बगावत की बुनियाद पर सियासत की हॉटसीट बनी ‘दरभंगा’

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दरभंगा : बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने सीटों का ऐलान करते वक्त दावा किया था कि आगामी चुनाव में एनडीए को पिछले चुनाव से भी ज्यादा सीटें मिलेंगी। जेडीयू अध्यक्ष नीतीश कुमार ने तो उनसे भी आगे बढ़ते हुए 2009 के चुनाव से भी बेहतर प्रदर्शन का भरोसा जताया। एनडीए के दोनों नेताओं का यह कथन महज भाषणबाजी नहीं, बल्कि काफी होमवर्क करने के बाद हुए सीट बंटवारे के दौरान उभरे मानकों पर आधारित थे। आइए हम उन्हीं मानकों की कसौटी पर उत्तर बिहार की लोकसभा सीटों को एक—एक कर कसते हैं। आज इस कड़ी में हम दरभंगा लोकसभा सीट की ग्राउंड रिपोर्ट पेश कर रहे हैं। मिथिलांचल की सांस्कृतिक राजधानी दरभंगा हमेशा से चर्चित लोकसभा सीट रही है। यहां ब्राह्मण एवं मुस्लिम वोटर उम्मीदवारों का भविष्य तय करते हैं। यहां की राजनीति के मैदान में ललित नारायण मिश्र एवं पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र ने अपनी पहचान स्थापित की है। कभी काग्रेंस का गढ़ रहे इस अभेद्य किले को भेदने मे वर्तमान भाजपा सांसद कीर्ति झा आजाद ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पिछले तीन बार से यहां की जनता ने बीजेपी के झंडे को बुलंद किया। यह झंडा किन परिस्थितियों में बुलंद होता रहा यह भी चुनाव का महत्वपूर्ण भाग होता है।

क्या असर डालेगा कीर्ति आजाद का बागी रुख

वर्तमान हालात को देखें तो भाजपा सांसद कीर्ति आजाद के बागी होने के बाद पार्टी को यहां बड़ा नुकसान हुआ है। इसे भांपते हुए भाजपा ने यह सीट अपने सहयोगी जदयू को देने का मन बना लिया है। इसबीच जिन नेताओं को इस नुकसान में भी अपना फायदा और भविष्य दिखाई दे रहा था, उन्होंने भी पार्टी के नुकसान की भरपाई में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई। इन परिस्थितियों मे भाजपा कार्यकर्ताओं की नाराजगी भी इस सीट को जदयू के खाते मे जाने से नहीं रोक सकती। दरभंगा के विभिन्न दलों से जुड़े नेताओं की पूरे बिहार की राजनीति पर अपनी पकड़ है। राजद सुप्रीमो लालू यादव के करीब रहने वाले कद्दावर नेता भोला यादव, पूर्व मंत्री अली अशरफ फातमी एवं अब्दुलबारी सिद्दीकी को जहां सन ऑफ मल्लाह मुकेश सहनी की इंट्री ने परेशान कर दिया है, वहीं भाजपा के कद्दावर नेताओं एवं कार्यकर्ताओं को जदयू की अचानक बढ़ती दखलंदाजी रास नहीं आ रही। जदयू के तथाकथित उम्मीदवार संजय झा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के करीबी माने जाते हैं और स्थानीय लोगों में भी उन्होंने अपने करीब चुनींदा लोगों की एक विश्वसनीय टीम तैयार कर ली है। इन व्यक्तिगत लोगों को किसी पार्टी से अधिक अपने नेता के करीब रहना पसंद है। यही बात कार्यकर्ताओं के गले नहीं उतरती।

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फातमी, सिद्दीकी और मुकेश साहनी की मजबूरी

जातीय समीकरण के आधार पर अगर देखें तो वर्तमान स्थिति में मुक़ाबला कांटे का है। यहां पिछले लोकसभा चुनाव में वोटरों की कुल संख्या 1495446 थी। इसमे 828342 वोटरों ने अपना मतदान किया था। करीब तीन लाख मुस्लिम एवं साढ़े चार लाख सवर्ण मतदाता यहां के लोकसभा उम्मीदवारों का भविष्य तय करते हैं। राजद खेमे के माई समीकरण को देखें तो दो लाख यादव वोटरों के कारण उनकी स्थिति भी कमजोर नहीं दिखती। वहीं भाजपा एवं उसके सहयोगी दल अपने कुल सवा लाख वैश्य वोटरों के साथ बराबरी का दावा कर रहे हैं। इस बीच मुकेश सहनी अपने सवा लाख मल्लाह समाज के साथ राजद में प्रवेश कर सभी जातीय गणित को उलट-पलट कर चुके हैं। अब फैसला बचे हुए चार लाख दलित एवं कुर्मी समाज के वोटरों के हाथ में जाता दिख रहा है। जानकारों का मानना है कि अगर यह सीट पिछले लोकसभा चुनाव में 35043 वोट से हारने वाले राजद प्रत्याशी अली अशरफ फातमी को फिर दिया जाता है तो एनडीए को इसका फायदा मिल सकता है। दरभंगा से संभावित एनडीए उम्मीदवार संजय झा को पिछले लोकसभा चुनाव में 104494 मत प्राप्त हुए थे और इन वोटरों को किसी भी पार्टी का नहीं माना जा रहा है। कयास लगाया जा रहा है कि मल्लाह समाज को साधने के लिए निषादों के कद्दावर चेहरे की भी तालाश जारी है ताकि दशकों से भाजपा के वोटर रहे निषादों को साधा जा सके। निषाद प्रतिनिधियों के बीच चर्चा है कि अगर स्थानीय उम्मीदवार मुकेश सहनी को यहां से टिकट दे दिया जाता है तो कुछ हद तक आंतरिक टकराव को साधा जा सकता है। महागठबंधन में सीट बंटवारे को ले कर भी लोग मौन साधे हुए हैं। अब यह भविष्य के गर्भ में है कि आने वाले समय में दरभंगा में ऊंट किस करवट बैठता है।

अभिलाष चौधरी

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