भारत में चुनाव कराने की चुनौती

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डाॅ. नीरज कृष्ण
(कानूनविद)

विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारतवर्ष में चुनाव प्रक्रिया की देख-रेख व संचालन करने वाला भारतीय निर्वाचन आयोग बड़ी ही जिम्मेदारी के साथ इस विश्वस्तरीय चुनौतीपूर्ण कार्य को करता आ रहा है। चुनाव आयोग आवश्यकता अनुसार समय-समय पर अपने नियमों व कानूनों में तरह-तरह के परिवर्तन भी करता रहता है। आयोग की हमेशा यही कोशिश रहती है कि भारतीय लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अंतर्गत होने वाला सबसे महत्वपूर्ण कार्य अर्थात चुनाव राष्ट्रीय स्तर पर पूरी पारदर्शिता तथा निष्पक्षता के साथ संपन्न हो ताकि देश को जनाकांक्षाओं के अनुरूप जनहितकारी संसद विधानसभा व सरकार मिल सके। परंतु, निर्वाचन संबंधी अनेक कानून अभी भी ऐसे हैं, जिनमें आमूल-चूल बदलाव किए जाने की जरूरत है। हालांकि इस प्रकार के कानूनों को बदलने का अधिकार केंद्र सरकार को ही है। ऐसे कानूनों को तथा भारतीय संविधान में नेताओं के हित का ध्यान रखने वाली ऐसी व्यवस्था को लगता है हमारे संविधान निर्माताओं ने केवल नेताओं के हितों को मद्देनजर रखते हुए भारतीय संविधान में शामिल किया है।

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चुनाव आयोग को सुप्रीम कोर्ट की नसीहत

चुनाव के दौरान देश के लोकतांत्रिक महोत्सव की गरिमा गिराते तमाम राजनीतिक दलों के बड़बोले नेताओं पर लगाम लगाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के हालिया के सख्त रवैये के कारण जो कदम चुनाव आयोग द्वारा बहुत पहले ही उठा लिए जाने चाहिए थे, अंततः आयोग को चुनावों की शुचिता बरकरार रखने हेतु उसके लिए बाध्य होना पड़ा। शीर्ष अदालत को कहना पड़ा था कि निर्वाचन आयोग ऐसे मामलों को नजरअंदाज नहीं कर सकता। चुनावी प्रक्रिया में शुचिता लाने के लिए इससे पहले भी सर्वोच्च न्यायालय ने ही समय-समय पर कड़े कदम उठाए हैं।

इस बार भी चुनावी शुचिता के लिए निर्वाचन आयोग को सख्त हिदायत देते हुए अदालत ने जो पहल की है उसके लिए देश की सर्वोच्च अदालत प्रशंसा की हकदार है। आश्चर्य की बात रही कि अदालत की कड़ी फटकार से पहले आयोग ऐसे बदजुबान नेताओं को नसीहत या चेतावनी देने और नोटिस थमाने तक ही अपनी भूमिका का निर्वहन करता रहा, जिसका किसी भी नेता पर कोई असर नहीं देखा गया और जब अदालत द्वारा आयोग से इस संबंध में सवाल किए गए, तो आयोग ने अपने अधिकारों और शक्तियों को लेकर अपनी लाचारगी का रोना रोना शुरू कर दिया।

राजनीति के अपराधीकरण को रोक पाने में बेबस

बिहार विधानसभा के महासंग्राम में दागी एवं आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओं को चुनाव लड़ने से रोकने की कोशिशें एक बार फिर नाकाम हो रही हैं, नतीजन इन चुनावों में बड़ी संख्या में ऐसे उम्मीदवार मैदान में हैं। सुप्रीम कोर्ट एवं निर्वाचन आयोग जैसी संस्थाएं तक राजनीति के इस अपराधीकरण को रोक पाने में एक तरह से बेबस एवं लाचार साबित हो रही हैं। यह त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण स्थिति अहसास कराती है कि आखिर लोकतंत्र के अस्तित्व एवं अस्मिता को संरक्षण देने के लिए इन स्थितियों को कब और कैसे रोक पाएंगे? हमारे चुनाव एवं इन चुनावों में आपराधिक तत्वों का चुना जाना, राज्य का दुर्भाग्य है। राजनीति में आपराधिक तत्वों का वर्चस्व बढ़ना कैंसर की तरह है, जिसका इलाज होना जरूरी है। इस कैंसर रूपी महामारी से मुक्ति मिलने पर ही हमारा लोकतंत्र पवित्र एवं सशक्त बन सकेगा।

दागी नेता को टिकट क्यों?

