पं. रामनारायण शास्त्री : प्राच्य विद्या के संवाहक

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निभा पांडेय

भारत की आजादी के तत्काल बाद यहां की प्राच्य ज्ञान परंपरा को प्रामाणिकता के साथ सामने लाने की बात अकादमिक जगत में उठ रही थी। यह अत्यंत कठिन कार्य दुर्लभ हस्त लिखित पुस्तकों के बिना संभव नहीं था। ऐसी दुर्लभ हस्त लिखित पुस्तकों को एकत्रित व संरक्षित करने में पंडित रामनारायण शास्त्री का अनथक परिश्रम वास्तव में भगीरथी प्रयास है। इनके इस प्रयास से भारत की प्राच्य ज्ञान परंपरा को प्राामाणिकता के साथ सामने लाने के कार्य को बड़ा आधार मिला है।

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नालंदा-विक्रमशीला जैसे विश्वविद्यालयों की जननी बिहार के गांव-गांव में ज्ञान के प्राचीन केंद्र थे। बड़े शहरों से लेकर गांवों तक के पुस्तकालयों, मंदिरों या परंपरागत विद्वानों के घरों में पांडुलिपि के रूप में प्राचीन पुस्तकें उपलब्ध थीं। भारत की प्राच्य ज्ञान परंपरा के प्रति अंग्रेजों की उपेक्षापूर्ण नीति के कारण ज्ञान के ऐसे अनमोल धरोहर नष्ट हो गए थे। कुछ बचे हुए थे जो संकट में थे। आजादी के बाद भी हमारी सरकार का ध्यान इस ओर नहीं था। पंडित रामनारायण शास्त्री ने कई वर्षों तक अनथक परिश्रम करके ऐसे हजारों हस्तलिखित ग्रंथों का संग्रह किया। राष्ट्रभाषा परिषद की सहायता ऐसे हस्तलिखित पुस्तकों का संरक्षण कराकर उन्होंने बिहार की ज्ञान साधना की परंपरा और गौरवशाली अतीत के अध्ययन व शोध को बड़ा आधार प्रदान किया है। औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त भारतीय दृष्टि से इतिहास लेखन व ज्ञान परंपरा पर शोध की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण होने के बावजूद पं. रामनारायण शास्त्री द्वारा एकत्रित इन साहित्यिक स्रोतों पर अब तक अपेक्षित काम शुरू नहीं हो सका है।

बालक रामनारायण

बिहार के मोकामा के पास स्थित चिंतामणि चक गांव में शास्त्रीजी का जन्म 24 जनवरी 1926 ई॰ को हुआ था। 24 जनवरी, 1978 ई॰ को उनका देहान्त हो गया था। इस प्रकार उनकी जयंती व निर्वाण दिवस एक ही है। हिंदी तिथि के अनुसार इन दोनों तिथियों को माघ कृष्ण चतुर्दशी थी। शास्त्रीजी का बाल्यकाल एक विद्यार्थी के रूप में स्वामी सहजानंद सरस्वती के सान्निध्य में बीता था। स्वामीजी के कारण तरुण रामनारायण पर राष्ट्रीयता का ऐसा रंग चढ़ा कि वे भारत के स्वतंत्रता संग्राम के लिए गुप्त सूचना संचार जैसे महत्वपूर्ण कार्य से जुड़ गए। बाल्यकाल में माता-पिता से मिले संस्कारों के कारण वे आश्रम के कठोर अनुशासन में सहजता से वेदाध्ययन करने लगे। शास्त्रीजी के पिता का नाम लालजित सिंह था। अपने मित्रों के माध्यम से उन्हें स्वामी दयानंद सरस्वती के दिव्य जीवन को जानने-समझने का मौका मिला था। इसके बाद वे आर्य समाजी हो गए। अब उनके मन की वह इच्छा अधिक बलवती हो गई कि पुत्र को विद्वान, क्रान्तिकारी और देशभक्त बनाना चाहिए।

यह वह समय था, जब महात्मा गांधी देश को आजाद करने हेतु गांव-गांव में घूमकर अंग्रेेज शासन के विरोध में प्रचार कर लोगों को संगठित कर रहे थे। वे चिंतामणचक गांव में भी आये और उनसे प्रभावित होकर लालजित सिंह जी भी कांग्रेस के सदस्य बनकर आजादी की लड़ाई में सहभागी बन गए। इन सब परिस्थितियों का रामनारायण के जीवन पर बड़ा प्रभाव पड़ा। ये सब घटनाएं उनके भविष्य-निर्माण की आधारशिला बनीं।

