पटना: चंद्रगुप्त साहित्य महोत्सव का उद्घाटन करते हुए बिहार के महामहिम राज्यपाल राजेंद्र विश्वनाथ आर्लेकर ने शनिवार को कहा कि साहित्य समाज का दर्पण है और यह हमें अन्य चीजों को देखने और समझने की दृष्टि देता है। बिहार की धरती की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि यहां की सभ्यता ने मानव कल्याण के लिए बहुत कुछ दिया है इसलिए यह स्वाभाविक है की राष्ट्रीय विषयों पर चिंतन इस भूमि पर हो।
उन्होंने कहा कि आचार्य चाणक्य के विचारों पर आज हमें चिंतन करने की आवश्यकता क्यों आन पड़ी है यह हमें विचार करना चाहिए। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात 4 वर्ष बाद भी हम यह विचार कर रहे हैं कि हमें किस दिशा में जाना है? भारत जब स्वतंत्र हुआ तो पूरा विश्व हमारी ओर आशा भरी दृष्टि से देख रहा था कि हम क्या करने वाले हैं। उस समय हमें खड़े होकर कहना चाहिए था कि विश्व कल्याण और मानव कल्याण का जो भारतीय चिंतन है हम उसे आगे बढ़ाएंगे और समस्त विश्व का कल्याण करेंगे। हमें यह बात मजबूती के साथ कहना था कि भारत के मूल्यों और परंपराओं के पुनर्जागरण का काल आ गया है और हमें उसे पूरा करना है। हम विश्व को बताएंगे कि हम विश्व गुरु बनने के योग्य ही हैं। इसके लिए हमें साहित्य की आवश्यकता है।
राज्यपाल ने कहा कि साहित्य केवल मनोरंजन नहीं बल्कि प्रबोधन एवं उद्बोधन भी है। इसलिए उन्होंने ऐसे साहित्य रचने पर बल दिया जिससे समाज का प्रबोधन हो सके। उन्होंने चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि आज की जो स्थिति है, आज हम पढ़ नहीं रहे हैं। उन्होंने इस बात पर बल देते हुए कहा कि हमें पढ़ने वाली पीढ़ी की निर्मिती करनी है। उन्होंने शिमला में राज्यपाल के रूप में कार्यकाल की चर्चा करते हुए कहा कि बच्चों में पढ़ने की रुचि जगाने वाले कार्य करने होंगे ताकि एक अध्ययन शील भावी पीढ़ी का निर्माण हो सके। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि अगर बच्चों को पढ़ने के लिए कहना है, तो सबसे पहले हमें स्वयं पढ़ने की आदत डालनी होगी।
इस अवसर पर कार्यक्रम के मुख्य अतिथि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने कहा कि आजादी के बाद येनकेन प्रकारेण वामपंथी साहित्यकारों ने विश्वविद्यालय संस्थाओं पर आधिपत्य जमा लिया, जिसके कारण राष्ट्रीय विचारों के साहित्य का प्रसार कम हुआ। उन्होंने स्वतंत्र वीर सावरकर द्वारा 1857 के संग्राम पर लिखी पुस्तक की चर्चा की और सन्यासी आंदोलन पर बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय की आनंदमठ की भी चर्चा की और राष्ट्रहित में साहित्य सृजन का महत्व रेखांकित किया।
सुनील आंबेकर ने अपने ‘स्व’ की चर्चा करते हुए कहा कि ‘स्व’ के आधार पर ही व्यवस्थाएं बननी चाहिए। इसी में ‘स्वभाषा’ भी है। कोई भी स्वतंत्र देश अपनी प्रकृति के अनुसार अपनी व्यवस्थाएं बनाता है। उसी के अनुरूप अपना मार्ग बनाता है। दुर्भाग्य से स्वतंत्रता के बाद हमने अपनी प्रकृति के अनुरूप अपनी व्यवस्था नहीं बनाई। यह साहित्य में भी दिखा। फलतः देश में स्खलन का दौर शुरू हुआ। भारत के मौलिक बातों को आघात करनेवाले साहित्य भी रचे गए। आपस में जोड़ने वाले साहित्य की रचना करनी चाहिए। मनोरंजन का पर्याय फूहड़ता नहीं होता।
कार्यक्रम की अध्यक्षता भारतीय रिजर्व बैंक के सेवानिवृत पदाधिकारी राजकुमार सिन्हा ने की। मंच पर इतिहास संकलन योजना के राष्ट्रीय संगठन मंत्री डाॅ. बालमुकुंद, विश्व संवाद केंद्र के अध्यक्ष श्रीप्रकाश नारायण सिंह, कार्यक्रम के संयोजक प्रो. राजेंद्र प्रसाद गुप्ता एवं कार्यक्रम के स्वागताध्यक्ष प्रो. अमरनाथ सिन्हा उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन नालंदा विश्वविद्यालय की डाॅ. स्मिता सिंह ने एवं धन्यवाद ज्ञापन कार्यक्रम के सह संयोजक मिथिलेश सिंह ने किया।