतंत्र हैं । अपने मनसे हर कोई यहाँ अपनी उपासना तय कर सकता है । यह इतिहास का तथ्य है कि परकीय आक्रमणकारियों के साथ कुछ उपासनाएँ भी भारत में आयीं । परंतु यह सत्य है कि आज भारत में उन उपासनाओं को मानने वालों का रिश्ता आक्रामकों से नहीं, देश की रक्षा के लिये उनसे संघर्ष करनेवाले हिन्दू पूर्वजों से है । अपने समान पूर्वजों में हमारे सबके आदर्श हैं । इस बात की समझ रखने के कारण ही इस देश ने कभी हसनखाँ मेवाती, हाकिमखान सूरी, खुदाबख्श तथा गौसखाँ जैसे वीर, अशफाकउल्लाखान जैसे क्रांतिकारी देखें । वे सभी के लिए अनुकरणीय हैं । अलगाव की मानसिकता, संप्रदायोंकी आक्रामकता, दूसरों पर वर्चस्व स्थापित करने की आकांक्षा तथा छोटे स्वार्थों की संकुचित सोच से बाहर आकर देखेंगे तो ध्यान में आयेगा कि दुनियाँ पर टूट पड़े कट्टरता, असहिष्णुता, आतंकवाद, द्वेष, दुश्मनी तथा शोषण के प्रलय से तारनहार केवल भारत, उसमे उपजी फलीफूली यह सनातन हिन्दू संस्कृति तथा सबका स्वीकार कर सकने वाला हिन्दू समाज है।

संगठित हिंदू समाज

हमारे देश के इतिहास में यदि कुछ परस्पर कलह, अन्याय, हिंसा की घटनाएँ घटी हैं, लम्बे समय से कोई अलगाव, अविश्वास, विषमता अथवा विद्वेष पनपता रहा हो, अथवा वर्तमान में भी ऐसा कुछ घटा हो; तो उसके कारणों को समझकर उनका निवारण करते हुए फिर वैसी घटना न घटे, परस्पर विद्वेष, अलगाव दूर हों, तथा समाज जुड़ा रहे ऐसी वाणी व कृति होनी चाहिए । हमारे भेदों तथा कलहों का उपयोग क़र हमें विभाजित कर रखने वाले, परस्पर प्रामाणिकता पर अविश्वास उत्पन्न करनेवाले, हमारी श्रद्धा को नष्टभ्रष्ट करना चाहनेवाले तत्व घात लगाकर हमारी भूल होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं यह समझ कर चलना होगा । भारत के मूल मुख्य राष्ट्रीय धारा के नाते हिन्दू समाज यह तब कर सकेगा जब उसमें अपने संगठित सामाजिक सामर्थ्य की अनुभूति, आत्मविश्वास व निर्भय वृत्ति होगी । इसलिये आज जो अपने को हिंदू मानते हैं उनका यह कर्तव्य होगा कि वे अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक जीवन तथा आजीविका के क्षेत्र में आचरण से हिन्दू समाज जीवन का उत्तम सर्वांगसुन्दर रूप खडा करें । सब प्रकार के भय से मुक्त होना होगा । दुर्बलता ही कायरता को जन्म देती है । व्यक्तिगत स्तरपर हमें शारीरिक, बौद्धिक तथा मानसिक बल, साहस, ओज, धैर्य तथा तितिक्षा की साधना करनी ही होगी । समाज का बल उसकी एकता में होता है, समाज के सामूहिक हित की समझदारी तथा उसके प्रति सबकी जागरूकता में होता है । समाज में विभेद उत्पन्न करनेवाले विचार, व्यक्ति, समूह, घटना, उकसावे इन से सावधान रहकर समाज को सभी प्रकार के आपसी कलहों से दूर रखने बचाने में सभी को तत्पर रहना आवश्यक है । यह बलोपासना किसी के विरोध या प्रतिक्रिया में नहीं । यह समाज की स्वाभाविक अपेक्षित अवस्था है । बल, शील, ज्ञान तथा संगठित समाज को ही दुनियाँ सुनती है । सत्य तथा शान्ति भी शक्ति के ही आधार पर चलती है । बलशीलसंपन्न तथा निर्भय बनाकर, “ना भय देत काहू को, ना भय जानत आप” ऐसे हिन्दू समाज को खडा करना पडेगा । जागरुक, संगठित, बलसंपन्न व सक्रीय समाज ही सब समस्याओं का समाधान है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यही कार्य निरंतर गत 96 वर्षों से कर रहा है, तथा कार्य की पूर्ति होने तक करते रहेगा । आज के इस शुभ पर्व का भी यही संदेश है। नौ दिन देवोंने व्रतस्थ होकर, शक्ति की आराधना करते हुए, सभी की शक्तियों का संगठन बनाया। तभी विभिन्न रूपों में मानवता की हानि करने वाला संकट संपूर्ण विदीर्ण हो गया। आज विश्व की परिस्थिति की भारत से अनेक अपेक्षाएँ हैं, और भारत को उसके लिए सिद्ध होना है। हमारे समाज की एकता का सूत्र अपनी संस्कृति, समान पूर्वजों के गौरव का मन में उठने वाला समान तरंग, तथा अपने इस परम पवित्र मातृभूमि के प्रति विशुद्ध भक्तिभाव यही है। हिंदू शब्द से वही अर्थ अभिव्यक्त होता है । हम सब लोग इन तीन तत्वों से तन्मय होकर, अपनी अपनी विशिष्टता को हमारी इस अन्तर्निहित सनातन एकता का श्रुंगार बनाकर संपूर्ण देश को खड़ा कर सकते हैं, हम को करना चाहिए । यही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य है। उस तपस्या में आप सबके योगदान की समिधा भी अर्पण करें।