बिहार NDA के नेतृत्व को क्यों बदलना चाहती है भाजपा?

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बिहार (BIHAR) की राजनीति में अगले कुछ महीनों के अंदर उलट-फेर की संभावना बन रही है। हाल में चार राज्यों में भाजपी की वापसी के बाद एक दूसरी दिशा में भी हलचल शुरू है। ऐसे में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की कुर्सी बदल जाए, तो कोई आश्चर्य नहीं। सभी जानते हैं कि बिहार की वर्तमान एनडीए सरकार का कार्यकाल नवंबर, 2025 तक है। अगर गठबंधन बना रहा, तो यह सरकार अपना कार्यकाल पूरा करेगी। फिलहाल गठबंधन को लेकर कोई संकट नहीं है। फिर भी यह सवाल है कि भाजपा नीतीश कुमार को दिल्ली भेजने के लिए इतनी उत्सुक क्यों है?

जानकार का कहना है कि 2024 और 2025 के चुनाव को लेकर भाजपा कोई जोखिम लेना नहीं चाह रही है। 2020 के चुनाव में नीतीश कुमार के प्रति एंटी इंकबेंसी का नुकसान एनडीए को हो चुका है। ऐसे में अब भाजपा एनडीए को लीड कर रही है। इसलिए भाजपा अब 2024 को देख रही है। इसलिए भाजपा यह सोच रही है कि नेतृत्व बदलाव के साथ ही गठबंधन को जनमानस में प्रवाहमान बनाया जा सकता है।

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गठबंधन को जनमानस में प्रवाहमान बनाने के लिए नेतृत्व में बदलाव चाहती है भाजपा

2013 के मध्य से लेकर 2017 की जुलाई तक नीतीश कुमार (Nitish Kumar) एनडीए से अलग रहे। उनका यह विलगाव एक तरह से 2013 में नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के तौर पर भाजपा की ओर से प्रोजेक्ट करने के विरोध में ही था। मगर 2014 के आम चुनाव के बाद जिस तरह से देश की जनता ने नरेन्द्र मोदी पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगाई और उसके साइड इफैक्ट में बिहार में जदयू का सूपड़ा साफ हो गया, उससे नीतीश कुमार विचलित जरुर हुए, मगर चार साल के अंदर ही उन्हें अपना और अपने दल का भविश्य कहां और कैसे सुरक्षित है, इसका अहसास हो गया।

दीर्ध राजनीतिक अनुभव वाले नीतीश कुमार के राजनीतिक व प्रशासनिक फैसले को लेकर भले ही असहमति हो, मगर उनकी छवि जो एक सच्चे समाजवादी की है, उसपर कभी कोई सवाल नहीं उठता है। पूरी तरह से भ्रष्टाचारमुक्त शासन देने में भले ही नीतीश कुमार पूर्णतः सफल नहीं रहे हैं, मगर व्यक्तिगत तौर पर उनके खिलाफ ऐसा कोई गंभीर आरोप चस्पां नहीं है, जिसे लेकर विपक्ष वितंडा खड़ा कर सके।

वंशवादी व परिवारवादी राजनीति के प्रबल विरोधी नीतीश कुमार आज भाजपा के शीर्श नेतृत्व के पसंद केवल इसलिए नहीं हैं कि उनके नाम पर विगत चुनाव या इसके पहले 2010 में राजग ने बिहार में चुनावी सफलता हासिल किया, बल्कि इसलिए भी कि नीतीश कुमार की छवि आज भी साफ-सुथरी और गुणवत्तापूर्ण राजनीति के अनुकूल है। मगर, इन सबके बावजूद आगामी वर्षों व अगले चुनावों में भी नीतीश कुमार इतने ही प्रभावी होंगे, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। भाजपा के शीर्ष चिंतकों का भी मानना है कि बदलाव के साथ ही गठबंधन को जनमानस में प्रवाहमान बनाया जा सकता है।

नीतीश कुमार को नेता मानने की विवशता से बाहर निकलने के लिए भाजपा में छटपटाहट

प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के बाद अब तक किसी बिहारी शख्सीयत को राष्ट्रपति तो छोड़िए, उपराष्ट्रपति के ओहदे तक पहुंचने का भी अवसर नहीं मिला है। हां, बिहार में राज्यपाल रहे रामनाथ कोविंद को 2017 में देश के 14वें राष्ट्रपति के तौर पर बिहार के राजभवन से सीधे राष्ट्रपति भवन जाने का मौका मिला, जबकि इसके पहले 1967 में बिहार के राज्यपाल रह चुके जाकिर हुसैन देश के तीसरे राष्ट्रपति बने थे। वे 1957 से 1962 तक बिहार के राज्यपाल रह चुके थे।

राष्ट्रपति बनने के पहले जाकिर हुसैन का निर्वाचन 1962 में उपराष्ट्रपति के पद हुआ था। इस पद पर वे 5 वर्शों तक रहे थे। अगर नीतीश कुमार का मनोनयन उपराष्ट्रपति के तौर पर होता है तो यह जहां बिहार के लिए गौरव की बात होगी, वहीं भाजपा की भी बिहार में अपना मुख्यमंत्री बनाने की वर्षों से दमित आकांक्षा इस रास्ते से पूरी हो सकती है। जदयू से अधिक संख्या बल होने के बावजूद सदन में नीतीश कुमार को अपना नेता मानने की विवशता से बाहर निकलने के लिए भाजपा में एक छटपटाहट है। इसीलिये भाजपा बिहार में NDA के नेतृत्व को बदलना चाहती है।

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