पटाखा: प्रेममयी रिश्तों का धमाका

0
Patakha is a black-comedy by Vishal Bhardwaj based on Charan Singh Pathik's short story 'Do Bahnein'

पटाखा ऐसी विस्फोटक चीज है, जिसमें छोटी सी जगह में बहुत ऊर्जा भरी होती है। जब तक वह फट न जाए, पटाखा खतरनाक बना रहता है। वि​शाल भारद्वाज की ताजा फिल्म ‘पटाखा’ का यही सार है। राजस्थान के जानेमाने कथाकार चरण सिंह पथिक की कहानी ‘दो बहनें’ पर आधारित यह फिल्म देसीपन के साथ सगी बहनों चंपा उर्फ बड़की (राधिका मदन) और गेंदा उर्फ छुटकी (सान्या मल्होत्रा) के झगड़ालू रिश्ते को दिलचस्प तरीके से प्रस्तुत करती है।
विशाल की यह फिल्म उनकी पिछली फिल्मों से मोटे तौर पर दो मामलों में हटकर है। पहली बात कि अब तक विशाल प्राय: त्रासदी—कथा कहते रहे हैं। जैसे— मकबूल, ओमकारा, हैदर व सात खून माफ आदि। ‘पटाखा’ के माध्यम से उन्होंने हास्य की तरफ खुद को मोड़ा है। दूसरी भिन्नता यह कि विशाल क्लासिक उपन्यास पर फिल्में बनाने के लिए जाने जाते हैं। इस बार उन्होंने चरण सिंह पथिक की कहानी चुनी। चुकी कहानी छोटी थी (अंग्रेजी में जिसे शॉर्ट स्टोरी कहते हैं), इसलिए उसके कथा सूत्र को ही ध्यान में रखकर फिल्मांकन किया है। छोटी कहानी के लिहाज से सवा दो घंटे की लंबाई भी पर्याप्त है। यह उससे भी तनिक छोटी हो सकती थी। फिल्म में इससे और कसावट आती।

swatva
a scene from film Patakha

‘पटाखा’ पर विशाल भारद्वाज के सृजनशीलता की छाप स्पष्ट दिखती है। यह फिल्म राजस्थान के गांव को कैमरे से महज दिखाती नहीं है, ​बल्कि राजस्थान की सुनहरी माटी में खुद को सराबोर कर लेती है। गाय—गोबर—कीचड़—बीड़ी—बोली का सम्मिलित संक्रमण दिखता है और इन सबसे परे बड़की व छुटकी का अक्कखड़पन भरा अंदाज। बीड़ी से लेकर बोली तक में बेपरवाह। जानी दुश्मन की भांति एक—दूसरे से लड़ना। मरने—मारने पर उतारू। लेकिन, अनवरत चलने वाले इस युद्ध की पृष्ठभूमि में प्रेम की अंतरधारा बहती है, जो विशाल ने कैमरे से दिखाया नहीं, बल्कि उसे छिपाकर रखा, ताकि उसको दिल से महसूस किया जाए, क्योंकि विशाल मानकर चलते हैं कि उनकी फिल्में देखने वाला दर्शक सुधि होता है। वो अंख—दा—सुख के लिए सिनेमाघर में नहीं आता। उसे तो फिल्म के किरदारों में स्वयं के मनोभावों की प्रतिकृति देखनी होती है। फिर भी चुकी उन्होंने त्रासदी—कथा से गियर बदलकर ब्लैक—ह्यूमर स्टाइल में फिल्माया है, इसलिए क्लाइमेक्स में चीजों को सहल बनाने हेतु प्रेम की अंतरधारा को संवादों का जामा पहना दिया है।
दोनों बहनों की लड़ाई को भारत—पाकिस्तान की दुश्मनी से तुलना की गई है। यह भी इनको लड़ाने में अमेरिका जैसे किसी तीसरे का हाथ होता है। ​’पटाखा’ में डिप्पर (सुनील ग्रोवर) अमेरिका की भूमिका में हैं। सगी बहनों की लड़ाई को भारत—पाक या इसराइल—फिलिस्तीन से तुलना कर एक राजनीतिक संदेश देने की कोशिश की गई है। लेकिन, फिल्मकार का यह तुलना तर्कसंगत नहीं है। इसे आसानी से समझा जा सकता है। भारत—पाक या इसराइल—फिलिस्तीन की लड़ाई में प्रेम की कोई अंतरधारा नहीं बहती। एक दूसरे के लिए आंखों में आंसू नहीं आते। ​’पटाखा’ की लड़ाई इससे अलग है। इस मामले में विशाल कंफ्यूज लगते हैं।

The leading ladies Radhika and Sanya steal the show during entire movie

दोनों बहनें लड़ते हुए ही सहज हैं। अलग हो जाने पर कुंठा से भर जाती हैं और बीमार हो जाती हैं। एक मूक व दूसरी अंधी। यह असल अंधापन नहीं, बल्कि हिस्ट्रकल ब्लाइंडनेस है। दोनों की बीमारी मानसिक है। मिलने पर फिर से पूरी ऊर्जा के साथ एक—दूसरे पर टूट पड़तीं हैं और उनकी बीमारी जाती रहती है। यही पटाखा का सार है, जिसका जिक्र आरंभ में किया गया है। हांलाकि इस भाव को क्लाइमेक्स में बचकाने ढंग से फिल्माया गया है। विशाल से संजीदगी की उम्मीद रहती है।

राधिका मदन और सान्या मल्होत्रा ने किरदारों में डूबकर काम किया है। सिनेमा विधा में दोनों नईं हैं। विजय राज व सुनील ग्रोवर ने अपने हिस्से का किरदार ईमानदारी से जिया है। दोनों में विविधता है। इन चारों के सशक्त अभिनय से कथा ने रुचिकर आकार लिया है। कथा सामान्य भी हो, तो अच्छे अभिनेता उसे मजेदार बना देते हैं।
विशाल अपनी फिल्मों के लिए संगीत भी तैयार करते हैं। उनका संगीत लोक से प्रेरित होकर देसीपन को उभारता है। मकबूल में ‘तू मेरे रू—ब—रू है…’, ओमकारा में ‘बीड़ी जलइले जिगर से पिया…’, हैदर में ‘बिस्मिल​ बिस्मिल…’ और अब पटाखा में ‘एक तेरो बलमा…’।
विशाल भारद्वाज सिनेमा शिल्प के शानदार शिल्पकार हैं। हर पक्ष पर उनका परिश्रम दिखता है। परिधान से लेकर बोली और हाव—भाव से लेकर लोक व्यावहार। हर कुछ ठेठ, देसी, राजस्थानी, जमीन से जुड़ीं। मुख्य किरदारों के बिखरे बाल, गंदे दांत, मुंहफट अंदाज जैसे कुछ नमूने हैं।
बहनों की आपसी हंसी—ठिठोली व लड़ाई के बहाने ‘पटाखा’ गंभीर बातें भी कहती है। ग्रामीण भारत की दशा, समाज में महिलाओं को लेकर सोच, उनके लिए तय मर्यादाएं, घटते लिंगानुपात की स्थिति में दुल्हन के लिए पैसे का मोलभाव, युवतियों के लिए शिक्षा का महत्व व आत्मनिर्भरता की आकांक्षा को विनोदी विवरण के साथ पर्दे पर उतारा गया है। इतने महीन काम की अपेक्षा विशाल से की जा सकती है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here