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बसंतोत्सव भूल, वेलेंटाइन डे मना रहे लोग  

नवादा : भारतीय संस्कृति पर पश्चिमी संस्कृति हावी होती जा रही है। यही कारण है कि प्रेम का त्यौहार बसंत के बजाय लोग वेलेंटाइन डे मनाने लगे हैं।

यह सुखद संयोग है कि पूरब और पश्चिम दोनों संस्कृतियों में प्रेम का मौसम एक ही समय आता है। हम भारतीय प्राचीन काल से बसंत के मौसम में बसंत पर्व मनाते रहे हैं। मौर्यकालीन तथा गुप्तकाल की साहित्यिक रचनाओं में इस पर्व का वर्णन किया गया है। शशि कपूर की फिल्म उत्सव (रेखा और शेखर सुमन मुख्य भूमिका में थे) में भी इसे दिखाया गया है।

कालांतर में मध्यकाल तक आते-आते शायद ये पर्व अपना रूप खो चुका था। इसके बाद भी बसंत पंचमी के रूप में ये आज भी मनाया जाता है, लेकिन बसंत पंचमी सरस्वती पूजा से ज्यादा जुड़ा है। इस कारण पहले जो बसंत पर्व मुख्य रूप से प्रेम का पर्व माना जाता था वो एक तरह से विलुप्त हो गया।

दूसरी तरफ पश्चिम में संत वेलेंटाइन की याद में मनाया जानेवाला वेलेंटाइन डे पूरे विश्व में लोकप्रिय होता चला गया है। इसमें काफी हद तक योगदान विदेशी मीडिया और मार्केटिंग कंपनियों का रहा है। खासकर आर्चिस जैसी कार्डस व गिफ्टस आइटम बनानेवाली कंपनियों ने इसे वेलेंटाइन विक का रूप दे दिया है। इसके साथ ही रेस्टूरेंटस व चाकलेट कंपनियों ने धुआंधार प्रचार -प्रसार कर तथा तरह-तरह के आफर देकर वेलेंटाइन डे को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।

प्रेम किसी भी जीव का नैसर्गिक गुण है। खासकर मनुष्य के पास तो इसे व्यक्त करने के कई अवसर हैं। आप अगर ध्यान देंगे तो मनुष्य जितनी भी कलाओं के जरिए खुद की प्रतिभा को व्यक्त करना है उनमें प्रेम का भाव ही सबसे अधिक दिखाई देता है।

साहित्यिक रचनाओं जैसे कविता, कहानी, नाटक व उपन्यास आदि में प्रेम के रंग में रंगी रचनाएं काफी लोकप्रिय होती हैं। हिंदी उपन्यासों की बात करें तो हम धर्मवीर भारती की गुनाहों का देवता, को ले सकते हैं।

फिल्मों में प्रेम कथाएं :

जहां तक हिंदी फिल्मों की बात है तो आज तक सबसे अधिक समय तक एक ही थियेटर में चलनेवाली फिल्म शाहरूख खान व काजोल की दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे है जो प्रेम कहानी है। इसी तरह आप कयामत से कयामत तक, कुछ कुछ होता है,सिलसिला, चांदनी,दिल,पाकीजा, देवदास व मुगले आजम जैसी दर्जनों फिल्में गिना सकते हैं।

अंग्रेजी की सुपरहिट फिल्म टाइटेनिक तो याद होगी ही ये फिल्म अगर सिर्फ हादसे पर ही फोकस होती तो शायद इतनी जबरदस्त हिट नहीं होती। इसमें प्रेम कहानी का तड़का लगने की वजह से इसे आल टाइम सुपरहिट फिल्मों में गिना जाता है। चित्रकला में भी प्रेम को दर्शानेवाली कलाकृतियां काफी पंसद की जाती हैं।

प्रकृति करती है श्रृंगार

वैसे भी बंसत ऋतु प्रेम का संदेश अपने बयार संग लेकर आती है। गुलाब, गेंदा, सूरजमुखी, सरसों आदि के फूल खिलते हैं। हवा में इन फूलों की सुगंध और मादकता का प्रवेश होने लगता है। पेड़ों की पुरानी पत्तियाँ झड़ती हैं और उनमें नई कोमल पत्तियों उग आती हैं। इधर आम की मंजरियाँ नव किसलयदल पेड़ों की शोभा में चार चाँद लगा देते हैं। खेतों में सरसों के पीले फूलों से तो पूरा परिदृश्य बदल जाता है।

वसंत वनस्पति जगत ही नहीं, प्राणी जगत को भी प्रभावित करता है। समस्त जीवजगत एक नई स्कूर्ति से युक्त दिखाई देता है। इसी उल्लास का प्रतीक है-बसंत । मनुष्यों के साथ-साथ पशु-पक्षी भी मस्त हो जाते हैं। तितलियाँ फूलों पर मँडराने लगती हैं। आम की मंजरियों से मुग्ध होकर कोयल ‘ कुहू-कुहू ‘ का रट लगाने लगती है। भौंरे क्यों चुप रहें, वे गुन-गुन करते हुए बागों में डोल रहे हैं।

कामदेव को वसंत का दूत माना जाता है। कामदेव उल्लास और उमंग के प्रतीक हैं। वे जीवन में उत्साह भरते हैं। इसी उत्साह से जीवन के सभी क्रियाकलाप संचालित होते हैं। वसंत ऋतु की इन्हीं खूबियों के कारण गीता में भगवान कृष्ण ने कहा था-ऋतुओं में मैं बसंत हूँ। इस ऋतु में वे ब्रजधाम में गोपियों के साथ नाचते थे। इस ऋतु में राधा शृंगार करते हुए कृष्ण के साथ रास करती होंगी।

आज की शहरी संस्कृति में वसंत पुराने समय जैसा उत्साह लेकर नहीं आता। एक तो प्राकृतिक वनस्पति का अभाव तो दूसरी तरफ काम की आपाधापी, लोग वसंत की शोभा देखने की फुर्सत कम ही निकाल पाते हैं। वसंत कब आता है, कब चला जाता है, कुछ पता ही नहीं चलता। पेड़ों के पत्ते कब झड़े, कब नए पत्ते उगे, कब कलियों ने अपना जादू चलाया, कब तितलियों और भौंरों ने इनका रसास्वादन किया, कुछ ज्ञात नहीं।