पटना : बिहार की जनता ने उपचुनाव में परिवारवाद को काफी हद तक नकार दिया। अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में परिवारवाद के सहारे पॉलिटिकल कैरियर के सपने संजोने वालों की भी नींद उड़ गई है। समस्तीपुर लोकसभा सीट इस मामले में अपवाद रही। मगर वहां परिस्थितियां थोड़ी भिन्न थी। वहां सहानुभूति की लहर ने जीत में मुख्य भूमिका निभाई। साफ है कि परिवारवाद को लेकर लगातार सवाल उठने के बावजूद राजनीतिक दल इस परंपरा को आगे बढ़ाते रहे। इसबार के उपचुनावों में भी कांग्रेस, जदयू, लोजपा और भाजपा ने जनप्रतिनिधियों के परिजनों पर ही भरोसा जताया। लेकिन लोगों ने अपने निर्णय से पार्टियों को इसपर गंभीर मंथन का टास्क जरूर दे दिया है।
किशनगंज में नेताओं की मां और बेटी पराजित
बात किशनगंज से शुरू करते हैं। यहां कांग्रेस ने अपने लोकसभा सदस्य मोहम्मद जावेद की मां सईदा बानो पर दांव लगाया। लेकिन उपचुनाव के नतीजों में सईदा यहां तीसरे स्थान पर रही। जबकि यह सीट जावेद के सांसद चुने जाने के बाद ही रिक्त हुई थी। इसी सीट पर भाजपा ने पूर्व विधायक सिकंदर सिंह की पत्नी स्वीटी सिंह को उतारा था। उन्हें भी हार का सामना करना पड़ा।
बांका में भाई तो दरौंदा में पति की पिट गई
बांका लोकसभा सीट से जदयू के गिरधारी यादव विधायक थे। उनके सांसद बनने से रिक्त हुई बेलहर विधानसभा सीट से जदयू ने उनके भाई लालधारी यादव को उतारा था। मगर राजद के रामदेव यादव के हाथों उन्हें करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा। सिवान की दरौंदा सीट कविता सिंह के सांसद बन जाने से खाली हुई थी। जदयू ने यहां कविता के पति अजय सिंह को प्रत्याशी बनाया लेकिन निर्दलीय व्यास सिंह ने उन्हें हरा दिया। उधर, समस्तीपुर लोकसभा सीट केंद्रीय रामविलास पासवान के भाई और लोजपा सांसद रामचंद्र पासवान के निधन से रिक्त हुई थी। लोजपा ने उनके पुत्र प्रिंस पासवान को उतारा था। प्रिंस जीत तो गए मगर पिता की जीत के अंतर तक नहीं पहुंच पाए।