आदित्य की आराधना

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भारत की वैदिक ज्ञान परंपरा में प्रकृति को स्त्री एवं प्रकृति को संचालित करने वाली सत्ता को पुरुष माना गया है। पुरुष विराट ऊर्जा का संघनित संकल्प है, जिससे प्रकृति क्रियमान होती है। इसी रहस्य पर आधारित बिहार का सूर्य षष्ठी व्रत वास्तव में प्रकृति विज्ञान का लोकपर्व है। इस पर्व में प्रकृति को संचालित करने वाले सूर्य देव के साथ ही प्रकृति के प्रतीक माता षष्ठी की भी आराधना की जाती है। बिहार के लोक पर्व का प्रथम प्रमाण वाल्मीकि रामायण में मिलता है। बाल्मिकी रामायण के अनुसार अगस्त्य ऋषि ने रणभूमि में असहाय व चिंतित खड़े भगवान् श्रीराम को युद्ध में रावण पर विजय प्राप्ति के लिए “आदित्य हृदय स्तोत्र” का अमोघ मंत्र दिया था। आदित्य हृदय स्तोत्र में छठ व्रत के अनुष्ठान के शास्त्रीय सूत्र उपलब्ध हैं।

ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्।
रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम्।
दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम्।
उपगम्याब्रवीद् राममगस्त्यो भगवांस्तदा।
राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्मं सनातनम।
येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसे।
आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्।
जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम्।
सर्वमंगलमागल्यं सर्वपापप्रणाशनम्।
चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वर्धनमुत्तमम्।

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आदित्य हृदय स्तोत्र इन श्लोकों के साथ शुरू होता है। इसका अर्थ है लंका में श्रीरामचन्द्रजी युद्ध से थककर चिंतित मुद्रा में रणभूमि में खड़े थे। इतने में रावण भी युद्ध के लिए उनके सामने उपस्थित हो गया। संकट में राम को देख अगस्त्य मुनिश्रीराम के पास जाकर बोले-सबके ह्रदय में रमन करने वाले महाबाहो राम! यह सनातन गोपनीय स्तोत्र सुनो। इसकी साधना से तुम युद्ध में अपने समस्त शत्रुओं पर विजय पा जाओगे। इस गोपनीय स्तोत्र का नाम ‘आदित्यहृदय’ है। यह परम पवित्र और संपूर्ण शत्रुओं का नाश करने वाला है। इसके जप से सदा विजय की प्राप्ति होती है। यह नित्य अक्षय और परम कल्याणमय स्तोत्र है। सम्पूर्ण मंगलों का भी मंगल है। इससे सब पापों का नाश हो जाता है। यह चिंता और शोक को मिटाने तथा आयु का बढ़ाने वाला उत्तम साधन है।

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आदित्य हृदयस्तोत्र का 16 वां श्लोक छठ के कर्मकांड का मूल है। नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः, ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः। अर्थात पूर्वगिरी उदयाचल तथा पश्चिमगिरी अस्ताचल के रूप में आपको नमस्कार है। ज्योतिर्गणों (ग्रहों और तारों) के स्वामी तथा दिन के अधिपति आपको प्रणाम है। छठ व्रत में पहले अस्ताचलगामी सूर्य को अध्र्य दिया जाता है। इसके बाद दूसरे दिन उदयांचल से प्रकट होते आदित्य सूर्य को अध्र्य दिया जाता है। इन दोनों के बीच रात्रि काल में चंद्र और ग्रह-नक्षत्रों से सजें दरबार में उनके स्वामी सूर्य देव की कोसी पूजन की जाती है। आदित्य हृदय स्तोत्र में सूर्य को सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, पालनकर्ता विष्णु, ब्रह्मांड की संकल्प ऊर्जा शिव, आरोग्य प्रदाता अश्विनी कुमार एवं ऋतु नियंता बताया गया है। एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिव स्कन्दः प्रजापतिः। महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यापां पतिः। सूर्य षष्ठी व्रत करने वाले सूर्य देव से सम्पन्नता, आरोग्य, समृद्धि, यश आदि की कामना करते हैं।

कार्तिक व चैत्र शुक्ल की षष्ठी तिथि को मनाए जाने वाले ‘सूर्य षष्टी’ या ‘छठ’ पर्व के पीछे पौराणिक ही नहीं, वैज्ञानिक आधार भी छिपा हुआ है। दरअसल षष्ठी तिथि (छठ) एक विशेष खगोलीय घटना ह,ै क्योंकि इस समय सूर्य की पराबैंगनी किरणें पृथ्वी की सतह पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्र हो जाती हैं। यह लोक आस्था का पर्व है, जो जनसामान्य की दृढ़ आस्था से ओतप्रोत है। इसीलिए इसका वैज्ञानिक पक्ष थोड़ा गौण हो जाता है। सूर्य विज्ञान सम्मत प्रत्यक्ष देवता है। देवता का अर्थ जो समदर्शी, कृपालु और हमेशा सब जीवों को कुछ देने वाला हो।

