…तो क्या अपने कारणों से ही गर्त में जा सकती है भाजपा!

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नेतृत्वहीनता से शुरू होकर तपे-तपाए कार्यकर्ता की अनदेखी, जिससे शुरू हुई बगावत और मजबूत कैडर होते हुए भी जदयू के सामने सरेंडर तथा लोजपा का खुलकर विरोध करना, जो कि आत्मघाती गोल साबित हो रहा, इसके साथ-साथ प्रदेश भाजपा के कुछ दिग्गजों का केंद्रीय नेतृत्व से समन्वय का अभाव और बिहारी पर बाहरी भारी होने के कारण बिहार भाजपा इस वक्त काफी मुश्किलों का सामना कर रही है

बिहार विधानभा चुनाव में भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच की एक बात की चर्चा तेज है कि “कोई बुरा प्रत्याशी केवल इसलिए आपका मत पाने का दावा नहीं कर सकता कि वह किसी अच्छे दल की ओर से खड़ा है। दल के ‘हाईकमान’ ने ऐसे व्यक्ति को टिकट देते समय पक्षपात किया होगा। अतः ऐसी गलती को सुधारना मतदाता का कर्तव्य है।”

उक्त बातें आज कल भाजपा कार्यकर्त्ता के जुबान पर उबाल मार रहा है और कह रहे होते हैं कि पार्टी हाईकमान ने सही निर्णय नहीं लिया और सही उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया है तो उसे ठीक करने का काम कार्यकर्ता का है। परन्तु हम आज भी भाजपा के कार्यकर्ता हैं और कल भी रहेंगे। बस हमलोग वही कर रहे हैं जो हमारे पूर्वज कह गए हैं।

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आखिर ऐसा क्यों हुआ कि चुनाव के सुगबुगाहट से पहले तक बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर एक स्पष्ट आकृति उभरने लगी थी। लेकिन, सभी गठबंधनों के उम्मीदवारों की सूची आने के बाद बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम को लेकर गहरी धुंध छाने लगी है। गठबंधन धर्म निभाने के कारण पार्टी में हर दिन कोई न कोई कार्यकर्ता बागी होता जा रहा है और संगठन की शक्ति कमजोर होती जा रही है। और ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि,

• नेतृत्वहीनता

विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी अभी तक राजनीतिक रूप से सबसे सजग व संवेदनशील प्रदेश में एक चेहरा नहीं तैयार कर पाई है, जो कि प्रदेश में पार्टी का नेतृव बगैर पक्षपात के कर सके। 2015 के चुनाव में भाजपा बिहार में NDA का नेतृत्व कर रही थी। लेकिन, मोदी के भरोसे। ऐसे में जब लालू यादव ने लगातार निशाना साधना शुरू किया तो यह खबरें चलने लगी कि भाजपा रोहतास निवासी व झारखंड के संगठन महामंत्री राजेन्द्र सिंह को सीएम बनायेगी।

ऐसे में जब लालू यादव ने लगातार निशाना साधना शुरू किया तो, विपक्षी द्वारा ही बिहार में खट्टर मॉडल की बात कही जाने लगी और महागठबंधन के ही नेताओं द्वारा झारखंड के संगठन महामंत्री रहे राजेन्द्र को भाजपा की तरफ से मुख्यमंत्री का दावेदार बताया जाने लगा और राजेन्द्र सिंह का नाम लेकर पिछड़ा गोलबंदी के लिए उपयोग किया गया। इस स्थिति का जवाब भाजपा नहीं दे सकी, जिसका खामियाजा भाजपा को भुगतना पड़ा। हालांकि, बिहार में पार्टी अभी तक नेतृत्व हीन ही है। जबकि, सच्चाई यह है कि संघ और भाजपा के पास राजेन्द्र सिंह जैसे कई स्वयंसेवक और कार्यकर्ता हैं।