रामनारायण शास्त्री को प्रारंभिक शिक्षा के लिए लखीसराय आश्रम में भेजा गया। प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद उन्हें उनके बड़े भाई के साथ बिहटा में स्वामी सहजानंदजी सरस्वती के आश्रम में भेज दिया गया। अब उन बच्चों का तपोमय जीवन प्रारंभ हो गया। कठोर अनुशासन, सुसंचालित दैनिक क्रिया-कलाप तथा अध्ययन के प्रति सजगता तो उन्हें स्वयं ही पसंद थी। अपनी कार्यकुशलता, सेवापरायणता से उन्होंने आश्रम के लोगों के साथ स्वामीजी का मन जीत लिया। विद्यालय में इनकी अलग पहचान बन गई। इतनी कम उम्र में ही वे स्वामीजी के विश्वासपात्र बन गए।

उस समय देश में आजादी के लिए अंग्रेजों के विरोध में खिलाफत आंदोलन चल रहा था। उसी समय स्वामीजी किसान आंदोलन का भी नेतृत्व कर रहे थे। सरकार की नजरों से बचकर आश्रम के लोग अंदर-अंदर ही देश की आजादी के लिए भी काम कर रहे थे। स्वामीजी के आश्रम में भी गुप्त रूप से अंग्रेेजी-सरकार के विरोध में कार्य होता था। विभिन्न स्थानों में अपने आश्रम पर की गई गुप्त क्रियाओं की सूचना तथा निर्देश-पत्र भेजा जाता था।

अंग्रेजों को बिहटा आश्रम में किए गए इन कार्यों पर शक हो गया और आश्रम की चिट्ठियां सेंसर होने लगीं। अब स्वामीजी बड़ी कठिनाई में पड़ गए। अन्य स्थानों से संपर्क करने का मार्ग सोचने लगे। तभी उन्हें छोटे रामनारायण का ध्यान आ गया, जो उनके विश्वासपात्र और प्रिय पहले ही बन चुके थे। उन्होंने सोचा, बालक होने के कारण इनपर किसी को शक नहीं होगा। इस प्रकार इतनी कम आयु में बालक रामनारायण स्वामीजी के विश्वस्त पत्रवाहक बन गए। अब स्वामीजी अपने गोपनीय पत्रें को इन्हीं के द्वारा भेजा करते । इतनी कम उम्र में इतनी सूझ-बूझ और अध्ययन में लगन होने के कारण सभी शिक्षक उन्हें पुत्रवत स्नेह करने लगे। इस प्रकार आश्रम-जीवन में ही अपनी अद्भुत प्रतिभा से आश्रमवासियों को चकित कर वे आगे की पढ़ाई हेतु गुरुकुल, देवघर चले गए।

तरुण विद्वान

सन् 1945 ई॰ में रामनारायणजी बिहार आर्य प्रतिनिधि प्रतिभा सभा, बांकीपुर, पटना चले आए। इस प्रकार 1945 ई॰ में उनका विद्यार्थी-जीवन समाप्त हुआ और आर्यसमाज की सेवाएँ प्रारंभ हो गईं। भाषण-कला में वे गुरुकुल-जीवन से ही प्रवीण हो चुके थे। स्वाध्यायशील होने के कारण अपने कोर्स की पुस्तकों के अतिरिक्त अन्य विषयों की पुस्तकें भी पढ़ा करते थे। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे विभिन्न विषयों में रुचि रखते थे। फलस्वरूप उनका बहुमुखी विकास हुआ।

फरवरी, 1951 ई॰ की बात है। हिंदी-साहित्य-सम्मेलन-भवन, कदमकुआं में कोई साहित्यिक गोष्ठी चल रही थी, जिसमें आचार्य शिवपूजन सहाय आदि विद्वान बैठे थे। श्रीरामनारायण शास्त्रीजी अपने काम की तलाश में घूमते हुए वहाँ पहुँचे। उनके एक मित्र ने आचार्य शिवपूजन सहायजी से उनका परिचय कराया। शिवपूजन सहाय ने बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद्में उन्हें 9 फरवरी, 1951 ई॰ से पारिश्रमिक के आधाार पर क्षेत्रीय कार्यकर्ता के पद पर नियुक्त कर लिया।

ज्ञान के संरक्षण में शास्त्रीजी

ज्ञान के संरक्षण में शास्त्रीजी को विभिन्न स्थानों, गांवों, मठों एवं पुस्तकालयों में जाकर हस्तलिखित पुरानी पोथियों की खोज का कार्य सौंपा गया। आर्य समाज में काम करते हुए उन्हें प्राचीन हस्तलिखित पुस्तकों के महत्व की जानकारी थी। वे ऐसे पुस्तकों के प्रबंधन व विवरण तैयार करने के कौषल में पारंगत थे। अतः वे इस काम को रूचि के साथ कुषलतापूर्वक करने लगे। महीने के बीस-पच्चीस दिन उन्हें प्रवास में बिताना पड़ता था।

