बिहार विस चुनाव 2020: NDA की धुंध में लोजपा का चटख रंग

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जुलाई में भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर 4 सदस्यीय टीम बनाई थी, उसमें भी राजेंद्र शामिल थे। राजेंद्र सिंह को पटना-मगध डिविजन का प्रभारी बनाया गया था। 

कुछ दिनों पूर्व तक बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर एक स्पष्ट आकृति उभरने लगी थी। लेकिन, सभी गठबंधनों के उम्मीदवारों की सूची आने के बाद बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम को लेकर गहरी धुंध छाने लगी है। सभी गठबंधनों ने अपने-अपने उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी है। इस बार के विधानसभा चुनाव में खास बात यह है कि नेताओं ने सदस्यता ग्रहण करो और सिम्बल पाओ की नीति को मनमाने तरीके से व्यवहार में उतारना शुरू कर दिया है। नेताओं को जो करना था, वह कर दिया। लेकिन, राजनीति के इस नए चाल से समर्पित कार्यकर्ताओं में आक्रोश स्पष्ट दिख रहा है। जो, आक्रोश चुनावी अंक-गणित व समीकरण को उलट कर न रख दे।

एनडीए में सीट बंटवारे के तहत भाजपा की कई पारंपरिक सीटें जदयू की खाते में चली जाती हैं और वहां के जमीनी कार्यकर्ताओं को निराशा हाथ लगती है। इसके बाद शुरू होता है कार्यकर्ताओं के समर्थकों के दवाब के बाद बगावत और बगावत इतनी तेजी से बढ़ रही है कि जो एनडीए एक बार सत्ता में वापसी आसानी से कर रही थी, उसके सामने अब बहुत बड़ी चुनौती आ खड़ी हुई।

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इस बगावत से अगर कोई परेशान है तो भाजपा। क्योंकि, 2015 में भाजपा के मुख्यमंत्री पद के दावेदार कहे जाने वाले झारखण्ड भाजपा के पूर्व संगठन महामंत्री राजेंद्र सिंह, बिहार भाजपा के जमीनी स्तर पर सबसे मजबूत कार्यकर्ताओं में से एक रामेश्वर चौरसिया लोजपा का दामन थाम लेते हैं।

संकेत मिलने के बाद लगी लाइन

राजेंद्र सिंह के द्वारा बगावत की शुरुआत होने के बाद सिम्बल से वंचित मजबूत दावेदार को एक संकेत मिलता है और एक-एक करके कई नेता लोजपा में शामिल होते जा रहे हैं। इस कड़ी में नाम आता है, राजेन्द्र सिंह- रोहतास, रामेश्वर चौरसिया- रोहतास, डॉ उषा विद्यार्थी- पटना ग्रामीण, रविन्द्र यादव- झाझा, श्वेता सिंह- भोजपुर, इंदु कश्यप- जहानाबाद, अनिल कुमार- पटना ग्रामीण, मृणाल शेखर- बांका, डॉ. देव रंजन सिंह- महराजगंज, चंद्र भूषण ठाकुर- कदवां (कटिहार) ये सभी प्रमुख नाम हैं। आने वाले समय में कुछ और जमीनी कार्यकर्त्ता लोजपा से सिंबल ले सकते हैं।

चेहरा बनाने वाले पर भरोसा नहीं

बागी नेताओं को लेकर सबसे अहम सवाल यह है कि क्या वे अपनी सीट निकाल सकते हैं या एनडीए का वोटकटवा बनकर महागठबंधन के उम्मीदवारों को फायदा पहुंचा सकते हैं। हालांकि, जानकार बताते हैं कि जो भी नेता बागी हुए हैं उनका खुद का बड़ा जनाधार है वे किसी के चेहरे पर निर्भर नहीं रहने वाले नेता हैं। बल्कि वे किसी को चेहरा बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

सड़क, बिजली पानी से तौबा!

लेकिन, इनके बागी होने के बाद जो कार्यकर्त्ता पार्टी के फैसले से विमुख हुये हैं उनके लिए एक विकल्प मिला है। क्योंकि, लोग एक ही चेहरे को देखकर और मौका देकर देख चुके हैं। लोगों को अब कुछ नया चाहिए, सड़क, बिजली पानी से ऊपर उठकर अब बिहार की जनता कुछ नया चाहती है। इसलिए लोग प्रदेश नेतृत्व द्वारा तय चेहरे से अलग हटकर उनके लिए लड़ने वाले लोगों को चुन सकते हैं।