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वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया है कि सामान्य दिनों में सूर्य के प्रकाश के साथ उसकी पराबैंगनी किरण जब पृथ्वी पर पहुंचती है, तो पहले उसे वायुमंडल मिलता है। वायुमंडल में प्रवेश करने पर उसे सबसे पहले आयन मंडल मिलता है। पराबंैगनी किरणों का उपयोग कर वायुमंडल अपने ऑक्सीजन तत्व को संश्लेषित कर उसे उसके एलोट्रोप ओजोन में बदल देता है। इस क्रिया द्वारा सूर्य की पराबैगनी किरणों का अधिकतर भाग पृथ्वी के वायुमंडल में ही अवशोषित हो जाता है। पृथ्वी की सतह पर केवल उसका नगण्य भाग ही पहुंच पाता है। सामान्य अवस्था में पृथ्वी की सतह पर पहुंचने वाली पराबंैगनी किरण मनुष्यों या जीवों के सहन करने की सीमा में होती है। इसीलिए उस समय मनुष्यों पर उसका कोई विशेष हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता। बल्कि, उस धूप से हानिकारक कीटाणु मर जाते हैं, जिससे मनुष्य या जीवन को लाभ ही होता है।

लेकिन, छठ जैसी खगोलीय स्थिति (चंद्रमा और पृथ्वी के भ्रमण तलों की सम रेखा की दोनों छोरों पर) सूर्यकी पराबैंगनी किरणें कुछ चंद्र सतह से परावर्तित तथा कुछ गोलीय अपवर्तित होती हुई, पृथ्वी पर पुनः सामान्य से अधिक पहुंच जाती हैं। वायुमंडल के स्तरों से आवर्तित होती हुई, सूर्यास्त तथा सूर्योदय को यह और भी सघन हो जाती है। ज्योतिषीय गणना के अनुसार यह घटना कार्तिक तथा चैत्र मास की अमावस्या के छह दिन बाद होती है। ज्योतिषीय गणना पर आधारित होने के कारण इसका नाम और कुछ नहीं, बल्कि ‘छठ’ पर्व ही रखा गया है। छठ पूजा ही एकमात्र ऐसा त्योहार है, जिसमें डूबते सूर्य को अघ्र्य दिया जाता है।

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सूर्य की शक्ति जीवन की प्रतीक मानी जाती है। मान्यता है कि सूर्य भगवान की उपासना करने से दीर्घायु मिलती है, तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति, घर-परिवार की सुख-समृद्धि में वृद्धि होती है एवं कुष्ठ जैसी बीमारियों का भी निवारण होता है। मूलतः प्रकृति पूजा की संस्कृति वाले अपने देश में सूर्य की उपासना के प्रमाण ऋग वैदिक काल से ही मिलने शुरू हो जाते हैं। भगवान सूर्य की गणना आदि देवों में की जाती है। सूर्य की पूजा के महत्व के बारे में विष्णु पुराण, भागवत पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण आदि में विस्तार से उल्लेख उपलब्ध हैं।

छठ पूजा के इतिहास की ओर दृष्टि डालें तो इसका प्रारंभ महाभारत काल में कुंती द्वारा सूर्य की आराधना व पुत्र कर्ण के जन्म के समय से माना जाता है। कर्ण की सूर्य साधना भी सर्व विदित है। एक कथा के अनुसार राजा प्रियंवद की कोई संतान नहीं थी। तब महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराकर उनकी पत्नी मालिनी को यज्ञाहुति के लिए बनायी गयी खीर दी। इसके प्रभाव से उन्हें एक पुत्र हुआ। लेकिन, मृत। शोकाकुल प्रियंवद पुत्र के शव को लेकर श्मशान गए और अपने प्राण त्यागने का उपक्रम करने लगे। उसी वक्त भगवान की मानस कन्या देवसेना प्रकट हुई और कहा कि सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के करण मैं षष्ठी कहलाती हूं। राजन तुम मेरा पूजन करो तथा और लोगों को भी प्रेरित करो। राजा ने पुत्र इच्छा से देवी षष्टी का व्रत किया और उन्हें पुत्र रत्न की प्रप्ति हुई। यह पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी।

सूर्य को कुछ मान्यताओं में छठ मईया का पुत्र कहा जाता है, तो कुछ मान्यताओं में भाई। और उन्हीं को प्रसन्न करने के लिए जीवन के महत्वपूर्ण अवयवों में सूर्य व जल की महत्ता को मानते हुए, इन्हें साक्षी मान कर भगवान सूर्य की आराधना तथा उनका धन्यवाद करते हुए मां गंगा-यमुना या किसी भी पवित्र नदी या पोखर के किनारे यह पूजा की जाती है। लेकिन, इन अलग-अलग मान्यताओं में एक बात जो सर्वमान्य है वह यह कि छठ मईया की पूजा बिना सूर्य की उपासना के नहीं होती। वाल्मीकि रामायण में ऋषि अगस्त्य द्वारा आदित्य हृदय स्तोत्र के रूप में सूर्यदेव का जो वंदन और स्तवन किया गया है, उससे उनके सर्वदेवमय-सर्वशक्तिमिन तथा दैदीप्यमान स्वरूप का बोध होता है।

