भारत में पंचायती राज के गठन व उसे सशक्त करने की अवधारणा महात्मा गांधी के दर्शन पर आधारित है। गांधी जी के शब्दों में- “सच्चा लोकतंत्र केंद्र में बैठकर राज्य चलाने वाला नहीं होता, अपितु यह तो गाँव के प्रत्येक व्यक्ति के सहयोग से चलता है।”
पंचायती राज व्यवस्था का विहंगावलोकन करें तो पता चलता है कि हर साल 24 अप्रैल को पंचायती राज दिवस मनाए जाने का कारण 73वाँ संविधान संशोधन अधिनियम,1992 है जो 24 अप्रैल 1993 से प्रभाव में आया था। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और कोई भी देश, राज्य या संस्था सही मायने में लोकतांत्रिक तभी मानी जा सकती है जब शक्तियों का उपयुक्त विकेंद्रीकरण हो एवं विकास का प्रवाह ऊपरी स्तर से निचले स्तर (ज्वच जव ठवजजवउ) की ओर होने के बजाय निचले स्तर से ऊपरी स्तर (ठवजजवउ जव ज्वच) की ओर हो।
पंचायती राज व्यवस्था में विकास का प्रवाह निचले स्तर से ऊपरी स्तर की ओर करने के लिये वर्ष 2004 में पंचायती राज को अलग मंत्रालय का दर्जा दिया गया। पंचायती राज व्यवस्था की त्रि-स्तरीय संरचना, उसकी पृष्ठभूमि, विभिन्न समितियाँ तथा लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण और पंचायतों के संदर्भ में गांधी दर्शन की उपयोगिता समझें तो पंचायती राज की अवधारणा व उपयोगिता स्पष्ट हो जाती है।
पंचायती राज व्यवस्था के तहत
लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण का अर्थ है कि शासन-सत्ता को एक स्थान पर केंद्रित करने के बजाय उसे स्थानीय स्तरों पर विभाजित किया जाए, ताकि आम आदमी की सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित हो सके और वह अपने हितों व आवश्यकताओं के अनुरूप शासन-संचालन में अपना योगदान दे सके। स्वतंत्रता के पश्चात् पंचायती राज की स्थापना लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की अवधारणा को साकार करने के लिये उठाए गए महत्त्वपूर्ण कदमों में से एक थी। वर्ष 1993 में संविधान के 73वें संशोधन द्वारा पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक मान्यता मिली थी। इसका उद्देश्य देश की करीब ढाई लाख पंचायतों को अधिक अधिकार प्रदान कर उन्हें सशक्त बनाना था और यह उम्मीद थी कि ग्राम पंचायतें स्थानीय जरुरतों के अनुसार योजनाएँ बनाएंगी और उन्हें लागू करेंगी।
स्थानीय स्वशासन की अवधारणा की जड़े भारत में काफी पुरानी व बहुत गहरी है। वैशाली के लिच्छवी गणराज्य की अवधारणा का आधारस्तंभ ही स्वशासन यानी सत्ता का विकेंद्रीकरण था। स्वनिर्भर गांव, टोले और कबीले की अवधारणा भी काफी पुरानी है। गुलामी के लंबे कालखंड के पहले गांवों की संपन्नता की वजह से ही भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था। वैसे आधुनिक काल में ‘लॉर्ड रिपन’ को भारत में स्थानीय स्वशासन का जनक माना जाता है। वर्ष 1882 में उन्होंने स्थानीय स्वशासन संबंधी प्रस्ताव दिया जिसे स्थानीय स्वशासन संस्थाओं का ‘मैग्नाकार्टा’ कहा जाता है। वर्ष 1919 के भारत शासन अधिनियम के तहत प्रांतों में दोहरे शासन की व्यवस्था की गई तथा स्थानीय स्वशासन को हस्तांतरित विषयों की सूची में रखा गया।
