बिहार का चुनावी दंगल बहुत करीब है। लेकिन, राजनीतिक अखाड़े में उतरने वाले पहलवान अपने-अपने दांव-घाट को आजमाने की जगह किंकर्तव्यविमूढ़ बैठे हैं, क्योंकि कोरोनावायरस ने चुनावी दंगल व अखाड़े की डिजाइन बदल दी है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव एक दंगल है। चुनावी दंगल में नेता और पार्टियां पहलवान के रूप में अखाड़े में अपने विरोधियों को मात देने के लिए उतरते हैं। हरेक अखाड़े की घोषित-अघोषित रीति-नीति होती है। करीब सत्तर वर्ष पुराने इस चुनावी अखाड़े के भी कई घोषित-अघोषित रीति-नीति हैं, जो अचानक बदल गए हैं।
बिहार जैसे राजनीति प्रधान राज्य में चुनावी दंगल के दांव-पेंच दूसरे राज्यों से भिन्न रहे है। लेकिन, इस बार बिहार का यह चुनावी अखाड़ा बिल्कुल नए रूप में सामने है। अखाड़े में उतरने की तैयारी में लगे पुराने घाघ खिलाड़ी बदले जमाने के अनुरूप अपने दांव-पेंच को दुरुस्त करने में लग गए हैं। वहीं कुछ पुराने पहलवान इतने उजबुजा गए थे कि चुनाव टालने की वकालत करने लगे थे। वहीं चुनाव आयोग नए हालात में भी कुछ एहतियात के साथ समय पर चुनाव करा लेने की प्रक्रिया में जुट गया है।
इस बदलाव को अवसर में बदलने के लिए भारत की सबसे बड़ी राजनीतिक संगठन भारतीय जनता पार्टी ने वर्चुअल रैली के रूप में एक नया प्रयोग शुरू कर दिया। विरोधियों ने भाजपा के इस कदम की कटु आलोचना शुरू कर दी है। विरोधियों की आलोचना से बेखबर भाजपा ने साइबर मीडिया के माध्यम से लोगों तक अपनी बात पहुंचाने का सिलसिला शुरू कर दिया है। जिला से लेकर विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र तक के लोगों से भाजपा के बड़े नेता संवाद कर रहे हैं। भाजपा के बाद एनडीए का प्रमुख घटक जनता दल यूनाईटेड ने भी वर्चुअल रैली की शुरूआत कर दी है। इस मामले में महागठबंधन के प्रमुख दल राजद और कांग्रेस पीछे दिख रहे हैं।
वैसे तो आजादी के बाद से ही बिहार के चुनावी अखाड़े का मिजाज व रीति-नीति लगातार बदलती रही है। बिहार की राजनीति में जब तक खांटी गांधीवादियों व पुराने समाजवादियों का प्रभाव रहा तब तक यहां के चुनावी दंगल में धनबली और बाहुबलियों को प्रवेश नही मिला। लेकिन, सत्ता के प्रभाव में राजनीति ने जब रंग बदलना शुरू किया तब संगठित कार्यकर्ताओं के बल पर बोगस वोटिंग का जमाना आ गया। 1970 के दशक के अंत तक बिहार के चुनावी अखाड़े की अघोषित दांव में बूथ कैप्चरिंग जैसे शब्द प्रभावशाली तरीके से शामिल हो गए। केंद्र में जनता पार्टी की सरकार की अकाल मृत्यु के बाद कांग्रेस अपने युवा नेता संजय गांधी के नेतृत्व में नई शैली की राजनीति की शुरूआत की। इस प्रकार की राजनीति में धनबल और बाहुबल का महत्व अचानक बढ़ गया। संजय ब्रिगेड शैली की राजनीति में चुनाव एक युद्ध का रूप धारण कर लिया, जिसमें जीत हासिल करने के लिए सब कुछ जायज मान लिया गया। भारत की सबसे बड़ी और पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस के इस बदले रूप का परिणाम यह हुआ कि बिहार विधानसभा में कुख्यात अपराधी पहुंचने लगे।
1990 के दशक तक बिहार में चुनाव का अर्थ रक्तपात और हिंसा माना जाने लगा था। बिहार के कई इलाकों में लोकतंत्र व भारत के संविधान में विश्वास नहीं करने वाले माओवादियों की समानांतर सरकार चलती थी। वैसे क्षेत्रों में भय के कारण कोई चुनाव प्रचार करने नहीं जाता था। भारी सुरक्षा के बीच दिन के तीन बजे तक ही वहां मतदान संभव हो पाता था। वैसे चुनावी अखाड़ों में अपने उम्मीदवारों की जीत पक्की कराने के लिए राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी रात के अंधेरे में नक्सली कमांडरों के साथ डील करते थे। अखाड़े की इस अघोषित रीति पर पहली बार 2005 में लगाम दिखा, जब चुनाव आयोग के सलाहकार केजे राव ने विशेष अभियान चलाया था।
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