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बिहार में लालू ! लाचारी भी, मज़बूरी भी, पढ़ें क्यों?

भारतीय राजनीति में ऐसा उदहारण बिरले ही मिलता है जब कोई व्यक्ति एक दल का राष्ट्रीय अध्यक्ष लगातार 11वीं बार बनता है। ऐसे में लालू प्रसाद को राजद का सर्वेसर्वा और महागठबंधन का चेहरा बनाना पार्टी की जरूरत है या लाचारी?

ज्यादातर क्षेत्रीय दल व्यक्ति केन्द्रित

इस संदर्भ पटना विश्वविद्यालय की राजनीतिक विभाग की प्राध्यापक प्रो. दीप्ति कुमारी कुछ और ढंग से व्याख्यायित करती हैं। वे इसे राजद की जरूरत और लाचारी दोनों मानती हैं। वास्तव में भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में ज्यादातर क्षेत्रीय दल व्यक्ति केन्द्रित होते हैं। जहां भी व्यक्ति से ऊपर पार्टी को प्रमुखता दी जाती है। वहां पार्टी समाप्त हो जाती है। सुप्रीमो ही सर्वेसर्वा होता है। लेकिन, राजद का दुर्भाग्य है कि जिस पार्टी ने बिहार में 15 वर्षों तक लगातार शासन किया, आज उसे राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए कोई डमी तक नहीं मिल रहा। कमोबेश यही स्थिति भाजपा विरोधी विपक्ष के महागठबंधन की भी है।

अस्सी के दशक में लालू का उभार

बिहार में लालू प्रसाद का उदय अपने आप में एक बड़ी राजनीतिक घटना थी। 1977 में पहली बार छपरा लोकसभा सीट से लालू प्रसाद जीत कर सांसद बने थे। अस्सी के दशक में लालू प्रसाद पिछड़ों की आवाज बनकर उभरे। इसी नीति पर चलते हुए उन्होंने 1990 की सत्ता प्राप्त की। ठेठ गंवई अंदाज और मुंहफट शैली में गरीब गुरबा उनमें अपना नेतृत्व देखता था। एक पुरानी बात है जनता के पास भाव होते हैं, भाषा नहीं। जो नेतृत्व उनकी भावनाओं को भाषा देता है और उसे उसके लक्ष्य तक पहुंचाने में मदद करता है। जनता उसी को अपना नेता मानती है। बिहार में ऐसी बड़ी आबादी ने अपना नेतृत्व लालू प्रसाद में देखा और नब्बे में लालू प्रसाद बिहार के मुख्यमंत्री बने।

जद से राजद तक का सफ़र

कुछ वर्ष बाद ही पार्टी में टूट हो गई और 1993 में जार्ज फर्नांडिस और नीतीश कुमार के साथ कई नेता अलग हो गये। लेकिन, इससे लालू प्रसाद के कद में कोई कमी नहीं आई। 1995 में 167 सीटों के प्रचंड बहुमत के साथ लालू प्रसाद सत्ता में दोबारा आये। 27 जुलाई, 1997 को लालू प्रसाद ने सीबीआई के विशेष न्यायालय के समक्ष समर्पण किया था। लेकिन, उसके पूर्व 5 जुलाई, 1997 को लालू प्रसाद रघुवंश प्रसाद से कांति सिंह समेत 17 लोकसभा सांसद और 8 राज्यसभा सांसदों ने दिल्ली में जनता दल को छोड़कर राष्ट्रीय जनता दल का गठन किया।

राबड़ी को बनाना पड़ा मुख्यमंत्री

जेल जाने के पूर्व लालू प्रसाद ने सबकी रजामंदी से अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया था। पार्टी के अंदर कोई सुगबुगाहट तक नहीं हुई। मार्च, 1998 के लोकसभा चुनाव में राजद को 17 सीटें मिलीं। लेकिन, अन्य राज्यों में राजद अपनी उल्लेखनीय उपस्थिति नहीं दर्ज करा सकी। अक्टूबर, 1999 के चुनाव में राजद ने कांग्रेस पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा लेकिन इस चुनाव में लालू प्रसाद अपनी सीट भी नहीं बचा पाये। सन् 2000 के विधान सभा चुनाव में पार्टी ने शानदार जीत हासिल की थी। पार्टी ने लालू प्रसाद के जेल जाने से उत्पन्न सहानुभूति लहर पर सवार होना चाहा। वोटों का प्रतिशत भले ही 28 से बढ़कर 28.3 प्रतिशत हो गया लेकिन सीटें घटकर 129 हो गई थी।

