पंचायती राज में उभरती ग्रामीण न्यायिक व्यवस्था

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भारत अपने साहचर्य एवं न्यायऔर त्याग के लिए विख्यात रहा है। न्याय ही यहाँ का आदर्श है। न्याय के लिए अनेक प्रकार की संस्थाओं का निर्माण भारत में प्राचीन काल से ही चला आ रहा है। ग्राम का मुखिया नेताध् ग्रामणी कहलाता थाअतः ग्रामवासियों के न्याय हेतु एक संस्था का निर्माण किया गयाजो ग्राम पंचायत कहलाई। ग्राम पंचायत ग्रामीण समाज के लिएकोई नवीन वस्तु नहीं अपितु देश की जान रही है।

“पंचायत हमारी राष्ट्रीय एकता और अखण्डता, सुदृढ़ता और सुव्यवस्था तथा हमारे मृत्युंजयी लोकतन्त्र का रक्षा कवच हे।“ किसी भी समुदाय, समाज या राष्ट्र की समृद्धि एवं उन्नमति संबंधितसंस्थाओं के उन अन्तर्तन्तुओं के प्रसार का प्रतिफलन होता हेजिनकी संदर्भीय समाज या समुदाय में पूर्णतः पैठ होती है। पंचायतएक सर्वमान्य संस्था के रूप में प्राचीन काल से ही भारतीय जनमानस में अधिष्ठित रही है।

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अतीत में भारत में पंचायतें तो थी, लेकिन वे लोकतान्त्रिक नहीं थीं। इनमें समाज के उच्च वर्ग का ही वर्चस्व था। लेकिन, समय के साथ-साथ उनके स्वरूप और कार्यक्षेत्र में परिवर्तन होता गया। ब्रिटिश काल के प्रारंभिक दौर में पंचायतों को बड़ा धक्का लगा, लेकिन उन्नीसवीं सदी के अंत से भारत को आजादी मिलने के बीच ब्रिटिश काल में पंचायतों के ऊपर कुछ ध्यान दिया गया। लार्ड रिपन का 1882 का प्रस्ताव, 1909 का रॉयल आयोग आदिविकेंद्रीकरण के क्षेत्र में इसके महत्वपूर्ण उदाहरण है। संविधान सभा के सदस्य पंचायतों को संविधान में रखनेपर एकमत नहीं थे। वह महात्मा गाँधी का प्रभाव या दबाव थाजिसके कारण पंचायतें संविधान का अंग बनी।

देश आजाद हुआ, संविधान बन गया। पंचायतें उसका अंग बनीं। विभिन्न राज्यों में राजनेतिक पार्टियाँ सत्ता में आईं। उन्होंने पंचायतें स्थापित करने व उन्हें सशक्त बनाने की बात की। विभिन्न राज्यों में पंचायतें तो बनीं, परन्तु उन पर राज्य का नियंत्रण कायम रहा। किसी भी प्रकार का कर लगाना हो या कोई कार्य करना होतो उन्हें सरकार से अनुमति लेनी होती थी और इसमें राज्य स्तर सेकोई सहयोग पंचायतों को नहीं मिला। अतरू जो कार्य पंचायतों कोसौंपा गया उन्हें वे पूरा नहीं कर पाए। कुल मिलाकर सत्ता का विकेंद्रीकरण की बात कागजों तक ही सीमित होकर रह गई।

पंचायती राज की चुनौतियाँ

ग्रामीण जनता के विकास के लिए केन्द्र, राज्य एवं स्थानीय सरकार द्वारा समय-समय पर विकास की योजनाओं कानिर्माण एवं क्रियान्वयन तो किया जाता है लेकिन पंचायती राजकी कार्यप्रणाली के क्रियान्वयन में चुनौतियों के कारण इनयोजनाओं का लाभ उन ग्रामीणों तक नहीं पहुँच पाता है, जोवास्तव में जरूरतमंद है, इन चुनौतियों के पीछे प्रशासकीयक्रियान्वयन अभिकरणों से संबंधित तंत्रों के कारण दिन-ब-दिनबढ़ती ही जा रही है। विकास की समस्याएँ इस प्रकार है –