अपराधी एवं दागी नेताओं को लेकर सुप्रीम कोर्ट एवं चुनाव आयोग इन दोनों ही संस्थाओं ने राजनीतिक दलों को कसने की काफी कोशिशें कीं, लेकिन राजनीतिक दलों की अनदेखी से इन संस्थाओं के प्रयास विफल ही रहे हैं। लेकिन इनके प्रयासों से जनता में जागरूकता बनी है, आम मतदाता अब समझने लगे हैं कि अगर ऐसे दागी नेताओं को वोट देंगे तो आने वाले वक्त में राज्य की राजनीति किस दिशा में जाएगी। दागी नेताओं को लेकर सर्वोच्च अदालत ने समय-समय पर जो आदेश दिए हैं, उनसे आम जनता के बीच बड़ा संदेश तो गया है और लोग वोट डालने से पहले उम्मीदवार के बारे में विचार जरूर कर रहे हैं।

सवाल है जब हमारे जनप्रतिनिधि हत्या, हत्या की कोशिश, बलात्कार जैसे संगीन अपराधों में लिप्त रहने वाले लोग होंगे, तो उनसे संगठित जनप्रतिनिधि कैसे आदर्श राज्य का निर्माण करेंगी? कैसे राष्ट्रीय मूल्यों को बल मिलेगा? कैसे लोकतंत्र मजबूत बनेगा? इन आपराधिक एवं दागी जनप्रतिनिधियों से देश के उन्नत भविष्य की उम्मीद करना व्यर्थ है। ऐसे दागी नेता सिर्फ जटिल और लंबी कानूनी प्रक्रिया का फायदा उठाकर ही सदनों को सुशोभित करते आए हैं। ऐसा नहीं है कि ऐसे दागी नेताओं से बचा नहीं जा सकता। अगर राजनीतिक दल ठान लें तो ऐसे अपराधियों के लिए राजनीति के दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो सकते हैं।

पहली बात तो यह है कि राजनीतिक दलों को आपराधिक पृष्ठभूमि वाले किसी उम्मीदवार को टिकट ही नहीं देना चाहिए। लेकिन, चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दल नैतिकता के मानदंडों को ताक पर रख देते हैं। वे इसी घातक प्रवृत्ति को अपनी कामयाबी की कुंजी मानते हैं। लेकिन, प्रश्न है कि कब तक देश दागी नेताओं का नेतृत्व झेलता रहेगा? सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल दागी नेताओं के मामले में सुनवाई के बाद यह व्यवस्था दी थी कि इस बारे में संसद को कानून बनाना चाहिए। लेकिन, किसी भी दल ने इस दिशा में कोई पहल नहीं की।

दलों को आखिर किस बात का डर?

राजनीति में शुचिता की बात करने वाले दलों को आखिर किस बात का डर है? ऐसा कानून बन जाने से अगर दागियों को राजनीति में आने से रोकना है तो इसके लिए राजनीतिक दलों को ही इच्छाशक्ति दिखानी होगी। वरना हमारे सदन अपराधियों का अज्जञ ही नजर आयेंगे। ऐसे में लोकतंत्र की मूल अवधारणा को किस स्तर की चोट पहुंचेगी, यह समझना मुश्किल नहीं है।

राजनीति का अपराधीकरण जटिल समस्या है। अपराधियों का राजनीति में महिमामंडन करके राजनीतिक दल एक बार फिर नई दूषित संस्कृति को प्रतिष्ठापित कर रहे हैं, वह सर्वाधिक गंभीर मसला है। राजनीति की इन दूषित हवाओं ने देश को चेतना को प्रदूषित कर दिया है, सत्ता के गलियारों में दागी, अपराधी एवं स्वार्थी तत्वों की धमाचैकड़ी एवं घुसपैठ लोकतंत्र के सर्वोच्च मंच को दमघोंटू बनायेगी, यह सोच कर ही सिहरन होती है। यह समस्या स्वयं राजनीतिज्ञों और राजनैतिक दलों ने पैदा की है। अतः उनके भरोसे इसका समाधान भी इसी स्तर पर ढूंढने का एक और मौका हम गंवा रहे हैं। राजनीति की शुचिता यानी राजनेताओं के आचरण और चारित्रिक उत्थान-पतन की बहस इन चुनावों में भी किसी निर्णायक मोड़ पर नहीं पहुंच पायी है।

