डाॅ. नीरज कृष्ण
जिन बाबा साहब डाॅ. भीमराव अंबेडकर को हमने महज संविधानविद् बनाकर रख दिया है, उन्होंने कृषि सुधार के संदर्भ महत्वपूर्ण विचार देश को दिए था। उनके सुझावों पर अमल करना नेताओं का दायित्व था। लेकिन, ऐसा अभी तक नहीं हो पाया, क्योंकि अगर ऐसा होता तो समय-समय पर सरकारों के विरुद्ध जन आंदोलन न होते और सरकारों के प्रति सड़कों पर जन समूहों में रोष न दिखाई देता। ऐसा ही एक आंदोलन बीते 26 नवंबर, 2020 से दिल्ली की सीमाओं पर डटे लाखों किसान कर रहे हैं। 8 दौर की वार्ता अब तक विफल हो चुकी है।
जब महाजन एक कृत्रिम जमींदार के रुप में उभरकर सामने आने लगे
यूँ तो किसान आंदोलन ब्रिटिश हुकूमत के समय से ही होते रहे हैं। ब्रिटिश हुकूमत के समय में रैयतवाड़ी व्यवस्था का चलन था, जिसमें भूमिदार द्वारा सरकार को लगान देने की प्रक्रिया थी। लगान न देने पर भूमि से बेदखल कर दिया जाता था। यह व्यवस्था सबसे पहले 1792 में मद्रास प्रेसीडेंसी के बारामहल जिले में लागू की गई थी। पूंजीवादी विचारधारा तथा उपयोगितावादी विचारधारा मुख्य तौर पर इस व्यवस्था के लिए जिम्मेदार थी। इसमें सीधे तौर पर भू-राजस्व का निर्धारण भूमि की उत्पादकता पर न करके भूमिपर किया जाता था, जो किसानों के लिए हितकारी नहीं था, क्योंकि ये दर इतनी ज्यादा थी कि किसान के पास कुछ भी अधिशेष नहीं बचता था। नतीजतन किसान महाजनों के चंगुल से नहीं निकल पाते थे और इस तरह महाजन ही एक कृत्रिम जमींदार के रुप में उभरकर सामने आने लगे थे।
अंबेडकर ने दी सहकारी कृषि को अपनाने की सलाह
इसी संदर्भ में जब सरकार द्वारा रैयतवाड़ी भूमि को बड़े भू-स्वामियों को देने के लिये संशोधन बिल पेश किया गया, तो डॉ अंबेडकर इसका विरोध करने वालों में सबसे पहले थे। इस पर उन्होंने कहा था कि भू-स्वामित्व को अगर इसी तरह बढ़ाया जाता रहा तो एक दिन ये देश को तबाह कर देगा। डॉ आंबेडकर के कृषि संबंधी विचार ’स्मॉल होल्डिंग्स इन इंडिया एंड देयर रेमेडीज’ नामक लेख में वर्ष 1918 में प्रकाशित हुए थे। इसे ही आधार बनाते हुए बम्बई विधानमंडल में 10 अक्टूबर 1928 को छोटे किसान राहत विधेयक बहस के दौरान पेश किया और उन्होंने तब यह तर्क दिया था कि खेत की उत्पादकता और अनुत्पादकता उसके आकार पर निर्भर नहीं होती, बल्कि किसान के आवश्यक श्रम और पूंजी पर होती है। डॉ आंबेडकर ने कहा था कि समस्या का निवारण खेत का आकार बढ़ाकर नहीं बल्कि सघन खेती से हो सकेगा। तब उन्होंने सामान्य क्षेत्रों में सहकारी कृषि को अपनाने की सलाह दी थी।
भूमि, शिक्षा, बीमा उद्योग, बैंक आदि का राष्ट्रीयकरण चाहते थे अंबेडकर
ऐसे ही एक खोती प्रथा महाराष्ट्र में भी थी जिसमें बिचैलिए रखे गये थे, जिन्हें खोत भी कहा जाता था। अमूमन जिन छोटे किसानों के पास जमीनें होती भी थीं, वह उनके मालिक नहीं थे। किसानों से टैक्स वसूली करने के लिए खोत को हर तरह की छूट होती थी, जिससे किसानों पर जुल्म बढ़ता जाता था और उन्हें कभी-कभी अपनी ही जमीन से बेदखल कर दिया जाता था। इसके उन्मूलन के लिए भी बाबा साहेब अंबेडकर ने 1937 में बम्बई विधानसभा में बिल प्रस्तुत किया और उन्हीं के प्रयासों से खोती प्रथा का खात्मा हुआ और किसानों को उनका हक मिला। अंबेडकर भूमि, शिक्षा, बीमा उद्योग, बैंक आदि का राष्ट्रीयकरण चाहते थे ताकि न कोई जर्मीदार रहे, न पट्टेदार और न ही कोई भूमिहीन। 1954 में भी बाबा साहेब ने भूमि के राष्ट्रीयकरण के लिए संसद में आवाज उठाई थी पर कांग्रेस ने उनकी बात नहीं सुनी।
