लालू का साथ देकर वामपंथियों ने खोयी सियासी जमीन
पटना: लॉकडाउन के दौरान केंद्र ने राज्य सरकार के साथ मिलकर युद्धस्तर पर मजदूरों-गरीबों के लिए काम किये। किसी को भूखा नहीं सोने दिया गया। हर गरीब को 15-15 किलो अनाज उपलब्ध कराया गया और उनके खाते में 4-4 हजार रुपये डाले गए। विशेष ट्रेनों से 20 लाख मजदूरों की सुरक्षित वापसी का प्रबंध किया गया और फिर लाखों लोगों को सरकारी योजनाओं में काम भी दिया जा रहा है।
गृहमंत्री अमित शाह गरीबों के लिए किये कार्य और मोदी-2 के एक साल की उपलब्धियों पर अगर वर्चुअल रैली के जरिये बिहार के लोगों से बात करना चाहते हैं, तो इसका विरोध क्यों किया जा रहा है? क्या देश के गृहमंत्री का जनता से संवाद करना अलोकतांत्रिक है? क्या वर्चुअल माध्यम का विरोध उचित है, जो अब न्यू नार्मल बनता जा रहा है?
विपक्ष को यही नहीं पता कि वे थाली क्यों पीटना चाहते
गरीबों का नाम लेकर सत्ता हथियाने वाले राजद को हमेशा बिहार में उन वामपंथी दलों का साथ मिला, जिनकी राजनीति मजदूरों को गुमराह करने और मजदूर को मालिक-उद्यमी या कारखानेदार बनने से रोकने के षड्यंत्र पर चलती रही। बिहार में जब दलितों-मजदूरों के नरसंहार हो रहे थे, मिल-कारखाने बंद होने से बेरोजगारी बढ़ रही थी, सरकार घोटालों में डूबी थी, स्कूल की जगह चरवाहा विद्यालय खुल रहे थे और मजदूर सामूहिक पलायन को विवश हो रहे थे, तब लाल झंडे वाले कम्युनिस्ट आँखें मूँद कर लालू प्रसाद का समर्थन कर रहे थे।
लालू राज के गुनाह का साथ देने के चलते जिन वामपंथियों की सियासी जमीन खिसक गई, वे आज भी राजद के साथ ढपली बजा रहे हैं। भाजपा की वर्चुअल रैली का विरोध कर विपक्ष अपनी हताशा प्रकट रहा है।