लोकतंत्र एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें कौन कब चुनावी समर में कूद पड़े, कहना मुस्किल है। ऐसा ही मामला कालजयी रचनाकार फणीश्वर नाथ रेणु के साथ भी हुआ था। हिंदी साहित्य में अपनी खास पहचान बना चुके रेणु ने वर्ष 1972 में चुनाव लड़ने का फैसला लेकर सबको चौंका दिया था। हालांकि साहित्यकार के साथ-साथ उनकी एक पहचान सोशलिस्ट विचारधारा के कारण भी थी। यही नहीं बल्कि राजशाही के खिलाफ नेपाल क्रांति में उनका अहम योगदान भी रहा था।
“जीत गया तो कहानियां लिखूंगा, हार गया तो उपन्यास”
रेणु साहित्य व उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं पर अपनी मजबूत पकड़ रखने वाले पूर्णिया विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो सुरेंद्र प्रसाद यादव कहते हैं कि रेणु के साहित्य क्षेत्र चुनने के पीछे भी एक रोचक कहानी है। घटना 1951-52 की है। एक दिन पटना में सड़क किनारे एक कागज के ठोंगे से भूंजा खा रहे थे। उसी अखबारी कागज से बने ठोंगा पर किसी अन्य संदर्भ में कहीं लिखा था कि अगर आपको राजनीति व साहित्य में से किसी एक को चुनना हो तो आप क्या चुनना चाहेंगे। उसी वाक्य को पढ़ कर रेणु ने उसी समय अपने लिए साहित्य का रास्ता चुन लिया था। प्रो यादव बताते हैं कि उस दौरान वे राजनीति में भी सक्रिय रुचि लेते रहे। सोशलिस्ट विचारधारा को आगे बढ़ाते रहे। पर चुनाव लड़ने की इच्छा कभी नहीं रही। वहीं सत्तर के दशक की एक घटना ने उन्हें चुनावी राजनीति के लिए प्रेरित कर दिया।
प्रो यादव की मानें तो नौकरी पाने से वंचित एक प्रतिभाशाली युवक ने रेणु से कहा कि उससे कम प्रतिभाशाली छात्रों को नौकरी मिल रही है, पर उसे नकार दिया जा रहा है। युवक की शिकायत थी कि उसके पास कोई बड़ी पैरवी न होने के कारण उसके साथ अन्याय हो रहा है। इस वाकया ने रेणु को चुनावी मैदान में उतरने पर मजबूर कर दिया।
अलग था रेणु का चुनाव प्रचार का तरीका
मिली जानकारी के अनुसार रेणु पूरी ताकत से लेकिन अपने अंदाज में चुनाव लड़े। उनके चुनावी प्रचार के तौर-तरीकों का जिक्र करते हुए प्रो यादव कहते हैं कि वे चुनावी सभाओं में किस्से कहानियां भी सुनाते थे, भजन व गीत भी।
वहीं रेणु परिवार के बहुत करीब रहे शैलेंद्र शरण कहते हैं कि उनका एक खास चुनावी नारा था कह दो गांव-गांव में, अबके इस चुनाव में वोट देंगे नाव में, रेणु कहा करते थे कि अगर वे चुनाव जीत गये तो कहानियां लिखते रहेंगे।
पर हार गये तो उपन्यास लिखेंगे। चुनाव में उनका मुकाबला कांग्रेस के कद्दावर नेता सरयू मिश्रा से था, लिहाजा रेणु चुनाव हार गये। वहीं जीवन ने उन्हें इतना समय नहीं दिया कि वादानुसार वे उपन्यास पूरा कर पाते।
(संजीव आनन्द)