अब उनका आर्यसमाज और बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद् का कार्य समानांतर रूप से चलने लगा। पटना में एवं पटना के बाहर भी उनके कितने ही भक्त, प्रेमी परिवार हैं, जिनसे उन्हें आदर-सम्मान और प्रेम मिलने लगा। यह सब उनकी अति सामाजिकता का ही फल हुआ। किसी के दुःख में दुखी होकर उसे दूर करने का अथक प्रयास करना उनका स्वभाव था। पुरानी पोथियों की खोज में कभी-कभी ऐसे लोगों से भी भेंट हो जाती, जहाँ उन्हें तिरस्कार भी मिलता था। गया का मन्नूलाल पुस्तकालय, प्रयाग का संग्रहालय, आरा, बक्सर, डुमराँव, सासाराम, मधयप्रदेश, उड़ीसा आदि विभिन्न स्थानों में जाकर हस्तलिखित पाण्डुलिपियों को लाना उनको पढ़कर विवरण तैयार करना, उनपर टिप्पणी लिखना आदि कार्य करने लगे। धीरे-धीरे बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद् में इन विषयों के वे अकेले ज्ञाता हो गए। ग्रंथ-संपादन एवं पाठालोचन एक शुष्क और कठिन विषय है। विभिन्न विश्वविद्यालयों के कितने ही छात्र आकर उनसे शोधा-संबंधी परामर्श एवं निर्देश लिया करते थे।

हस्तलिखित पोथियों की खोज के सिलसिले में वे अब भारत के विभिन्न प्रान्तों में भी जाने लगे। भारत सरकार ने 1954 ई॰ में प्राचीन हस्तलिखित पुस्तकों के महत्त्व को पहले-पहल समझा। लाहौर-निवासी पं॰ राधाकृष्ण के सम्पर्क में आकर भारतवर्ष के विभिन्न प्रान्तों में जाकर यह कार्य वे करने लगे। वे कलकत्ता जाकर पं॰ अयोध्या प्रसाद जी वैदिक रिसर्च स्कॉलर से, जो आर्यसमाज के मूर्धान्य विद्वान थे, मिले। पं॰ अयोध्या प्रसाद जी के द्वारा कलकत्ता में प्राचीन हस्तलिखित पोथियों की खोज के कार्य में उन्हें बहुत परामर्श और सहयोग मिला। वे वैदिक-गणित विज्ञान के व्याख्याता थे। शास्त्रीजी ने पं॰ अयोध्या प्रसाद द्वारा प्रस्तुत की गई इस पुस्तक की रूपरेखा और भूमिका लिखी। टैगोर बिल्डिंग्स में भी हस्तलिखित पोथियाँ देखीं। यहाँ उन्होंने ग्यारह पोथियों का विवरण तैयार किया। बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद् के सब अनुसंधान-कार्यों को उन्होंने अपनी डायरी में दर्ज किया था। अपने जीवन को अनुशासनबद्ध चलाने वाले शास्त्रीजी की डायरी भी अध्ययन की दृश्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण दस्तावेज है। लेकिन, अब तक इस पर सुनियोजित तरीके से काम नहीं हुआ है।

विभिन्न स्थानों से 2874 हस्त लिखित प्राचीन पुस्तकों को एकत्रित किया था शास्त्रीजी

शास्त्रीजी ने सघन परिश्रमकर विभिन्न स्थानों से 2874 हस्त लिखित प्राचीन पुस्तकों को एकत्रित किया था। ये सभी पुस्तकें भारत की ज्ञान परंपरा, समाज व्यवस्था, कौषल, लोक विज्ञान और षिक्षा जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर शोध और भावियोजना की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। शास्त्रीजी के प्रयास से वे सारी पुस्तकें तो नष्ट होने से बच गयीं परन्तु उन पुस्तकों के आधार पर आगे अपेक्षित कार्य नहीं हो सके। इन हस्तपुस्तकों में से कई ऐसे हैं जो दक्षिण बिहार व झारखंड के गांवों में परंपरा से चली आ रही धातु विज्ञान, उपचार पद्धति, गृह निर्माण, पशु चिकित्सा, गणित आदि से सम्बंधित हैं। उन्होंने 272 ऐसी प्राचीन मुद्रित पुस्तकों को एकत्रित किया था जो कहीं उपलब्ध नहीं है। मुगलकाल व उससे भी पूर्व की ऐसी पुस्तकें अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इसके साथ ही उन्होंने 15 ऐसे प्राचीन पंचांगों को एकत्रित किया था जो अब कहीं भी उपलब्ध नहीं है। गोस्वामी तुलसीदास से दो सौ वर्ष पूर्व के कवि संत लालच दास रचित हरिचरित को उन्होंने एक प्राचीन मंदिर से खोज निकाला था। इस ग्रंथ से अयाोध्या तीर्थ के बारे में पता चलता है। उन्होंने हिंदी के 568 हस्त लिखित पुस्तकों को एकत्रित किया था जिससे हिंदी भाषा की विकास यात्रा के साक्ष्य मिलते हैं। इन ग्रंथों में से कई कैथी लिपि में हैं जिससे व्यवहार वाले इस लिपि का अध्ययन संभव है। उनके द्वारा एकत्रित संस्कृत की हस्तलिखित 250 पुस्तकों में से कम से कम 12 पुस्तकें ऐसी हैं जो कृषि, गणना, मौसम पूर्वानुमान, मिट्टी की प्रकृति जैसे विषयों से संबंधित हैं।