1. योग्य प्रशासकों एवं विशेषज्ञों की चुनौती – हम सभीजानते हैं कि योग्य प्रशासकों एवं विशेषज्ञों के अभाव में नियोजनकार्य असफल हो जाता हे। पंचवर्षीय योजनाओं के समय मेंविशेषज्ञ व प्रशासक प्रशासन में आये लेकिन जो स्थान उन्हेंमिलना चाहिए वह स्थान उन्हें नहीं मिल पाया। अतः वे अपने आपको निराश व हताश अनुभव करते हैं एवं साथ-साथ उनकाकार्य करने का मनोबल निरन्तर गिरता जाता है तथा वे कार्यस्थल को छोड़कर अन्यत्र स्थानों में कार्य शुरू कर देते हैं। यदि संयोग से कोई दक्ष प्रशासक या विशेषज्ञ अपनी ईमानदारी, लगन, परिश्रम के साथ विकासात्मक कार्य करने का प्रयास भी करता है तो उसमें राजनीतिक एवं हाई कमान के दबावों से दबाव में आकर वह विकासात्मक कार्य चाह कर भी नहीं कर सकता। जिससेदिन-ब-दिन प्रशासकों एवं विशेषज्ञों का अभाव बढ़ता ही जारहा है।

2. सही व विश्वसनीय तथ्यों की कमी रू बिना तथ्यों एवंआंकडे के न कोई योजना बन सकती ओर न ही कोई वास्तविककल्पना की जा सकती क्योंककि प्रशासन के पास आंकडों कानिराभाव है। आंकडे तो सभी विषयों में मिल जाते हें परन्तु वे सहीव विश्वसनीय नहीं प्राप्त होते हैं। उदाहरणार्थ-विधवा पेंशनयोजना अथवा ग्रामीण आवास योजना। जब तक प्रशासन को सहीव विश्वसनीय तथ्यों के आंकडे नहीं प्राप्त होंगे तब तक ग्रामीणविकास के विकासात्मक कार्यों की योजना बनाना एवं उनकेक्रियान्वयन व वास्तविक परिणामों की कल्पना करना व्यर्थ होगा।

3. अधिकारियों व पदाधिकारियों के बीच संबंधों कीचुनौती रू जहाँ नीति निर्माण होता है तथा समन्वयन किया जाता हैजिले के विकास कार्यक्रमों में ब्रेक का कार्य करता हे, जिससेविकास कार्य शिथिल पड़ जाते हैं। विकास की योजनाओं केनिर्माण का कार्य एवं क्रियान्वयन में कठिनाइयाँ आती है एवंविकास यथोचित नहीं हो पाता है। वास्तव में यह प्रत्यक्षअवलोकन से स्पष्ट हुआ कि संबंधों के अभाव के कारणविभागीय तनाव, मनमुटाव, ईर्ष्या की भावना का विकास होता हे, जिससे आपसी सहयोग व समन्वयन का अभाव दिन-ब-दिनबढ़ता ही जाता है।

4. विकासात्मक योजनाओं के क्रियान्वयन मेंअनियमितता रू पंचायती राज एवं जिला नियोजन परिषदों मेंअधिकांश राशि योजनाकारों की जेब में चली जाती हे एवं शेषबची हुई राशि प्रशासकीय अधिकारियों एवं राजनेतिकपदाधिकारियों की जेबों में चली जाती है और बची हुई राशि कोविकासात्मक कार्यों में लगाया जाता हे, जो लगभग 15 प्रतिशत हीहोती है। इस बची राशि के आधार पर विकास की योजना एवंकार्यक्रम बनाये जाते हैं, और राशि आधे कार्यक्रम में समाप्त होजाती हे।

