डॉ. प्रणव पराग
जिसका नाम लेते ही आनंद और उल्लास का, मौज और मस्ती का, रवानी और जवानी का, रंगीनी और अलमस्ती का संचार जनमानस में होने लगे उसका नाम है होली। प्रकृति के द्वारा माघ श्रीपंचमी को ऋतुराज वसंत के पास निमंत्रण एवं ऋतुराज के अपने आगमन की स्वीकृति के साथ ही जनमानस में आनंद की वांसुरी बजने लगी । शीर्णता एवं पुरातनता के स्थान पर नित नूतनता की स्थापना के मंगल पर्व का उत्सव-महोत्सव होली समय के साथ अपने रंग-रूप में बदलाव के साथ दृष्टिगोचर है।
वस्तुतः आधुनिक भावबोधों के कारण परंपरा और रीति-रिवाज में आए बदलाव से होली के रंग बदले है। होली के समय या यूँ कहें की वसंत-ऋतु के समय गाया जाने वाले ‘फाग’ ने भी कालान्तर में अपना राग बदला है। दो-तीन दशक पूर्व जहाँ गांवों में पारंपरिक होली गायन में सूरदास द्वारा रचित होली के पद गाये जाते थे वहीं आधुनिकता के प्रभाव में अब डीजे की धुन पर सस्ती लोकप्रियता वाले फूहड गीतों पर सुना झूमते-गाते नजर आते हैं।
वसंत पंचमी के दिन गाँवों में मंदिर के चबूतरों पर जुटान के साथ बड़े-बुजुर्ग ‘ताल-ठोकाई’ (होली गीतों के गायन की शुरुआत) के प्रारंभ होने वाला उमंगोत्सव चौत्र-कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तक निरंतर चलता था। एक क्रम में ग्रामीणों के दल बारी-बारी सबके द्वार पर होली-गायन की महफिल सजाते थे। साथ ही युवाओं के द्वारा ढोल, झांझ, मंजीरे के साथ विभिन्न टोलियों में ‘जोगीरा’ गायन की एक विशिष्ट शैली की अपनी मिठास थी। ‘जोगीरा’ गायन में दो-दलों के द्वारा तत्क्षण सवाल-जवाब आशु कविता रचने की अनूठी शैली की अद्भुत मिसाल थी
जोगीरा सारारारा कहकर एक दल क्या? कौन? कहा? किस? कैसे? आदि शब्दों से युक्त पंक्तियाँ प्रस्तुत करता था तो दूसरे दल द्वारा उसका जवाब देते ही समूह के सभी सदस्य समवेत स्वर में ‘होरी है’ ‘सा रा… रा… रा…,’ ‘हइया हइया हश्याऽऽऽ’ बोलकर खुशी से झूमते-उछलते थे।
‘‘पूर्व में जहाँ ‘‘ब्रज में हरि होरी होरी मचाई। खेलत फाग परस्पर हिल-मिल सोभा बरनी न जाई।।’’ जैसे पदों से होली गायन की महफिल शुरू होती थी। वहीं ‘‘सदा आनंद रहे एहि द्वारे मोहन खेले होरी हो…।’’ की मंगलकामना के साथ होली गायन सम्पन्न होता था। होली गायन में ‘घमार’ ‘पहपट’ (ग्रामीणों द्वारा रचे गए होली गीत जिसमें समकालीन घटनाओं के साथ व्यंग्य एवं हास्य का अद्भुत सम्मिश्रण होता था। ‘घमार’ मे आध्यात्मिकता का पुट भी अनूठा था-
‘‘बाचा हरिहरनाथ, सोनपुर में होली खेले।’’ वहीं ‘‘सिवसंकर खेलत फाग गौरा लिये।।’’… पर ढोलक की थाप पर झूमते दलों का अद्भुत दृश्य होता था।
होली के रंग का मनोहारी वर्णन कृष्ण-राधा के प्रसंगों से युक्त है-‘देखो री सखी फागुन आई।।’’… ‘ब्रजमंडलब फाग मचावे रसिया’’… जमुना तट श्याम खेले होरी… जैसी कई पारंपरिक रचनाओं में होली के विविध रंगों का चित्रण- वर्णन दृष्टिगोचर है।
होली के वर्णन में क्या सूर, क्या तुलसी, क्या निराला सब के सब मस्ती में सराबोर करते हैं। सूरदास ने जहां- ‘खेलन हरि निकसे ब्रज खोरी’, गोस्वामी तुलसीदास ने – ‘खेलत वसंत राजाधिराज’; तो निराला नै – नयनों के डोरे डाल, गुलाला मरे, खेली होली… जैसी रचनाओं से जनमानस को आप्यायित किया तो सुभद्राकुमारी चौहान ने ‘वीरों का कैसा हो वसंत’ जैसी रचना से वीर सपूतों के मन के उद्गार व्यक्त किए।
