‘गुलाबो-सिताबो’ की लखनवी नोकझोंक में आपका स्वागत है
आम दर्शक के मन में यह बात रहती है कि बड़े फिल्म स्टारों की फिल्मों में नाच-गाना, एक्शन, धूम—धड़ाका होगा। लेकिन, अगर शूजित सरकार जैसा फिल्मकार हो, तो बात बदल जाती है। पीकू से लेकर आॅक्टूबर तक में उन्होंने यह बात सिद्ध की है। अब वे गुलाबो—सिताबो के साथ दर्शकों के बीच हाजिर है। पहली बार उनकी कोई फिल्म बड़े पर्दे पर रिलीज न होकर, ओटीटी मंच पर आयी है। 12 जून से अमेजन प्राइम पर स्ट्रीम हो रही है।
हाल के वर्षों में लखनऊ की पृष्ठभूमि पर कई फिल्में आई हैं। इनमें से एकाध ही लखनवी तहजीब को साध पायीं हैं। शूजित की ‘गुलाबो—सिताबो’ इन्हीं में से एक है। लखनऊ में बेगम (फारुख जफर) की स्वामित्व वाली ऐतिहासिक हवेली फातिमा महल में बांके रस्तोगी किराएदार के रूप में रहता है। मिर्जा शेख (अमिताभ बच्चन) से उसकी नोकझोंक कथानक को आगे बढ़ाती है। मिर्जा हवेली को अपने नाम करवाना चाहता है, उधर बांके हवेली खाली नहीं करना चाहता। इसी धरातल में लेखिका जूही चतुर्वेदी ने पटकथा रची है। उनका दिलचस्प लेखन विक्की डोनर से लेकर पीकू तक में प्रशंसा पा चुका है। ‘गुलाबो—सिताबो’ बहुपरतीय है। हर पात्र की अपनी एक दुनिया है। उस दुनिया में वह अपना एजेंडा चलाना चाहता है। पात्रों के स्वार्थ, भाव, महत्कांक्षा को शूजित ने माधुर्य के साथ चित्रित किया है।
शूजित निष्णात फिल्मकार हैं। वे साधारण कथा को भी विशेष बना देते हैं। ‘गुलाबो—सिताबो’ देखते हुए आपको ऋषिकेश मुखर्जी और बासु चटर्जी याद आ सकते हैं। उनकी फिल्में भी याद आएंगी। लेकिन, ऋषिकेश दा व बासु दा के क्राफ्टमैनशिप को शूजित दा आगे बढ़ा रहे हैं, यह आपको सबसे अधिक महसूस होगा। जैसे पीकू में दिल्ली व कोलकाता को भी उन्होंने एक किरदार की भांति पेश किया था, ‘गुलाबो—सिताबो’ में उन्होंने लखनऊ शहर को भी एक किरदार के रूप में रखा है। शूजित की सिफत है कि वे बिना ड्रामे के भी कथानक को कंट्रास्ट के साथ फिल्माते हैं। राजा—रानी की कहानी उनके लिए जरुरी नहीं। वे तो ‘स्लाइस आॅफ दी लाइफ’ को ही इतना मजेदार बना देते हैं कि दर्शक उसे एक से अधिक बार देखना चाहे। इस काम में उनकी सबसे बड़ी मदद जूही करती हैं। अपनी लेखन कला से सपाट कहानी में भी ऐसे रंग भरती हैं कि पटकथा का सौंदर्य इंद्रधनुषी छटा के रूप में पर्दे पर सजने लगता है। उदाहरण के लिए उनका लिखा कोई भी फिल्म उठाकर देख लीजिए। यहां तक कि स्काइ इज पिंक भी, जिसमें उन्होंने सिर्फ संवाद लिखे थे। जूही नीरस को सरस बनाने की अनोखी कला जानती हैं।
मिर्जा के किरदार को बच्चन ने जीवित कर दिया है। मिर्जा का बाह्य बनावट में आप पीकू के भस्कोर दा का अक्स दिख सकता है। लेकिन, मिर्जा की रूह एकदम ताजा है। पहले किसी ने देखा नहीं। अमिताभ पीकू के किरदार को दोहराने से बचे हैं। यह उनके सागर की गहराई वाने अनुभव की परिणति है। शूजित ने इसका ध्यान बखूबी रखा है। फिर आयुष्मान खराना है। शूजित ने उन्हें विक्की डोनर से फिल्मों में लाया था। विक्की की तासीर बांके में भी समाहित है। लेकिन, लखनवी अंदाज को ओढ़कर उसे ढंक दिया गया है। अमिताभ वाली विविधता लाने के लिए आयुष्मान को परिश्रम करना होगा। संयोग है कि बच्चन व खुराना दोनों सरकार के साथ दूसरी बार काम कर रहे हैं।
लॉकडाउन के कारण ‘गुलाबो—सिताबो’ बड़े पर्दे पर नहीं लग पायी। अगर लगती, तो लखनऊ की आबोहवा को अधिक सांद्र रूप में महसूस किया जाता। लेकिन, फिर भी इससे उसके जायके में कमी नहीं आयी है। प्रचंड गर्मी के दिन के घर में बैठकर परिवार संग इसका आनंद लिया जा सकता है। विक्की डोनर, पीकू व अक्टूबर के बाद शूजित की एक और दिल में बसने वाली प्रस्तुति है ‘गुलाबो—सिताबो’।