5. लालफीताशाही का बढ़ता प्रभाव रू लालफीताशाही केप्रभाव के वृद्धि के कारण विकासात्मक कार्यों को पूरा करने मेंअनावश्यक विलंब होता है। कभी-कभी विकासात्मक योजनाओंकी फाइलें महीनों तक प्रलंबित पड़ी रह जाती है, जिससे आमआदमी विकास के फलों से वंचित रह जाता है। उदाहरण- भवननिर्माण कार्य, रोड निर्माण आदि हेतु प्रस्तुत पत्र यदि जिला परिषद्या महानगरपालिका में भेजा जाता है, तो वह महीनों तक प्रलंबितपड़ी रह जाती है। इतना ही नहीं प्रलंबित कार्य के लिए बार-बारचक्कर लगाने पड़ते हैं, जिसके कारण घूसखोरी, भ्रष्टाचार को बढावा मिलता है।

6. जन सहभाग की कमी रू पंचायती राज प्रणाली द्वाराकार्यान्वित होने वाली योजनाओं को पूर्णरूपेण क्रियान्वयन वअनुपालन के लिए जन सहयोग की आवश्यकता होती हे। चाहे वेग्राम पंचायत की योजना हो जिला परिषद् की। राज्य व केन्द्र सरकार द्वारा प्रस्तावित योजना को पंचायती राज व्यवस्था सेसंबंधित अधिकारियों के माध्यम से पूर्ण तो किया जाता है। लेकिनइन योजनाओं के क्रियान्वयन में जनसहयोग के अभाव के कारणयोजनाओं के सफल क्रियान्वयन में अनेक समस्याओं का सामनाकरना पड़ता है। पंचवर्षीय योजनाएँ एवं वार्षिक योजनाएँ जनसहयोग के बिना सफल नहीं हो सकती।

7. योजना के क्रियान्वयन में ढीलापन – किसी भी क्षेत्र केविकास के लिए विकासात्मक योजनाओं के निर्माण से कार्य खत्मनहीं हो जाता। किसी योजना का वास्तविक अर्थ व महत्व उसकेसफल क्रियान्वयन से होता है। केन्द्र, राज्य एवं स्थानीय सरकारद्वारा विकासात्मक योजनाएँ तो ढेर सारी लंबी-चौड़ी बनाई जातीहैं। कार्य अर्थात् उन योजनाओं का क्रियान्वयन कार्य आरंभ हीनहीं होता, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में आवश्यक कार्यक्रमों वयोजनाओं के क्रियान्वयन के ढीलेपन के कारण उस क्षेत्र काविकास केवल कल्पनात्मक रह जाता है।

8. योजनाओं के क्रियान्वयन में स्पाइल पद्धति (ैचवपस डमजीवक)ध् व्यक्तिवाद – किसी भी स्थानीय योजना का निर्माणएवं उसका क्रियान्वयन व्यक्तिगत हितों, स्वार्थों के मद्देनजर रखतेहुए किया जाता है। स्थानीय विकास अर्थात् जिला नियोजन केलिए योजनाओं का निर्माण एवं क्रियान्वयन में व्यक्तिगत स्वार्थ केसाथ-साथ अधिकारियों का पूर्वाग्रह, संसाधनों का दुरुपयोग, भाई-भतीजावाद इत्यादि गंभीर समस्याएँ हैं, जिससे जिले कानियोजन समुचित ढंग से नहीं हो पाता और न ही उसकाक्रियान्वयन।

9. प्रशासनिक मशीनरी में जनतंत्रीकरण का अभाव रूजिला योजनाओं के निर्माण एवं क्रियान्वयन करने वालीप्रशासनिक मशीनरी में जनतंत्रीकरण का अभाव हे, जिसकेपरिणामस्वरूप प्रशासनिक मशीनरी अपने लक्ष्यों को प्राप्त करनेमें सफल रही है।

10. जनसंवाद का अभाव – जनसंवाद के अभाव के कारण ग्रामीण विकास की योजनाओं को शासन ग्रामीण जनता तक पहुँचाने में असफल रही हे, जिससे ग्रामीण जनता को योजनाओं का सही ढंग से पता ही नहीं लगता और वे योजनाएँ बनकर क्रियान्वित कर दीजाती हे तथा ग्रामीण गरीब, अशिक्षित व असहाय जनता योजनाके आने के इंतजार में अपना सारा समय व्यर्थ में बर्वाद कर देती हैएवं वे योजनाओं के लाभ से वंचित रह जाते हैं।