स्वतंत्रता के पश्चात् वर्ष 1957 में योजना आयोग (अब नीति आयोग) द्वारा सामुदायिक विकास कार्यक्रम (वर्ष 1952) और राष्ट्रीय विस्तार सेवा कार्यक्रम (वर्ष 1993) के अध्ययन के लिये ‘बलवंत राय मेहता समिति’ का गठन किया गया। नवंबर 1957 में समिति ने अपनी रिपोर्ट सौंपी जिसमें त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था- ग्राम स्तर, मध्यवर्ती स्तर एवं जिला स्तर लागू करने का सुझाव दिया।
वर्ष 1958 में राष्ट्रीय विकास परिषद ने बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिशें स्वीकार की तथा 2 अक्तूबर, 1959 को राजस्थान के नागौर जिले में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा देश की पहली त्रि-स्तरीय पंचायत का उद्घाटन किया गया। वर्ष 1993 में 73वें व 74वें संविधान संशोधन के माध्यम से भारत में त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा प्राप्त हुआ। भारत में त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था में ग्राम पंचायत (ग्राम स्तर पर), पंचायत समिति (मध्यवर्ती स्तर पर) और जिला परिषद (जिला स्तर पर) शामिल हैं।
गांधी दर्शन व पंचायती राज
गांधी का मानना था कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है। दरअसल, गांधी अपने को ग्रामवासी ही मानते थे और गाँव में ही बस गये थे। गाँव की जरुरतें पूरी करने के लिये उन्होंने अनेक संस्थायें कायम की थीं और ग्रामवासियों की शारीरिक, आर्थिक, सामाजिक और नैतिक स्थिति सुधारने का भरसक प्रयत्न किया था।
उनका दृढ़ विश्वास था कि गाँवों की स्थिति में सुधार करके ही देश को सभी दृष्टि से अपराजेय बनाया जा सकता है। ब्रिटिश सरकार द्वारा गाँवों को पराश्रित बनाने का जो षड्यंत्र किया गया था उसे समझकर ही वे ग्रामोत्थान को सब रोगों की दवा मानते थे। चरखा, ग्रामोद्योग, ग्राम स्वराज, आत्मनिर्भर गांव, स्वदेशी हस्तकर्म को सम्मान आदि के जरिये गांधी आत्मनिर्भर गाँव और सशक्त भारत का निर्माण करना चाहते थे।
इसलिये संविधान में अनुच्छेद-40 के अंतर्गत गांधी जी की कल्पना के अनुसार ही ग्राम पंचायतों के संगठन की व्यवस्था की गई। गांधी जी का मानना था कि ग्राम पंचायतों को प्रभावशील होने में तथा प्राचीन गौरव के अनुकूल होने में कुछ समय अवश्य लगेगा। यदि प्रारंभ में ही उनके हाथों में दण्डकारी शक्ति सौंप दी गई तो उसका अनुकूल प्रभाव पडनेे के स्थान पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा इसलिये ग्राम पंचायतों को प्रारंभ में ही ऐसे अधिकार देने में सतर्कता आवश्यक है, जिसके कारण उनके अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह न लगे।
प्रारम्भ में यह आवश्यक है कि पंचायत को जुर्माना करने या किसी का सामाजिक बहिष्कार करने की सत्ता न दी जाए। गाँवों में सामाजिक बहिष्कार अज्ञानी या अविवेकी लोगों के हाथ में एक खतरनाक हथियार सिद्ध हो सकता है। अक्सर खाप पंचायतों की तर्ज पर अनेक पंचायतों द्वारा तुगलकी फरमान सुनाए जाने की खबरें मीडिया की सुर्खियां बनती रहती है। जुर्माना करने का अधिकार भी हानिकारक साबित हो सकता है और अपने उद्देश्य को नष्ट कर सकता है। गांधी जी के इस विचार का तात्पर्य पंचायत को अधिकार विहीन बनाना नहीं बल्कि अधिकारों का दंड देने के रूप में संयमित प्रयोग किये जाने से था।
