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धीरज व समझ मांगती है ‘७२ हूरें’

प्रशांत रंजन
फिल्म अध्येता

सिनेमा अपने आरंभिक दिनों से ही मानवीय, सामाजिक, रानीतिक विचारों का संवाहक रहा है। डेविड ग्रिफिथ की ’बर्थ ऑफ़ ए नेशन’ (1915) से विचारों का फिल्मांकन जो शुरू हुआ, उसने आगे चलकर जर्मन अभिव्यक्तिवाद, इतालवी नवयथार्थवाद, फ्रेंच न्यू वेव, थर्ड सिनेमा आदि सिनेमा आंदोलनों का मार्ग प्रशस्त किया। इनमें से सौ वर्ष पूर्व शुरू हुए जर्मन अभिव्यक्तिवाद की चर्चा करना प्रासंगिक होगा, क्योंकि हाल में रिलीज हुई संजय पूरन सिंह चौहान निर्देशित फिल्म ’72 हूरें’ की बुनावट उसी सांचे में प्रतीत होती है।

इस अंतरसंबंध की चर्चा करना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि राष्ट्रवाद के उत्साही दर्शक जो सिनेमाई सम्मोहन से परे जाकर स्वयं को राष्ट्रभक्त सिद्ध करने के लिए ’दि कश्मीर फाइल्स’ का रसास्वादन किया था और थोड़ा-बहुत ’दि केरल स्टोरी’ को भी, उन दर्शकों को ’72 हूरें’ देखते समय निराशा हुई होगी। इसका कारण है कि ’दि कश्मीर फाइल्स’ व ’दि केरल स्टोरी’ जहां स्थूल भाव से कथ्य प्रस्तुत करती हैं और पात्रों को केंद्र में रखकर नाटकीयता से घटनाओं को परोसती हैं इसलिए उसमें आनंदित करने वाला रस है, वहीं ’बहत्तर हूरें’ सूक्ष्म रूप से एक विचार को रेखांकित कर विमर्श की ओर ले जाती है। इसलिए धीमी गति की पटकथा या एकरसता से भरी दृश्यांकन वाली शर्तें इस पर लागू नहीं होतीं।

इसकी कहानी इतनी भर है कि दो मानव बम हाकिम (पवन मल्होत्रा) व बिलाल (आमिर बशिर) मुंबई स्थित गेटवे ऑफ़ इंडिया के पास बस विस्फोट करते हैं और मौत के बाद उन दोनों की आत्मा आसपास भटकती है। उन्हें इस बात की प्रतीक्षा है कि मौत के पूर्व मौलाना सादिक (राशीद नाज़) ने 72 हूरें मिलने की बात बतायी थी, वह कब पूरी होगी। इसी उधेड़बुन, छटपटाहट और फिर पश्चाताप की उनकी यात्रा को दिखाती हुई यह फिल्म संपन्न होती है।

आजकल घटनाप्रधान व द्रुतगति वाली पटकथाओं के दौर में ’72 हूरें’ आपसे अपेक्षाकृत रूप से धैर्य की मांग करती है और साथ ही सिनेमाई समझ की भी। न कोई तेजी, न भागदौड़, न नाटकीय टकराव। धीमी चाल में चलती पटकथा फ्लैशबैकों के माध्यम से परतें खोलती है। इससे फिल्म के दौरान उत्सुकता बची रहती है। अगर यह नहीं होता, तो यह फिल्म मृत मत्स्य की भांति उपलाती हुई लगती। 80 मिनट की यात्रा फिल्म इसी उत्सुकता के सहारे पूर्ण करती है। ऊपर कहा गया कि यह फिल्म धैर्य के साथ सिनेमाई समझ की भी मांग करती है, क्योंकि ’72 हूरें’ का व्याकरण बौद्धिक है, जो संवाद के अलावा सांकेतिकी (सिमियोटिक्स) में भी बातें कहती है। इसके कुछ उदाहरण आगे के पैराग्राफों में दिए गए हैं।