मतदाताओं की उलझन

मतदाताओं की उलझन यह है कि उम्मीदवार के आपराधिक पृष्ठभूमि बारे में उन्हें ज्यादा जानकारी नहीं होती। इसी का फायदा उठा कर राजनीतिक दल ऐसे उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतार देते हैं। ऐसे उम्मीदवार धन और बाहुबल की ताकत पर चुनाव लड़ते हैं और जनता के हितों, उससे जुड़े मुद्चें से उन्हें कोई सरोकार नहीं होता। इस बार भी चुनाव मैदान में दागी नेताओं की एक लंबी शृंखला है।

स्वस्थ एवं आदर्श लोकतांत्रिक ढ़ांचे को निर्मित करने के लिये राजनेताओं या चुने हुए जन-प्रतिनिधियों को अपनी चारित्रिक शुचिता को प्राथमिकता देनी ही चाहिए। आपराधिक पृष्ठभूमि के जनप्रतिनिधियों को राष्ट्रहित में स्वयं ही चुनाव लड़ने से इंकार कर देना चाहिए, लेकिन वे ऐसा क्यों करेंगे? लोकतंत्र में जब अपराधी प्रवृत्ति के लोग जनता का समर्थन पाने में सफल हो जाते हैं तो दोष मतदाताओं का नहीं बल्कि उस राजनैतिक माहौल का होता है जो राजनैतिक दल और अपराधी तत्व मिलकर विभिन्न आर्थिक-सामाजिक प्रभावों से पैदा करते हैं। एक जनप्रतिनिधि स्वयं में बहुत जिम्मेदार पद ढोता है एवं एक संस्था होता है, जो लाखों लोगों का प्रतिनिधित्व कर उनकी आवाज बनता है।

सबसे बड़ा सवाल

बिहार की राजनीति में शूचिता शुरू से बड़ा सवाल है। आजादी के बाद देश के पहले आम चुनाव में ही कई जगह जाति और पैसे का खेल शुरू हो गया था। कई उदाहरण मिलते हैं। वर्ष 1951-52 में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए गए थे। कलम के जादूगर एवं समाजवादी राजनेता रामवृक्ष बेनीपुरी 31 दिसंबर 1951 को लिखते हैं- ‘इस क्षेत्र की बुरी बात यह रही कि वह सेठ भी पार्टी का मेंबर था, हमारी पार्टी के कुछ कार्यकर्ताओं को पैसे के बल से मुट्ठी में किया था, जब हमने उसे उम्मीदवार नहीं चुना, वह रुपयों के बल अब पार्टी को हराने पर तुला है।’

मतदाता को ही जागरूक होना होगा, वह आपराधिक रिकॉर्ड वालों को जनप्रतिनिधि न बनने दे। उसका यही पवित्र दायित्व है तथा वह भगवान और आत्मा की साक्षी से इस दायित्व को निष्ठा व ईमानदारी से निभाने की शपथ लें। दागी प्रत्याशियों पर नियंत्रण जरूरी है, क्योंकि लम्बे समय से देख रहे हैं कि हमारे इस सर्वोच्च मंच की पवित्रता और गरिमा को अनदेखा किया जाता रहा है। आजादी के बाद सात दशकों में भी हम अपने आचरण, पवित्रता और चारित्रिक उज्वलता को एक स्तर तक भी नहीं उठा सके। हमारी आबादी करीब चार गुना हो गई पर देश मात्र कुछ सौ की संख्या में सुयोग्य राजनेता भी आगे नहीं ला सका। नेता और नायक किसी कारखाने में पैदा करने की चीज नहीं हैं, इन्हें समाज में ही खोजना होता है। काबिलियत और चरित्र वाले लोग बहुत हैं पर जातिवाद व कालाधन उन्हें आगे नहीं आने देता। राजनीतिक स्वार्थ, बाहुबल एवं वोटों की राजनीति बहुत बड़ी बाधा है।

चुनाव आयोग एक स्वायत्त संवैधानिक संस्था है, जिसके मजबूत कंधों पर शांतिपूर्वक निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव कराने की अहम जिम्मेदारी है। यहां सवाल आयोग की निष्पक्षता या एक संवैधानिक संस्था के रूप में उसकी स्वायत्तता पर नहीं है, बल्कि सवाल है उसकी क्षमता पर जो तमाम अधिकारों के बावजूद आचार संहिता के गंभीर मामलों में भी कहीं दिखाई नहीं देती है। वह किसी प्रकार के राजनीतिक दबाव से मुक्त होकर यह कार्य संपन्न करा सके, इसके लिए उसे अनेक शक्तियां और अधिकार संविधान प्रदत्त हैं। देश की चुनाव प्रणाली में शुचिता बरकरार रखते हुए उसमें देश के हर नागरिक का भरोसा बनाए रखना निर्वाचन आयोग की सबसे पहले और आखिरी जिम्मेदारी है।

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