पूंजीवाद के जरिए हर समस्या का समाधान खोजना चाहता शासक
खेती, किसान और कृषि अर्थ व्यवस्था पर डॉ अंबेडकरके विचार मुख्य रूप से भूमि सुधार पर ही केंद्रित हैं औरनिम्न दस्तावेजों में दर्ज हैं- इसके मुताबिककृषि संबंधित उद्योग सरकार के अधीन होने चाहिए, मूल और आवश्यक उद्योग सरकार के नियंत्रण में होने चाहिए, बीमा व्यवसाय पर सरकार का एकाधिकार होना चाहिए, सरकार द्वारा अधिग्रहण की गई भूमि को मानक आकार में भाग कर खेती के लिए ग्रामवासियों को पट्टे के रूपमें बाँटना चाहिए, पट्टाधारी गाँव, सरकार को खेत के किराए का भुगतान करना चाहिए और पैदावार को परिवार में निर्धारित तरीक़े से बाँटना चाहिए। साथ ही कृषि भूमि को जाति-धर्म के आधार पर बिना भेदभाव के इस प्रकार बाँटाजाए कि न कोई जमीदार हो न पट्टेदार, न भूमिहीन किसानहो। इस तरह की सामूहिक खेती के लिए वित्त, सिंचाई-जल, जोत-पशु, खेती के औजार, खाद-बीज आदि का प्रबंध करना सरकार की जिम्मेदारी हो।
सरकार मूल और आवश्यक उद्योगों, बीमा व्यवसाय तथा कृषि भूमि के डिबेंचर के रूप में उचित मुआवजा दे और अधिग्रहण करे। किसानों से जुड़ी समस्याओं के समाधान केलिए बाबा साहब के सुझावों पर हम ध्यान नहीं देते, क्योंकि देश का शासक देश को टुकड़ों में बंटा हुआ ही देखना चाहता है और पूंजीवाद के जरिए हर समस्या का समाधान खोजना चाहता है।
योजना ऐसी बनी, जिसमें किसान उचित दाम पर अपनी फसल बेच सकें
देश के अन्नदाता की स्थिति दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही है और इसके समाधान के लिए किसान को ही केंद्र में रखे बिना सरकार नए कृषि क़ानून यह कहते हुए लागू कर देती है कि यह उसके हित में है। सच्चाई ये है कि आज हमारेअन्नदाता बदहाल स्थिति में पहुंच गए हैं और बदलाव की उम्मीद कर रहे हैं। डॉ अंबेडकर ने अपनी किताब में यह सुझाव भी पेश किया था कि यदि सरकार अपनी योजनाओं में उनके द्वारा सुझाए विकल्पों को शामिल कर ले, तो किसानों की दशा में काफी सुधार आ सकता है। सरकार गाहे-बगाहे किसानों की कर्ज माफी की रट लगाती रहती है मगर बाबा साहेब के मुताबिक यह बेहद छोटा सा घटक है, दूसरे पहलू कहीं ज्यादा जरूरी हैं। डॉ अंबेडकर कहते थे अगर हम वाकई किसानों के मुद्दों के प्रति गंभीर हों, तो स्मॉल होल्डिंग यानी छोटे रकबे को भी मुनाफे में तब्दील किया जा सकता है। उनके मुताबिक सिर्फ कर्ज ही एक उपाय नहीं था, बल्कि कृषि और किसानी को आधुनिक बनाने और किसानों को इसके लिए प्रशिक्षित करना भी जरूरी उपायों में शामिल हैं।
डॉ अंबेडकर ने समय के साथ-साथ होने वाले तमाम बदलावों को किसानों से साझा करने की वकालत की थी। डॉ अंबेडकरका मानना था कि किसान की क्षमता बढ़ाना ही हमारा अंतिम उद्देश्य होना चाहिए। वह समझते थे कि किसान कभी भी पूँजीपति नहीं हो सकता। वह हर फसल के बाद दूसरी फसल उपजाने का इंतजार करता है और फिर तीसरी, यह सिलसिला वह जारी रखता है, क्योंकि उसके पास पर्याप्त पूंजी नहीं होती, इसलिए एक फसल को बेचकर दूसरी फसल को उपजाने की तैयारी करता है। मान लें कि एक साल उसको बढ़िया लाभ मिला तो कभी सूखा पड़ने की स्थिति में किसान की दशा फिर से वही हो जाएगी। इसलिए उन्होंने सुझाया कि सरकार अपनी उचित भूमिका निभाते हुए किसानों के लिए ऐसी योजना बनाए कि वह उचित दाम पर अपनी फसल बेच सकें।