गांधी जी पंचायत को अधिकार भोगने वाली संस्था न बनाकर सदभाव जागृत करने वाली रचनात्मक संस्था के रूप में विकसित करना चाहते थे। उनका विश्वास था कि यह संस्था गाँव में सुधार का वातावरण पैदा कर सकती है।
पंचायती राज्य की सफलता में चुनौतियाँ
पंचायतों के पास वित्त प्राप्ति का कोई मजबूत आधार नहीं है उन्हें वित्त के लिये राज्य सरकारों पर निर्भर रहना पड़ता है। ज्ञातव्य है कि राज्य सरकारों द्वारा उपलब्ध कराया गया वित्त किसी विशेष मद में खर्च करने के लिये ही होता है।
कई राज्यों में पंचायतों का निर्वाचन नियत समय पर नहीं हो पाता है। कांग्रेस- राजद के कार्यकाल में बिहार में भी 23 वर्षों तक पंचायत चुनाव नहीं कराया जा सका था। जब 2005 में एनडीए की सरकार बनी तो लंबे अंतराल के बाद 2006 में पंचायत चुनाव कराया गया।
कई पंचायतों में जहाँ महिला प्रमुख हैं वहाँ कार्य उनके किसी पुरुष रिश्तेदार के आदेश- निर्देश पर होता है, महिलाएँ केवल नाममात्र की प्रमुख होती हैं। इससे पंचायतों में महिला आरक्षण का उद्देश्य नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है। क्षेत्रीय राजनीतिक संगठन पंचायतों के मामलों में हस्तक्षेप करते हैं जिससे उनके कार्य एवं निर्णय प्रभावित होते हैं। इस व्यवस्था में कई बार पंचायतों के निर्वाचित सदस्यों एवं राज्य द्वारा नियुक्त पदाधिकारियों के बीच सामंजस्य बनाना मुश्किल होता है, जिससे पंचायतों का विकास प्रभावित होता है।
पंचायती राज संस्थाओं को कर लगाने के कुछ व्यापक अधिकार दिये जाने चाहिये। पंचायती राज संस्थाएँ खुद अपने वित्तीय साधनों में वृद्धि करें। इसके अलावा 14वें व 15 वें वित्त आयोग ने पंचायतों के वित्त आवंटन में बढ़ोतरी की है। इस दिशा में और भी बेहतर कदम बढ़ाए जाने की जरुरत है।
पंचायती राज संस्थाओं को और अधिक कार्यपालिकीय अधिकार दिये जाएँ और बजट आवंटन के साथ ही समय-समय पर विश्वसनीय लेखा परीक्षण भी कराया जाना चाहिये। इस दिशा में सरकार द्वारा ई-ग्राम स्वराज पोर्टल का शुभारंभ एक सराहनीय प्रयास है। महिलाओं को मानसिक एवं सामाजिक रूप से अधिक-से-अधिक सशक्त बनाना चाहिये जिससे निर्णय लेने के मामलों में आत्मनिर्भर बन सके। पंचायतों का निर्वाचन नियत समय पर राज्य निर्वाचन आयोग के मानदंडों पर क्षेत्रीय संगठनों के हस्तक्षेप के बिना होना चाहिये। पंचायतों का उनके प्रदर्शन के आधार पर रैंकिंग का आवंटन करना चाहिये तथा इस रैंकिंग में शीर्ष स्थान पाने वाली पंचायत को पुरुस्कृत करना चाहिये।
पंचायती राज से संबंधित विभिन्न समितियाँ
बलवंत राय मेहता समिति (1957)
अशोक मेहता समिति (1977)
जी. वी. के राव समिति (1985)
एल.एम. सिंघवी समिति (1986)
73वें संविधान संशोधन अधिनियम की विशेषताएँ