बहरहाल, 2015 में इस स्थिति को लेकर कहा गया कि चुनाव हारने के बाद भाजपा को एक चेहरा तैयार करना चाहिए था। क्योंकि, चुनाव के बाद यह बातें स्पष्ट हो गई थी कि भाजपा बिहार चुनाव इसलिए हार गई क्योंकि उसके पास कोई सर्वमान्य चेहरा नहीं था मतलब नेतृत्वकर्ता नहीं था। इसके बाद भाजपा दो साल विपक्ष में रही, परंतु चेहरा निर्माण नहीं कर सकी। जिसका खामियाजा पार्टी इस चुनाव में कुछ ज्यादा भुगत रही है। इसलिए पार्टी के कैडर कार्यकर्त्ता पार्टी की नहीं, अंतरात्मा की आवाज सुन रहे हैं।

• तपे-तपाए कार्यकर्ता की अनदेखी, जिससे शुरू हुई बगावत

दरअसल, गर्त में जाने का अहम कारण तपे-तपाये कार्यकर्ता की अनदेखी और शुरू हुई बगावत। क्योंकि, संगठन के आधार पर राजनीति करने वाली पार्टी इस चुनाव में संगठन को नजरअंदाज कर दी है। तपे-तपाए कार्यकर्ता की अनदेखी की सूची लंबी है, इसमें पहला और सबसे बड़ा नाम आता है पूर्व प्रचारक, 2015 में भाजपा के मुख्यमंत्री पद के दावेदार व संगठन महामंत्री राजेंद्र सिंह।

राजेंद्र सिंह द्वारा बगावत की शुरुआत होने के बाद भाजपा से सिम्बल से वंचित मजबूत दावेदार को एक संकेत मिलता है, इसके बाद अब तक एक-एक करके करीब दर्जन भर से अधिक नेता लोजपा में शामिल हो चुके हैं। इस कड़ी में नाम आता है- दिनारा से राजेन्द्र सिंह, सासाराम से रामेश्वर चौरसिया, पालीगंज से डॉ उषा विद्यार्थी, झाझा से रविन्द्र यादव, सन्देश से श्वेता सिंह, जहानाबाद से इंदु देवी कश्यप, अमरपुर से मृणाल शेखर, महराजगंज से डॉ. देव रंजन सिंह, कदवां (कटिहार) से चंद्र भूषण ठाकुर, घोषी से राकेश कुमार सिंह, रघुनाथपुर से मनोज कुमार सिंह, जीरादेई से विनोद तिवारी, गौड़ाबौराम से राजीव कुमार ठाकुर, दरभंगा ग्रामीण से प्रदीप कुमार ठाकुर, बनियापुर से तारकेश्वर सिंह, एकमा से कामेश्वर सिंह मुन्ना, सुगौली से विजय प्रसाद गुप्ता, रानीगंज से परमानंद ऋषिदेव, अररिया से चंद्रशेखर सिंह बबन, मधेपुरा से साकार सुरेश यादव और बरारी से विभाषचंद्र चैधरी, रक्सौल से डॉ अजय कुमार सिंह, कस्बा से प्रदीप दास, बगहा से राघव शरण पांडे, बरारी से विभाष चंद्र चौधरी तथा विश्वमोहन कुमा, पूर्व सांसद सुपौल का।

पार्टी के जानकारों द्वारा कहा जा रहा है कि जदयू अध्यक्ष नीतीश कुमार के दवाब में प्रदेश भाजपा को ऐसे निर्णय लेने पड़े। जो भी नेता बागी हुए हैं उनका खुद का बड़ा जनाधार है वे किसी के चेहरे पर निर्भर नहीं रहने वाले नेता हैं। बल्कि वे किसी को चेहरा बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