जर्मन अभिव्यक्तिवाद के दौर की फिल्मों में जिस प्रकार सर्रीअल् (surreal) दृश्य होते थे, कुछ-कुछ वैसा ही एहसास ’72 हूरें’ देखते समय होता है। हालांकि, जर्मन अभिव्यक्तिवाद की भांति इस फिल्म के किरदार, परिधान, स्थान आदि विचित्र नहीं है। फिर भी दृश्यों का मिजाज यथार्थ से परे जैसा है। जैसे दोनों आतंकी हाकिम व बिलाल जिस सड़कों, मैदानों, इमारतों के पास विचरण करते हैं, वह असल जीवन से अलग दिखता है। कहीं कोरा सूनापन, कहीं सूईपटक सन्नाटा, उस सन्नाटे में तख्तियां लिए पैदल मार्च करती बुर्काधारी स्त्रियां, कहीं हवाओं की अजीब सरसराहट इत्यादि आपको एक भिन्न संसार से परिचय कराती हैं। शायद मरणोपरांत किसी जीवात्मा के लिए यह संसार वैसा ही प्रतीत होगा, जैसा कि हाकिम व बिलाल को हो रहा था। ये भाव तो उनके स्वप्न वाले दृश्य में भौतिक रूपेण दिखता भी है, जब श्वेत-श्याम फिल्म के मध्य कुछ मिनटों के लिए अतिरंगीन दृश्य आ धमकते हैं। श्वेत-श्याम से याद आया कि लगभग पूरी फिल्म को श्वेत-श्याम में प्रस्तुत किया गया है, क्योंकि यह जीवन के स्याह पक्ष के बारे में है, जहां रंगों के लिए कोई जगह नहीं बची है। हां, बीच-बीच में कुछ सेकेंडों के लिए रंग दिखते हैं। जैसे विस्फोट के बाद एक कटा पैर, आंखों में दहकता अंगारा, भौंकते कुत्तों की आंखें और फिर एक स्वप्न वाला दृश्य तो है ही। कुछ विशेष दृश्यों की प्रभावोत्पादकता को संघनित करने के लिए ऐसा प्रयोग किया गया है। विशेषकर विस्फोट वाले दृश्य का आरंभ अत्यंत प्रभावी है। यह फिल्म निर्देशन के प्रशिक्षुओं को देखना चाहिए।

संजय पूरन सिंह चौहान ने दार्शनिक शैली में एक विमर्श का चित्रण करने का प्रयास किया है। वह यह कि इस्लामिक आतंकियों को जिहाद के दौरान मिली मौत के बाद जिन 72 हूरों के मिलने का वास्ता दिया जाता है, क्या वे सच में मिलती हैं? अथवा हाकिम व बिलाल की भांति उन्हें भी पछताना पड़ता है। दर्दनाक मौत के बाद न कफन नसीब होती है और न ही दफन। उनकी आत्मा भटकती रहती है, पीड़ा व पश्चाताप में। दरअसल, फिल्मकार के पास फिलाॅसोफिकल स्टाइल के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं था, क्योंकि मरने के बाद आत्माओं के साथ क्या होता है, यह किसी ने देखा नहीं है और न ही इसका सटीक आकलन कर पाना संभव हैं।

फिल्म को नैरेटिव के आधार पर संतुलित करने की चेष्टा भी है। जैसे मुसलिम पीड़िता को प्रमुखता से दिखाना, बुर्के में बस सवार को हृदय विदारक दृश्य देखकर वमन होना। दोनों आंतकी मौत के बाद भटकते हुए अपने कृत्य पर आरंभिक गर्व के बाद ग्लानि व पछतावे से भरने लगते हैं। क्या उनकी ग्लानि सहानुभूति बटोरने के लिए है? क्या ऐसे दृश्य की रचना संयोग है? दर्शकों के मन में प्रश्न तैरते हैं। लेकिन, चौहान की इस बात के लिए प्रशंसा होनी चाहिए कि असल जीवन में 72 हूरों की मरीचिका का जो सम्मोहन परोसा जाता है, उसे सिनेमाई अस्त्र से ध्वस्त करने का प्रयास किया है। साथ ही ‘भटकाव’ वाले तकरीर पर भी एक तंज किया है।

चौहान साहब भूत में ’लाहौर’ जैसी प्रशंसित फिल्म निर्देशित कर चुके हैं और ’83’ जैसी बड़े बजट की फिल्म की कथा-पटकथा लिख चुके हैं। इसलिए उनके वैविध्य पर संदेह नहीं होनी चाहिए। दिवंगत अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत के साथ वे ’चंदा मामा दूर के’ बनाने वाले थे और अक्षय कुमार को लेकर ’गुरखा’ भी। लेकिन, कई कारणों से दोनों फिल्में आकार नहीं ले पाईं। उम्मीद की जानी चाहिए कि निकट भविष्य में चौहान के पिटारे कुछ शानदार फिल्में देखने को मिलेंगी।