इस संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा संविधान में भाग-9 जोड़ा गया था। मूल संविधान में भाग-9 के अंतर्गत पंचायती राज से संबंधित उपबंधों की चर्चा (अनुच्छेद 243) की गई है । भाग-9 में ‘पंचायतें’ नामक शीर्षक के तहत अनुच्छेद 243-243ण (243-243-व्) तक पंचायती राज से संबंधित उपबंध हैं। ग्राम सभा गाँव के स्तर पर उन शक्तियों का उपयोग कर सकती है और वे कार्य कर सकती है जैसा राज्य विधानमंडल विनिर्धारित करें।
73वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान में 11वीं अनुसूची जोड़ी गई और इसके तहत पंचायतों के अंतर्गत 29 विषयों की सूची की व्यवस्था की गई।पंचायत की सभी सीटों को पंचायत के निर्वाचन क्षेत्रों से प्रत्यक्ष चुनाव द्वारा निर्वाचित व्यक्तियों से भरा जाएगा। इसके लिये प्रत्येक पंचायत क्षेत्र को प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में इस प्रकार विभाजित किया जाएगा कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र की आबादी और आवंटित क्षेत्रों की संख्या के बीच का अनुपात साध्य हो और सभी पंचायत क्षेत्र में समान हो।
संविधान का अनुच्छेद 243 (घ) अनुसूचित जाति और जनजाति के लिये सीटों को आरक्षित किये जाने की सुविधा देता है। प्रत्येक पंचायत में सीटों का आरक्षण वहाँ के आबादी के अनुपात में होगा। अनुसूचित जाति और जनजाति की महिलाओं के लिये आरक्षित सीटों की संख्या कुल आरक्षित सीटों के एक-तिहाई से कम नहीं होगी।
पंचायतों का कार्यकाल
पंचायतों का कार्यकाल पाँच वर्ष निर्धारित है लेकिन कार्यकाल से पहले भी इसे भंग किया जा सकता है। पंचायत गठित करने के लिये नए चुनाव कार्यकाल की अवधि की समाप्ति या पंचायत भंग होने की तिथि से 6 महीने के भीतर ही करा लिये जाने चाहिये।
भारतीय संविधान में 74वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 द्वारा नगरपालिकाओं को संवैधानिक दर्जा दिया गया तथा इस संशोधन के माध्यम से संविधान में ‘भाग 9 क’ जोड़ा गया एवं यह 1 जून, 1993 से प्रभावी हुआ।
अनुच्छेद 243 त से 243 य तक नगरपालिकाओं से संबंधित उपबंध किये गए हैं। संविधान के अनुच्छेद 243 (थ) में नगरपालिकाओं के तीन स्तरों के बारे में उपबंध हैं, जो इस प्रकार हैं- नगर पंचायत- ऐसे संक्रमणशील क्षेत्रों में गठित की जाती है, जो गाँव से शहरों में परिवर्तित हो रहे हैं।
नगरपालिका परिषद- छोटे शहरों अथवा लघु नगरीय क्षेत्रों में गठित किया जाता है। नगर निगम- बड़े नगरीय क्षेत्रों, महानगरों में गठित की जाती है। इसके द्वारा संविधान में 12वीं अनुसूची जोड़ी गई जिसके अंतर्गत नगरपालिकाओं को 18 विषयों की सूची विनिर्दिष्ट की गई है।
नगरपालिका की सभी सीटों को नगरपालिका निर्वाचन क्षेत्रों से प्रत्यक्ष निर्वाचन से चुने गए व्यक्तियों द्वारा भरा जाएगा।
प्रत्येक नगरपालिका में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिये सीटें आरक्षित की जाएंगी। आरक्षित सीटों की संख्या एक-तिहाई से कम नहीं होगी। राज्य का विधानमंडल विधि द्वारा नगरपालिकाओं को कर लगाने और ऐसे करों, शुल्कों, टोल और फीस इत्यादि को उचित तरीके से एकत्र करने के लिये प्राधिकृत कर सकता है।