11. आर्थिक संसाधन का अभाव – ग्राम पंचायत हो याजिला परिषद् उनके पास धन की समस्या शुरू से ही रही है। इनसंस्थाओं को स्वतंत्र आर्थिक स्त्रोत या तो दिये नहीं गये या फिर जोभी दिए गये, वे अर्थ शून्य हैं। परिणामतरू शासकीय अनुदानों परही जीवित रहना पड़ता है।

12. दलगत राजनीति के दुष्परिणाम रू इस समस्या केविषय में विभागीय आयुक्त का व्यक्तिगत मत है कि जिलानियोजन हो या पंचायती राज व्यवस्था हो, उसके सफल के मार्गमें सबसे बड़ी बाधा दलगत राजनीति है। जो धीरे-धीरे राजनीतिका अखाड़ा बनती जा रही हे। जिला नियोजन परिषद हो यास्थानीय कोई भी निकाय जैसे पंचायतें। इनमें छोटी-छोटी बातों कोलेकर झगड़े हुआ करते हैं, दल बंदी होती है और बहुत सा समयझगड़ों में चला जाता हे।

चुनौतियों का समाधान

1. अधिकारियों एवं आम जनता को योजनाओं के सफलक्रियान्वयन में सहयोग देना चाहिए, ताकि ग्रामीण विकास के लिएप्रशासन का सहयोग मिल सके।
2. विकासात्मक कार्यों को करनेके लिए प्रशासकों एवं विशेषज्ञों को स्वतंत्रता होने से वे अपनेअनुभवों एवं कार्यकुशलता के आधार पर कार्य कर सकेंगे।
3. संबंधित समस्या के वास्तविक आंकडे व तथ्य प्रशासन कोप्राप्त कराने में संबंधित व्यक्ति को सहयोग प्रदान करना चाहिए।
4. अधिकारियों एवं कर्मचारियों को प्रस्तावित फाइलों कीयथोचित कार्यवाही के साथ एक निश्चित अवधि के अंदर पूर्णकरना चाहिए।
5. राजनीतिक दल व हाई कमानों का नियंत्रणसमय-समय पर होना चाहिए ताकि उनका मनोबल, लगन एवंइमानदारी से कार्य करते रहें, इससे भ्रष्टाचार को बढावा नहींमिलेगा। यह बात किसी से छपी नहीं है कि ज्यादा नियंत्रण हीभ्रष्टाचार का दूसरा नाम है।
6. विकास कार्यों का नियोजन, क्रियान्वयन एवं उसका मूल्यांकन समय-समय पर किया जानाचाहिए, जिससे पिछडे हुए क्षेत्रों का विकास तीव्र गति से होसकेगा।
7. व्यक्तिगत हितों को ध्यान रखकर योजनाएँ नहीं बनानीचाहिए बल्कि जनहित को ध्यान रखकर योजनाओं का निर्माण वक्रियान्वयन करना चाहिए।
8. आय के पर्याप्त एवं स्वतंत्र स्नोतपंचायती राज संस्थाओं को दिये जाने चाहिए, ताकि उनकीआर्थिक स्थिति सुदृढ़ बन सके।
9. जिला स्तर के योजनाकार क्षेत्रोंमें जाकर ग्रामीण वास्तविकताओं को जानने के लिए अपने समयका उचित अंश गाँव में गुजारें। यह न केवल आयोजन को कम गूढ़व अधिक अर्थवान बनाएगा बल्कि अधिक अच्छे क्रियान्वयन कीसंभावना होगी।

निष्कर्षतः यह कहना आवश्यक हो गया है कि शासन एवंजनता को अपनी जिम्मेदारियों एवं जबावदारियों को सक्रियता सेनिभाने का प्रयास करें। अब तक जनता व शासन अपनी सक्रियभूमिका का निर्वहन नहीं करेगा तब तक गाँधी जी के सपनों कोसाकार करने की कल्पना अधूरी रहेगी अतरू आवश्यक है कि जनता और शासन अपनी भूमिका को समझे।

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