शास्त्रीजी के बाद

शास्त्रीजी का निधन उनके जन्मदिन 24 जनवरी 1978 को हो गया। उनके निधन के बाद भारत के प्राच्य विद्या को उसके मूल रूप को सामने लाने का यह प्रयास लगभग थम गया। लेकिन, शास्त्रीजी के ज्येष्ठ पुत्र अभिजीत कश्यप ने उनकी कीर्ति के अनुकूल उनकी स्मृति में शिक्षा के क्षेत्र में अपने सामथ्र्य के अनुसार काम करने का संकल्प लिया। अपने पिता की प्रथम पुण्य तिथि पर 24 जनवरी 1979 को ही उन्होंने समाज के प्रबुद्ध लोगों के साथ लिकर पं.रामनारायण शास्त्री स्मृति न्यास की स्थापना की। इस न्यास के प्रथम अध्यक्ष प्रख्यात अधिवक्ता विष्णु नारायण थे। अपने पिता की स्मृति में उनकी पुण्य तिथि व जयंती को सामने रख विद्यालय से लेकर विष्वविद्यालय स्तर तक के छात्र-छात्राओं के लिए भाषण, वादविवाद प्रतियोगिता का आयोजन षुरू किया। यह प्रतियोगिता राज्यस्तर पर होती है। इसमें चयनित छात्र-छात्राओं को पुरस्कृत किया जाता है। इसके साथ ही शिक्षा, साहित्य और समाज सेवा में उल्लेखनीय कार्य करने वाले लोगों को इस तिथि पर सम्मानित भी किया जाता है। पिछले 42 वर्षों से यह आयोजन अनवरत चलता आ रहा है। इस आयोजन में देष की जानीमानी हस्तियां षामिल होती रही हैं।

प्राचीन हस्तलिखित पोथियों का विवरण नाम से पुस्तक का प्रकाषन किया गया जिसमें आचार्य शिवपूजन सहाय ने शास्त्रीजी के अद्वितीय कार्य की प्रषंसा करते हुए इसके महत्व को भी बताया है। शिवपूजन सहाय ने लिखा है कि बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद् की ओर से समस्त बिहार राज्य में हस्तिलिखित प्राचीन पोथियों और दुर्लभ मुद्रित पुस्तकों की खोज कराई जाती है । खोज का काम सर्वत्र भ्रमण-कार्य में श्रीरामनारायण शास्त्री बड़ा परिश्रम करते हैं और फिर सभी संगृहीत पोथियों का परिचयात्मक विवरण तैयार करते हैं । पुस्तकों में प्रकाशित विवरणों के तैयार करने में अनुसन्धाायक श्रीरामनारायण शास्त्री ने बड़ा परिश्रम किया है। उनके द्वारा विभागीय संग्रह के जो विवरण तैयार होकर प्रकाशित हुए है, उनकी उपयोगिता हिन्दी-जगत् के शोधाकर्त्ता विद्वानों ने स्वीकार की है। अनुसन्धाायक श्रीरामनारायण शास्त्री ने प्राचीन हस्तलिखित पोथियों के विवरण तैयार करने में बड़े मनोयोग से परिश्रम किया है। यह कार्य षोध को बड़ा आधार दे रहा है।

शास्त्री जी ने अपने कुल व मूल स्थान के बारे में भी बताया है। उन्होंने दस्तावेज के आधार पर लिखा है कि मेरे पूर्वज पुराने छपरा जिले के गुठनी ग्राम के निवासी थे। अब गुठनी ग्राम सिवान जिले में चला गया है। गुठनी ग्राम से श्रीअतवल राय चिन्तामणिचक ग्राम में आकर बसे। इन्हीं अतवल राय के वंश में चिन्तामणि सिंह का जन्म हुआ था, जिनके नाम पर ही इस गाँव का नाम चिन्तामणिचक रखा गया। चिन्तामणिचक ग्राम पूर्व के बाढ़ प्रखण्ड के मोकामा में स्थित है, जो पटना से नब्बे किलोमीटर पूरब गंगा नदी के मनोरम तट पर बसा है।

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