मानव शरीर पर प्राकृतिक तत्वों का प्रभाव पड़ता है। मिट्टी, हवा, जल, ताप, पौधे, सूर्य, चांद से हमारा शरीर हर क्षण प्रभावित होता है, भले इसका एहसास हमें न होता हो। हमारी जीवनशैली में एकादशी के दिन उपवास रखने की परंपरा है। इस दिन उपवास क्यों जरूरी है? आइए इसको समझते हैं।
हम सब जानते हैं कि अमावस्या व पूर्णिमा के दिन चांद के गुरुत्वाकर्षण के कारण समुद्र का जल चांद की ओर उठता है, जिसे ज्वारभाटा (टाइड) कहते हैं। पृथ्वी के करीब 70 प्रतिशत हिस्से में जल है। इसी तरह मानव शरीर में भी 70 प्रतिशत जल होता है। चांद का गुरुत्वाकर्षण जिस प्रकार पृथ्वी के जल को अपनी ओर खींचता है, वैसे ही मानव शरीर के जल को भी अपनी ओर खींचता है। वैज्ञानिक इसे बायोलॉजिकल टाइड कहते हैं। फ्लोरिडा के मनोरोग विशेषज्ञ डा. अर्नल्ड लाइबर की पुस्तक ‘हाउ दी मून अफेक्ट्स यू’ (1996) में इसका विस्तार से जिक्र है।
अब एकादशी का वैज्ञानिक महत्व। हर पखवाड़े की सप्तमी तिथि से चांद का गुरुत्वाकर्षण प्रभाव बढ़ने लगता है, जो अमावस्या/पूर्णिमा आते—आते अधिकतम हो जाता है। सातवीं तिथि (सप्तमी) से पंद्रहवीं तिथि (अमावस्या/पूर्णिमा) के बीच में ग्यारहवीं तिथि यानी की एकादशी पड़ता है। इस दिन जल के प्रमुखता वाले आहार का त्याग करने से सप्तमी से दशमी तक जो चांद का प्रभाव शरीर पर पड़ा, उसे कम किया जाता है। इतना ही नहीं एकादशी के दिन शरीर में जल तत्व का नियंत्रण कर लेने से अगले तीन—चार दिन यानी अमावस्या/पूर्णिमा तक शरीर चांद के प्रभाव से मुक्त रहता है। हम सब जानते हैं कि जल की अधिकता से शरीर में त्वचा रोग, अस्थमा, सिरदर्द, रक्त संचार में समस्या आदि जैसी बीमारियां होती हैं। इसीलिए हमारे पुर्वजों ने शरीर में जलतत्व को नियांत्रित करने के लिए एकादशी के दिन उपवास की व्यवस्था की। पुनश्च: एकादशी के दिन चावल खाने से इसलिए मना किया जाता है, क्योंकि चावल में जल की अधिकता होती है।
(प्रशांत रंजन)