रेल मंत्री बने और बिहार हाथ से बाहर

झारखंड राज्य के गठन के बाद लालू प्रसाद की मुश्किलें बढ़ने लगी। अब न्यायालय के समक्ष उन्हें रांची भी जाना पड़ता था। 2004 के चुनाव में राजद ने 24 लोकसभा सीटें बिहार से जीती थी और लालू प्रसाद देश के रेलमंत्री बने। 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव के बाद लालू प्रसाद की हैसियत कमते चली गयी। जिस लालू प्रसाद के राष्ट्रीय जनता दल को कभी लोकसभा चुनाव में 1 करोड़ से अधिक वोट मिलते थे उनका कुनबा अब सिमटने लगा था। 2004 के लोकसभा चुनाव में 22 सीटें जीतने वाले लालू प्रसाद 2005 के विधान सभा चुनाव मेें बुरी तरह गिरे। फरवरी, 2005 के चुनाव में राजद ने भले ही 75 सीटें जीती, लेकिन सत्ता से बाहर हो गई और नवंबर, 2005 के चुनाव में नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने।

पहली बार विस में 30 से कम सीटें

2009 के आमसभा चुनाव में लालू प्रसाद ने संप्रग से अपना नाता तोड़ लिया और लोजपा और समाजवादी पार्टी के साथ अलग गठबंधन बनाया। चैथा मोर्चा इस चुनाव में बुरी तरह पिटा। राजद को सिर्फ 4 सीटों से संतोष करना पड़ा। 2010 के विधान सभा चुनाव में राजद को सबसे बड़ी शिकस्त का सामना करना पड़ा। पहली बार राजद को विधानसभा चुनाव में 30 से कम सीटें मिली। 2014 में राजद ने संप्रग से भले ही समझौता कर लिया हो लेकिन उसके सारे प्यादे बुरी तरह पिटे। उनकी बेटी और पत्नी भी चुनाव नहीं जीत पाई। 14 अप्रैल, 2015 को सभी समाजवादियों ने मिलकर एक जनता परिवार का गठन किया। नवंबर, 2015 के चुनाव में सर्वाधिक अस्सी सीटें जीतीं। जनता दल (यू) को 71, कांग्रेस को 27 सीट तथा भाजपा को 53 सीटें मिली थी। हालांकि इस चुनाव में भाजपा को सबसे ज्यादा 24.4 प्रतिशत वोट मिले थे। राजद को 18.4 तथा जद(यू) को 16.8 प्रतिशत। 2019 का लोकसभा चुनाव राजद के लिए सबसे दुर्भाग्यपूर्ण रहा। पार्टी का बिहार में सूपड़ा साफ हो गया। पार्टी एक भी सीट जीतने में कामयाब नहीं हो पाई।

शिक्षितों से तौबा, दबंग और छंटे हुए पर भरोसा

राजद में पार्टी का मकसद सिर्फ सत्ता पर काबिज होना रहा। जिस गरीब की आवाज बनकर लालू प्रसाद उभरे थे वह मुद्दा हाशिये पर जाने लगा। 197 के बाद पार्टी में ऐसे लोगों का उभार हुआ जो पार्टी के प्रति समर्पित नहीं बल्कि वोटों पर नियंत्रण करना जानते थे। ऐसे बाहुबलियों के दम पर ही राजद चलने लगी। राजद का अपना वोट बैंक तो टिका रहा लेकिन इस वोट बैंक से समर्पित नेतृत्व नहीं उभरा। पटना विश्वविद्यालय में अवधेश-लालू कभी राजद के कद्दावर नेता हुआ करते थे। उन्हें पार्टी ने किनारा कर दिया। ऐसे अनेक उदाहरण जिसमें राजद ने समर्पित, अनुशासित एवं पढ़े-लिखे नेतृत्व को प्राथमिकता न देकर दबंग और छटे हुए लोगों पर ज्यादा विश्वास किया। ऐसे क्षत्रप दूसरी पंक्ति के नेताओं का विकास कभी नहीं चाहते।