लोक-आस्था का पर्व

छठ पर्व में दो प्रमुख बाते हैं, पहला देव पूजन एवं दूसरा संगतीकरण। इस पर्व के केन्द्र में हैं विज्ञान सम्मत प्रत्यक्ष देवता सूर्य और लोक आकांक्षा व लोक आस्था की देवी षष्ठी। सूर्य देव से लोक को भय है, वहीं षष्ठी माता से मनोकामनापूर्ण करने का हठ भी दिखता है। एक ओर यह कठिन तप और संयम वाला अनुष्ठान है तो दूसरी ओर संपूर्ण समाज को एक सूत्र में पिरो देने वाला लोक उत्सव भी है। भारत की सर्वसमावेशी संस्कृति के अनुरूप। इस अर्थ में यह महापर्व भारत का राष्ट्रीय पर्व है।

इस पर्व में देव पूजन का स्थान कोई मंदिर नहीं होता, बल्कि नदी तट, सरोवर व खुला आसमान होता है। घाटों पर सभी जाति-बिरादरी के लोग एकत्रित होते हैं। दंडवत देते घाट की ओर जाने वाले अनुष्ठानियों की जाति पूछे बिना लोग उन्हें प्रणाम करते हैं। यहां तक कि मुसलमान भी इस अनुष्ठान को करते हैं। सामाजिक समरसता और भारत की प्राचीन संस्कृति का व्यावहारिक स्वरूप ऐसा किसी दूसरे अनुष्ठानों में नहीं दिखता।

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सादगी और पवित्रता के इस पर्व में पूजा की सामग्री वही होती है, जो भारतीय ग्रामीण और किसानों की जीवन-परंपरा की दैनिक उपयोग में आती व सर्व सुलभ है। बांस का सूप, मिट्टी के बर्तन, गन्ना और गन्ने का रस, गाय का दूध, नारियल, सिंघाड़ा, अदरक, केला, नींबू, हल्दी, गुड़, चावल व गेहूं से बना प्रसाद आदि। छठ-पर्व आते-आते फसलें कटकर आने लगती हंै, जिन्हें सबसे पहले देवों को अर्पित किया जाता है। इस मौसम में ही इनमें से अधिसंख्य फल-मूल तैयार होते हैं और इन सबके साथ मन को गहरे तक छू जाने वाली लोकगीतों की स्वर-लहरियां गूंजती हैं।

बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश की सीमा का उल्लंघन करते हुए छठ व्रत अब लगभग पूरे देश में प्रचलित हो गया है। इसके साथ ही स्वच्छता, ईमानदारी जैसे सद्गुणों का व्यावहारिक संदेश देने वाली बिहार की लोकसंस्कृति अब देश-विदेश के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने लगी है। महाउत्सव छठ पर्व की पूरी प्रक्रिया ही जनसामान्य की रीति-रिवाजों के हिसाब से गढ़ी गई है। इस पर्व की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसे मनाने के लिए किसी भी तरह के विशेष कर्मकांड और पंडे व पुरोहितों की जरूरत नहीं है। शास्त्रीयता और पांडित्य को लोक अपनी शर्तों पर स्वीकार करता है और उसका मानवीकरण भी करता है।

आदित्य जायते वृष्टिः का अर्थ है कि सूर्य देव के तपने के कारण ही वृष्टि होती है और वृष्टि से पौधे होते हैं, जिससे सभी जीवों का पोषण होता है। सूर्य की उपासना भारत भूमि पर वैदिक काल से होती रही है। यह पर्व पूर्णतः शास्त्र सम्मत है। हां, इसके मनाने की प्रक्रिया अत्यंत सहज, सरल है, जिसे तथाकथित पढ़े-लिखे लोग भदेस मानते हैं। लेकिन, लोक के प्रचंड प्रभाव के कारण उनके मुंह अब नहीं खुलते।

लोक मूलतः हमारा कृषि आधारित समाज ही है। छठ को भी किसानी जीवन (लोक) ने अपना रंग कुछ उसी प्रकार दे दिया, जहां (लोक गीतों में) मां भगवती नीम की डाल पर झूला झूलती हैं और मालिन से पानी मांगती हैं। जहां सम्राट दशरथ की रानी कौशिल्या मचिया पर बैठती हैं। पूजा के लिए लाए गए केले के घौद पर मंडराते सुग्गा (तोता) को धनुष से जान से नहीं मार डालने, बल्कि मूर्छित करने की बात होती है और उसको जीवन दान के वास्ते आदित्य से आराधना, भइया से छठ पर पूजा की मोटरी लाने व धरती की हरितिमा और सघन करने का आग्रह, परदेसी पति को अपनी जमीन से उखड़ने के दर्द को उत्सवधर्मिता से हटा दिया जाता है। शायद इसीलिए इसे लोक आस्था का महापर्व भी कहा जाता है।

निभा पांडेय 

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