बिहार में रंगों का विहार : जानिए कैसे खेली जाती है एरच धाम, बुढ़वा होली, घुमौर होली से लेकर कुर्ताफाड़ होली तक
क्षेत्रीयता और विविधता में निहित अखंडता के कई रंग सहेजने वाली होली का बिहार से एक अलग ही तरह का नाता है। यह नाता इसकी श्फाग, राग, अध्यात्म और लोक की खूबियों में निहित है। मगध साम्राज्य के रूप में अखंड भारत की नींव रखने वाले तब के बिहार से ही देश को कई आयाम मिले। होली भी इन्हीं में से एक है। इस सतरंगी आयाम ने साम्राज्यवादी अखंडता के साथ ही सांस्कृतिक-आध्यात्मिक भारत की ऐसी नींव रखी जिसने यहां के लोगों को कालक्रम में एक चेतन सूत्र में पिरो दिया। रंगों के उत्सव होली ने ऐसा करने में प्राथमिक भूमिका अदा की।
एरच धाम और बिहार
होली की शुरुआत उसी काल में मगध का हिस्सा रहे बुंदेलखंड के ‘एरच धाम’ से हुई। हिरण्यकश्यप की राजधानी एरिकेच्छ थी जो अब परिवर्तित होकर एरच हो गया। बिहार से शुरू हुई होली की यह यात्रा कई कालखंडों से गुजरते हुए भारत के विभिन्न राज्यों-क्षेत्रों में विकसित हुई। सीमाएं बदलीं, इसलिए होली ने भी कई रंग-ढंग शामिल कर लिए। आज बिहार में भी होली ने कई रंग धर लिये हैं। मगध में बुढ़वा मंगल होली तो समस्तीपुर में छाता पटोरी होली। इसी तरह मिथिला में बनगांव की होली, झुमटा होली तो भोजपुर की फगुआ और कुर्ताफाड़ होली।
भोजपुर क्षेत्र की फगुआ
भोजपुरी इलाके में होली का मतलब महज रंग खेलना ही कतई नहीं है। यहां होली की संपूर्णता का मतलब है होली गाने की शुरुआत यानी ‘फगुआ’ गायन। आप किसी भी भोजपुरी इलाके में चले जाइए, वहां के त्योहार बिना इन गानों के पूरे नहीं होते। उत्तर प्रदेश में बनारस से आगे बढ़ते ही गाजीपुर, बलिया, जौनपुर, आजमगढ़ और गोरखपुर या फिर बिहार में बक्सर, कैमुर, आरा, छपरा या सिवान, होली के दिन गांव-गांव में फगुआ की टोलियां और उनके गानों पर झूमते-नाचते ग्रामीण मिल जाएंगे। ढोलक, झाल, मंजीरा के साथ भोजपुर की फगुआ होली की उत्कृष्ट लेकिन ग्रामीण अभिव्यक्ति है जिसमें लोक, फाग और अध्यात्म का रंग सराबोर है।
मगध में बुढ़वा होली
मगध में होली का जो रूप प्रचलित-विकसित हुआ उसे बुढ़वा होली के नाम से जाना जाता है। नालंदा, नवादा, गया, औरंगाबाद, अरवल, जहानाबाद आदि इलाकों में मुख्य पर्व के अगले दिन बुढ़वा होली का रिवाज है। उसी दिन यहां झुमटा भी निकाला जाता है। झुमटा निकालनेवाले होली गाते हुए खुशी का इजहार करते हैं। मगध में कीचड़, गोबर और मिट्टी से होली खेलने का भी खासा महत्व है। दोपहर में रंग और फिर शाम में अबीर-गुलाल लगाते हैं। बुढ़वा होली के दौरान ग्रामीण इलाकों या मोहल्लों में लोग एक जगह इकट्ठा होते हैं। उसके बाद टोली बनाकर पारंपरिक गीत और जोगीरा गाते हुए पूरे गांव और मोहल्लों में घूमते हैं।
पटोरी की छाता होली