लेकिन, इनके बागी होने के बाद जो कार्यकर्त्ता पार्टी के फैसले से विमुख हुए हैं उनके लिए एक विकल्प मिला है। क्योंकि, लोग एक ही चेहरे को देखकर और मौका देकर देख चुके हैं। लोगों को अब कुछ नया चाहिए, सड़क, बिजली पानी से ऊपर उठकर अब बिहार की जनता कुछ नया चाहती है। इसलिए लोग प्रदेश नेतृत्व द्वारा तय चेहरे से अलग हटकर उनके लिए लड़ने वाले लोगों को चुन सकते हैं और इस बगावत का भारी नुकसान पार्टी को उठाना पड़ सकता है।

• मजबूत कैडर होते हुए भी जदयू के सामने सरेंडर

झारखण्ड के अलग होने के बावजूद बिहार में भाजपा के वोट शेयर में रिकॉर्ड बढ़ोतरी हुई है। फरवरी, 2005 में भाजपा का वोट शेयर 10.97 फीसदी से बढ़कर 2015 में 24.42 फीसदी पर पहुंच गया। इसका मुख्य कारण है 2005 से लेकर 2015 तक भाजपा जितने सीटों पर चुनाव लड़ी उसकी संख्या निरंतर गई। यह संख्या 102 से बढ़कर 2015 में 157 हो गई थी और उसका वोट प्रतिशत भी 10.97 फीसदी से बढ़कर 24.42 फीसदी हो गया।

वहीं, भाजपा पिछले 2 लोकसभा चुनाव में बिहार में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है। इसके बावजूद पार्टी एक बार फिर नीतीश कुमार की पार्टी जदयू से कम सीटों पर चुनाव लड़ रही है। इस लिहाज से मजबूत कैडर होते हुए भी पार्टी जदयू के सामने सरेंडर हो जा रही है।

• लोजपा का खुलकर विरोध करना, आत्मघाती गोल

रामविलास के मृत्यु के बाद दलितों में कोई विभाजन नहीं हुआ है। लेकिन, बिहार भाजपा के कुछ नेता गठबंधन धर्म और कथित नीतीश प्रेम के कारण चिराग पर हमलावर हैं। इस कारण दलित वोटरों का भाजपा से मोहभंग हो सकता है और भाजपा उम्मीदवारों को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। क्योंकि, जैसे नीतीश के सीट पर दलित लोजपा के साथ हैं। यदि भाजपा ने चिराग को टारगेट किया तो अधिकांश दलित वोट महागठबंधन में चला जायेगा। क्योंकि, भाजपा के सीट पर लोजपा चुनाव नहीं लड़ रही है। ऐसे में लोजपा पर खुलकर विरोध करना भाजपा के लिए आत्मघाती गोल साबित हो सकता है।

• प्रदेश भाजपा के कुछ दिग्गजों का केंद्रीय नेतृत्व से समन्वय का अभाव

ऐसा इसलिए कहा जा रहा है कि क्योंकि, सूत्रों के मुताबिक़ प्रदेश कोर कमिटी के अनुभवी सदस्य डॉक्टर सी.पी.ठाकुर, अश्विनी चौबे, रविशंकर प्रसाद, गिरिराज सिंह, आर के सिंह आदि को टिकट वितरण एवं सीटों के बंटवारे से अलग रखा गया, जिससे केंद्र के शिखर नेतृत्व भी अंधकार में रहे, जिसके कारण प्रदेशभर के कार्यकर्ताओं में रोष है।

भाजपा प्रदेश के कुछ नेताओं के रवैये के कारण इन दिग्गजों का समन्वय केंद्रीय नेतृत्व से ठीक से नहीं हो पाया। इस कारण इन नेताओं ने पसंदीदा प्रत्याशी को सिम्बल नहीं मिलने के कारण दिल से प्रचार अभियान में नहीं जुटे हैं। इसका एक ताजा उदहारण है, बीते कुछ दिनों पहले भाजपा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष सरोज पांडेय की केंद्रीय राज्य मंत्री अश्विनी चौबे के साथ साझा प्रेसवार्ता थी। लेकिन, चौबे पूजा करते रह गए और तय समय तो छोड़िये विलम्ब से भी प्रेसवार्ता करने नहीं पहुंचे। इस लिहाज से प्रदेश भाजपा के कुछ नेताओं का केंद्रीय नेतृत्व से समन्वय का अभाव साफ़ दिख रहा है।