कभी 4 में से 1, अब 110 में नहीं

इन बागियों में सबसे बड़ा नाम है, राजेंद्र सिंह का, जो झारखंड भाजपा के संगठन महामंत्री रह चुके हैं, जिनके समय में झारखण्ड में भाजपा पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी। इसके बाद जुलाई में भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर 4 सदस्यीय टीम बनाई थी, उसमें भी राजेंद्र शामिल थे। राजेंद्र सिंह को पटना-मगध डिविजन का प्रभारी बनाया गया था। इसके अंतर्गत 58 विधानसभा सीटें थी। इस चुनाव में भाजपा पूरे बिहार को चुनावी रणनीति के तहत चार क्षेत्रों में बंटी थी और जिम्मेदारी उन्हें ही दी गई थी जिनके पास संगठन का खासा अनुभव था। कभी इन्हें 4 में से एक समझा गया था लेकिन, अब 110 में से 1 नहीं।

तीसरे संगठनकर्ता जो चुनाव में उतरे

साथ ही राजेंद्र सिंह को जब चुनावी मैदान में उतारा गया तो यह चौंकाने वाला फैसला साबित हुआ। क्योंकि, भाजपा में जो संगठन महामंत्री होते हैं, वे बहुत कम ही चुनाव लड़ते है। क्योंकि, वे संघ के प्रचारक होते हैं। हालांकि, राजेंद्र सिंह से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, हरियाणा के सीएम मनोहर लाल खट्टर संगठन की जिम्मेदारी निभाने वाले चुनावी प्रक्रिया में भाग लिए थे। इसके बाद यह चर्चा तेज हो गई थी कि संभवतः राजेंद्र सिंह भाजपा के सीएम पद के दावेदार हो सकते हैं।

जब रोहतास बना रांची

बहरहाल, राजेंद्र सिंह के लोजपा में जाने के बाद उनका अनुभव स्वाभाविक रूप से में हो सकता है। साथ ही साथ स्वयंसेवकों का समर्थन उन्हें मिल सकता है। जब राजेंद्र सिंह दिनारा से चुनाव लड़ रहे तो उस समय रोहतास झारखंड की कैबिनेट के साथ-साथ देशभर के प्रमुख स्वयंसेवक तथा सैंकड़ों अभाविप के लोगों से भरी थी।

आप कुछ भी हों, लेकिन नीतीश का विरोध नहीं कर सकते

वहीं दूसरा और अहम नाम है रामेश्वर चौरसिया का, जो नीतीश विरोधी राजनीति के लिए जाने जाते हैं। भाजपा के दिग्गज नेता रहे रामेश्वर चौरसिया कभी उत्तर प्रदेश के प्रभारी रह चुके हैं, प्रवक्ता भी रह चुके हैं तथा जब 2013 में मोदी की हुंकार रैली हुई थी तो उसके वे प्रभारी रह चुके थे। लेकिन, नीतीश विरोधी राजनीति के कारण उन्हें टिकट से वंचित होना पड़ा और कार्यकर्ताओं के दवाब में लोजपा के चुनाव चिन्ह से चुनावी मैदान में उतरना पड़ा।

लोजपा से सिम्बल मिलने के बाद इन्होनें सुशील मोदी पर आरोप लगाते हुए कहा था कि वे नीतीश कुमार की तरफदारी करते हैं। उनके साथ-साथ मंगल पांडेय, नन्द किशोर यादव तथा राधामोहन सिंह भी नीतीश कुमार के इशारे पर काम करते हैं। फ़िलहाल, अतिपिछड़े चेहरे के साथ-साथ लोजपा को उनके राजनीतिक अनुभव का लाभ मिल सकता है।

लड़ाई बागियों बनाम महागठबंधन !

साथ ही उषा विद्यार्थी, देव रंजन सिंह, चंद्र भूषण ठाकुर जैसे कुछ नेता हैं, जो जमीन से जुड़े हुए हैं। इनलोगों की वजह से भी जदयू को भारी नुकसान हो सकता है। कुल मिलाकर इस चुनाव में सियासी दुश्मनों से ज्यादा बागियों से चुनौती है। भीतरघात, एंटी इंकम्बैंसी तथा बगावत के कारण सबसे ज्यादा नुकसान जदयू को होता दिख रहा है। क्योंकि, कई जगह लड़ाई बागियों बनाम महागठबंधन होने जा रहा है।

एक अन्य राजनीतिक जानकार कहते हैं कि बिहार में इस समय एनडीए राजनीतिक क्राईसिस से गुजर रही है और ऐसे समय में सुशील मोदी महागठबंधन कम लोजपा पर ज्यादा निशाना साध रहे हैं। कहीं ऐसा न हो कि इसका असर उल्टा हो जाए।

इसके आलावा जदयू से बगावत कर चुके नेताओं में डुमरांव के निवर्तमान विधायक ददन पहलवान, पूर्व मंत्री रामेश्वर पासवान, पूर्व मंत्री भगवान सिंह कुशवाहा, पूर्व विधायक रणविजय सिंह, पूर्व विधायक रवि ज्योति, और चकाई के पूर्व विधायक सुमित कुमार सिंह के नाम प्रमुख हैं।

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