सवर्ण वोटर की राजद से दूरी

आज इसी का नतीजा है कि राजद के पास विशेष ‘माय’ समीकरण में भी दूसरी पंक्ति के नेताओं का घोर अभाव है। सवर्ण वोटर राजद पर विश्वास करने के मूड में नहीं है। राजपूत समाज में रघुवंश प्रसाद सिंह की स्वीकार्यता कुछ है लेकिन जगदानंद सिंह सिर्फ शाहाबाद क्षेत्र में अपनी कुछ पैठ रखते हैं। जगदानंद सिंह के कारण इस इलाके में भले ही कुछ राजपूत वोट मिल जाये, लेकिन अन्य सवर्ण वोट लालू प्रसाद के पाले में नहीं आने वाले। कोशी क्षेत्र में आनंद मोहन के मुद्दे को लेकर कोई भी दल राजपूतों की सहानुभूति अपने पक्ष में नहीं कर पाया है।

आज भी इस क्षेत्र के राजपूत इसका सबसे बड़ा गुनाहगार लालू प्रसाद और नीतीश कुमार को मानते हैं। भूमिहार कभी भी लालू प्रसाद के वोटर नहीं रहे। उनको अपने पाले में करने का काम कांग्रेस भले ही करे लेकिन यह समाज भी संप्रग के प्रति आशावान नहीं है। ब्राह्मण पहले से ही राजद से बिदके पड़े हैं। संप्रग में कायस्थों की सहानुभूति कभी भी राजद के साथ नहीं रही। विनोद श्रीवास्तव चंपारण में अपना अस्तित्व तलाशते हैं जबकि कायस्थों का ज्यादा वोट पटना और उसके आस-पास है। बिहार का कोई भी राजनैतिक दल चाहे वह राष्ट्रीय हो या क्षेत्रीय मिथिला के कर्ण कायस्थों से कोई भी नेतृत्व देने में अबतक विफल रहा है।

यादवों का लालू प्रसाद के प्रति मोहभंग

राष्ट्रीय जनता दल के पाले में जो सबसे बड़ा वोट है वह मुस्लिम और यादवों का हैं। आज भी मुस्लिमों के सर्वमान्य नेता लालू प्रसाद ही हैं। यादवों में लालू प्रसाद के प्रति मोह भंग हुआ है। खासकर तब जब पार्टी ने सभी शीर्ष पदों पर लालू प्रसाद के परिवार के लोगों को ही प्राथमिकता दी है। आज शेष यादव समाज राजद के अंदर स्वयं को ठगा हुआ महसूस करता है। पार्टी के अन्य वोटरों में किसी अन्य नेता के प्रति वह श्रद्धा नहीं है। लालू प्रसाद के नाम पर ही वोट मिलते हैं, यह बात राजद के अंदर सब कोई जानता व समझता है। इस वर्ष चमकी बुखार के समय बिहार विधान सभा में नेता प्रतिपक्ष के गायब रहने पर कई सवाल खड़े हुए थे।

तेजस्वी बनना चाहते थे सुप्रीमो

दबी जुबां से यह भी चर्चा थी कि तेजस्वी यादव स्वयं को पार्टी सुप्रीमो घोषित कराना चाहते थे। दबाव के रणनीति के तहत उन्होंने बिहार से पलायन कर लिया था लेकिन राजनीति के धुरंधर लालू प्रसाद इस बात को बखूबी समझते कि जिस क्षण तेजस्वी यादव को पार्टी सुप्रीमो की घोषणा होगी उसी क्षण पार्टी टूट जायेगी। मौके की नजाकत को समझते हुए उन्होंने तेजस्वी को ऐसा करने से मना कर दिया। पार्टी के प्रमुख पदों पर परिवार के लोग और परिवार के अंदर ही घमासान मचा हुआ है। आये दिन परिवार के महाभारत की खबरें समाचार पत्रों की सुर्खियां बनती हैं। ऐसे में अगर पार्टी और परिवार को एक रखना है तो लालू प्रसाद को सुप्रीमो बनाये रखना मजबूरी ही है। आखिर वोट भी तो उन्ही के नाम पर मिलता है।