• बिहारी पर बाहरी भारी

लोकतंत्र में राजनीतिक दलों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। खासकर भारत जैसे संसदीय लोकतंत्र में। राजनीतिक दल न केवल सत्ता का संचालन करते हैं, बल्कि अपने कार्यकर्ताओं के माध्यम से समाज को दिशा भी देते हैं। राजनीतिक लिहाज से बिहार काफी सजग प्रदेश है। इस धरती पर कई शूरवीर पैदा हुए जिन्होंने देश की राजनीति को सही दिशा दी।

लेकिन, बिहार चुनाव में भाजपा बिहारी नहीं बाहरी के भरोसे है। इस बाहरी के कारण कार्यकर्ताओं का मनोबल लगातार गिर रहा है। कारण हर तरह के कार्यों में अड़ंगा लगाना, चाहे वो काम छोटा हो या बड़ा। जैसे यह तो सर्वविदित है कि बिहार में विधानसभा चुनाव 2020 में तकनीक की सहायता राजनीतिक दल चुनावी बाजी मारना चाह रहे हैं। इसके लिए विभिन्न तरीके अपनाए जा रहे हैं।

इसका उदहारण है, कुछ दिनों पूर्व अभिनेता मनोज बाजपेयी ने ‘बंबई में का बा’ नाम से भोजपुरी रैप लाया। बाद में बिहार की एक उदयीमान गायिका ने उस गाने के पैरोडी के रूप में ‘बिहार में का बा’ नाम गाना गा दी। ‘बिहार में का बा’ गाने में बिहार की बदहाली को उद्घाटित कर परोसा गया। यह गाना भाजपा विरोधियों के लिए कैटलिस्ट का काम किया, लिहाजा महागठबंधन के लोगों ने इसको प्रचारित करना शुरू किया।

‘बिहार में का बा’ को जवाब देने का दबाव भाजपा पर आ गया। भाजपा के आईटी सेल के लोगों ने ‘बिहार में का बा’ के जवाब में ‘बिहार में ई बा’ लांच किया। लेकिन, वो कहते हैं न कि नकल के लिए भी अक्ल चाहिए। ‘बिहार में ई बा’ में मैनिफैक्चरिंग डिफेक्ट निकला। आलोचकों ने फ्रेम देखने के बाद पाया कि बिहार की खूबियों का बखान करने वाले इस ग्राफिक्स में बाहर के स्थलों का उपयोग किया गया है।

बहरहाल, जब ‘बिहार में ई बा’ का पोल खुल गया, तो भाजपाईयों को नई तरकीब सूझी। डैमेज कंट्रोल का जिम्मा खुद बिहार प्रभारी भूपेंद्र यादव ने संभाला। यादव ने ‘चुनाव डायरी’ शृंखला लिखना शुरू किये। आलेख में उन्होंने बिहार के गौरवशाली इतिहस का जिक्र करते हुए बताया है कि बिहार में ये सारे गौरव के चिह्न मौजूद हैं। यानी ‘बिहार में ई बा’। बिहार में ई बा’ में फर्जी विजुअल डालकर भाजपा पहले ही फजीहत करा चुकी है। अब चाहे जितने भी लेख लिखें जाएं, अब क्या होत.. जब चिड़िया चुग गई खेत!

इस तरह के कई और कार्य हैं जो बाहरी व्यक्ति द्वारा बाहरी लोगों से करवाया जा रहा है। लिहाजा, पुराने तथा अभी तक भाजपा का साथ दे रहे बुद्धिजीवी इस बार पल्ला झाड़ चुके हैं।

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