समस्तीपुर जिले के पटोरी प्रखंड में पांच पंचायतों का एक बड़ा गांव है धमौन। यहां हरियाणा से आये यादवों (जाटों) का कुनबा भी रहता है। हरियाणा और बिहार की मिली-जुली संस्कृति समेटे धमौन की अनूठी छाता होली अपनी अलग पहचान के लिए काफी प्रसिद्ध है। इस दौरान बांस के बड़े-बड़े छाते तैयार किये जाते हैं। इन छातों को रंगीन कागजों से सजाया जाता है। बताया जाता है कि साल 1935 से ही यहां छाता होली मनायी जाती है। गांव में जाटों के कुल देवता निरंजन स्वामी का मंदिर भी है। कुल देवता स्वामी निरंजन मंदिर में सभी अबीर-गुलाल चढ़ाते हैं। फिर ‘धम्मर’ व ‘होली’ गाते हैं। इसके बाद एक-दूसरे को अबीर-गुलाल लगाकर गले मिलते हैं। इस दौरान सभी छातों को गांवकृगांव घुमाया जाता है।
मिथिला के बनगांव की घुमौर होली
मिथिला के बनगांव की प्रसिद्ध घुमौर होली काफी प्रसिद्ध है। 18वीं शताब्दी में संत लक्ष्मीनाथ गोस्वामी ने सांस्कृतिक तौर पर बंटे हुए मिथिलांचल को एक सूत्र में पिरोने के लिए एक खास तरह के होली की शुरुआत सहरसा के बनगांव सहित आसपास के क्षेत्रों में की। यह खास तरह की होली मिथिलांचल में आज भी देखने को मिलती है। उन्होंने मिथिला के ग्रामीण इलाकों में फाल्गुन पूर्णिमा से इसकी शुरुआत की। आज भी मिथिलांचल के ग्रामीण इलाकों में फाल्गुन पूर्णिमा को ही लोग होली मनाते हैं।
ब्रज की छाप वाली कुर्ताफाड़ होली
बिहार में होली के एक मजेदार रंग की चर्चा न की जाए तो यह अधूरी रह जाएगी। आजादी के बाद बिहारी जनमानस पर चढ़ने वाला यह रंग कमोबेश ब्रज की लट्ठमार होली का ही एक रूप है। कुर्ताफाड़ होली के तौर पर प्रसिद्ध इस बिहारी होली की खास बात यह है कि इसमें पुरुष और स्त्रियां दोनों हिस्सा लेती हैं। हालांकि उनकी टोलियां अलग-अलग होती हैं। कुर्ताफाड़ होली ग्रामीण इलाकों में ज्यादातर खेली जाती है। इसमें सुबह लोग एक-दूसरे को कादो (कीचड़), गोबर लगाते हैं फिर गायन के साथ कपड़े फाड़ जोगिरा गाते हुए एक-दूसरे को मना कर मन का मैल निकाल देते हैं। इसके बाद शुरु होता है रंग लगाने और एककृदूसरे पर फेंकने का दौर। यह होली सुबह में कीचड़-गोबर से शुरू होकर रंगों से होते हुए दिन के दो बजे तक समाप्त हो जाता है।
यहां शुरू हुई होली मनाने की परंपरा
होलिका-प्रहलाद की मूर्ति और भागवत पुराण
मगध साम्राज्य का हिस्सा रहे बुंदेलखंड में होली की शुरुआत के पौराणिक और पुरातात्विक प्रमाण मिले हैं। बुंदेलखंड की हृदयस्थली झांसी से 80 किलोमीटर दूर बामौर विकासखंड अंतर्गत ‘एरच धाम’ में खुदाई के दौरान 250 फुट जमीन के नीचे एक पत्थर की मूर्ति मिली जिसमें होलिका और उसकी गोद में भक्त प्रहलाद की आकृति बनी है।
वहीं पौराणिक रूप से होली का त्योहार भक्त प्रहलाद से जुड़ा है। श्रीमद् भागवत पुराण में सतयुग के भक्त प्रहलाद का प्रसंग आता है जिसमें बताया गया है कि हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप दो राक्षस भाई थे। इनकी राजधानी एरिकेच्छ थी जो अब परिवर्तित होकर एरच हो गया है।
बौद्ध शोध संस्थान के उपाध्यक्ष इतिहासविद् हरगोविन्द कुशवाहा के अनुसार खुदाई के दौरान एरच में 250 फुट जमीन के नीचे मिली पत्थर की होलिका और उसकी गोद में भक्त प्रहलाद की मूर्ति इस बात का प्रमाण है कि यह वही एरिकेच्छ है, जो कभी हिरण्यकश्यप की राजधानी हुआ करता था। यहां पर आज भी मगध काल के कई सिक्के लोगों को खेतों में मिलते रहते हैं।