वस्तुतः प्रकृतिरानी वसंत के आगमन पर अब भी बन्दनवार सजाती है, आमों में बौर-मंजरियों की गंध की मादकता, महुए का महमहाना सबकुछ है, लेकिन विकास की आंधी और आधुनिकीकरण की हवा ने पारंपरिक रंग की सुंदरता, उल्लास-हर्ष की मनोहर छटा, आपसी प्रेम एवं सद्भाव की मिठास, निश्छल सहृदयता के स्वरूप में व्यापक बदलाव किए हैं। तीन-चार दशक पूर्व गाँव-गाँव में शहरीकरण का प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं था। लेकिन आज का गांव भूमण्डलीकरण के विविध आयामों से युक्त गांव है। बिजली, सड़क, यातायात के साधन के साथ-साथ भौतिक समृद्धि के उपकरणों ने गाँव के पारंपरिक स्वरूप को परिवर्तित किया है। साथ ही ग्रामीण जनमानस के आचार-व्यवहार को भी गहरे रूप से प्रभावित करने में आधुनिक भावबोधों एवं एकल परिवार की अवधारणा की महती भूमिका रही है।
होली की सामाजिक समरसता के रंग में जहां पहले धनी-निर्धन ऊँच-नीच, बालक-बृद्ध की बाधक दीवार आड़े नहीं आती थी, वहीं तुष्टिकरण की नीति के द्वारा आधुनिक समाज में तथाकथित नेताओं द्वारा जो मनमुटान के बीज बोए जाते है उससे गांवों में सौहार्द का पारंपरिक स्वरूप प्रभावित हुआ है। जहां तक ‘फाग’ एवं होली ‘गायन’ के राग-रंग में बदलाव का प्रश्न है, पीढ़ियों की खाई (जेनेरेशन गेप) इसका प्रमुख कारण बनी है।
ज्ञान-परंपरा की अजस्र धारा जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तरु प्रवाहमान होती थी, उसमें हुए अवरोध ने पारंपरिक संचरण को रोका है। पहले बड़े बुजुर्गों के पैताने या पास बैठकर सीखने-जानने की जो ललक थी वह आज के समय न्यून रूप में या यों कहें न के बराबर दिखाई पड़ती है। पहले गाँव के मंदिरों, चौपालों, चबूतरों आदि पर सामूहिक भागीदारी के द्वारा ज्ञान-गायन की परंपरा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक स्वतः पहुँच पाती थी। परंतु, समयमाल के बदलते परिवेश एवं आधुनिक साधनों-मोबाइल, सोशल मीडिया इंटरनेट आदि के व्यापक प्रयोग से परंपरा का बदलता रूप हमारे समक्ष प्रसुत हुआ है।
अब होली या काग के सुमधुर गीतों, ढोल-मंजीरे की मिठास झाल-झांझ की झनकार की जगह डीजे, कानफाडू कर्कश संगीत-गीत की धुनों पर विकृत रूप में प्रस्तुत करना युवाओं का शगल बन गया है। समृद्ध साहित्यिक-सांस्कृतिक समाज के बदलते रूप में आज की युवा पीढ़ी विचलित पथ का अनुसरण-अनुगमन ही अपना मॉडल मान बैठी है जो एक अपसंस्कृति का परिचायक है।
होलिकोत्सव केवल होलिका का दहन, प्रह्लाद की रक्षा या हिरण्यकश्यपु वध की स्मृति पर्व नहीं, वरन् नास्तिकता पर आस्तिकता का, बुराई पर भलाई का, पाप पर पुण्य का तथा दानवता पर देवत्व की विजय का प्रतीक है। द्वापर में कालिन्दी (यमुना) के कूल पर कान्हा और गोपियों की होली की बात छोड़ए, आज भी वृंदावन की कुंजगलियों में जब सुनहली पिचकारियों से जब रंग के फव्वारे छूटते हैं तो मनमोहक दृश्य उत्पन्न होता है। बरसाने की ‘लठमार होली’ विश्वप्रसिद्ध एवं अप्रतिम है।
होली गीत-गायन का मनोहारी दृश्य, जनमानस में अद्भुत उल्लास का संचरण, वसंतागमन पर नव-किसलय से पल्लवित पुष्पित बाग-बगीचे, खेत-बधार में सरसों की पीली रंगत, अरहर-अलसी की देहयष्टि पर पीले गुलाबी-नीले फूलों का मनमोहक सौंदर्य हमारे लोकगीतों की पारंपरिक-शैली में वर्णित चित्रित है। अपने प्रियतम से चुनरी को धानी रंग और उसमें गोटे लगाने के लिए प्रियतमा के उदगार हैं- कुसुम रंग चुनरी रंगा दऽ दियता हो।।
कालान्तर में पारंपरिक परिधानों की जगह आधुनिक फैशन वाले डिजाइन परिधानों से परिवेश में बदलाव और परिणामस्वरूप संस्कृति का परिवर्तित रूप हमारे समझ दृष्टिगोचर है। जन-जन के बीच के साहचर्य एवं आपसी सद्भाव की प्रगाढ़ता को मजबूती प्रदान कर सामाजिक समरसता स्थापित करनेवाली ‘फाग’ या ‘होली’ गायन की परंपरा सांस्कृतिक संक्रमण के दौर से गुजर रही है। आवश्यकता है- ‘फाग’ की मिठास और ‘होली’ के पारंपरिक रंग-उमंग को पुनः प्रतिष्ठापित करने की। इसी संकल्प से फिर से हम द्वारे-द्वारे उत्साह और मंगलकामना के साथ गा सकेंगे- ‘‘सदा आनंद रहे एही द्वारे मोहन खेले होरी हो।’’