सिनेमा विधा की सदुपयोगिता इस बात में अधिक है कि वह लोगों का मनोरंजन के अतिरिक्त अपने दर्शकों को कैसे परिपक्व बनाती है। गुणी अभिनेता आर. माधवन पहली बार निर्देशक की कुर्सी पर बैठे, तो ’राॅकेट्रीः दि नांबी इफेक्ट’ जैसी फिल्म सामने आई। यह उन फिल्मों की फेहरिस्त में है, जो भारतीय सिनेमा के स्तर को शिखर तक ले जाने को प्रतिबद्ध है। पान सिंह तोमर, भाग मिल्खा भाग, नीरजा, मैरी कौम, सरबजीत, सुपर थर्टी, मणिकर्णिका, बिग बुल, शेरशाह, सरदार उधम, सैम बहादुर जैसी फिल्मों ने देश के नामी या गुमनाम नायकों को रुपहले पर्दे के माध्यम से लोगों के बीच उनके कृतित्व को सशक्तता से रेखांकित कर उद्घाटित किया है। ’राॅकेट्रीः दि नांबी इफेक्ट’ ने उसी कड़ी को रोचकता के साथ अग्रसारित किया है।
भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के प्रमुख वैज्ञानिकों में शुमार नांबी नारायणन के जीवन की रपटीली राहों को ’राॅकेट्रीः दि नांबी इफेक्ट’ के कथानक का आधार बनाया गया है। जब भारत साॅलिड प्राॅप्लेंट इंजन को लेकर ही संघर्ष कर रहा था, उस जमाने में नांबी महोदय ने लिक्विड प्राॅप्लेंट इंजन बनाने का साहस किया और तुरंत बाद फ्रांस जाकर क्रायोजेनिक इंजन बनाने की तकनीक सीख ली और सफलतापूर्वक भारत के लिए इंजन बनाकर राॅकेट विज्ञान के क्षेत्र में राष्ट्र को विश्व की अग्रिम पंक्ति में स्थापित कर दिया। विडंबना देखिए कि इसरो में नांबी नारायणन के साथी रहे डाॅ. कलाम को ’भारत रत्न’ से लेकर राष्ट्रपति तक का पद प्राप्त हुआ, जबकि भारत के महान सपूत नांबी को राजनीतिक कारणों से नारकीय कष्ट भोगना पड़ा। अभिनेता-निर्देशक रंगनाथन माधवन ने नांबी महोदय पर फिल्म बनाकर पूरे देश की ओर से एक प्रकार का प्रायश्चित किया है।
किसी भी बायोपिक में संपूर्ण जीवनी दिखाना संभव नहीं है। ’राॅकेट्रीः दि नांबी इफेक्ट’ भी इसी सिद्धांत पर टिकी है। नांबी महोदय के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं के आधार पर एक कथानक तैयार किया गया और उसे नाटकीय स्वरूप प्रदान कर फिल्म पूरी की गई। नांबी के आरंभिक दौर में उनके गुरु विक्रम ए. साराभाई का चित्रण प्रभावी है। ज्ञात हो कि विक्रम साराभाई पर गत वर्ष ’राॅकेट बाॅयज़’ शीर्षक से वेबसिरीज आई है। ’राॅकेट्रीः दि नांबी इफेक्ट’ के संपूर्ण चलचित्र पर माधवन की छाप है। इस लिहाज से रॉकेट्री को ‘दि माधवन इफेक्ट’ कहा जाए, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। लगभग हर दृश्य में वे नजर आते हैं। नांबी के युवावस्था से लेकर उनके वृद्धावस्था तक को माधवन ने बखूबी पर्दे पर उतारा है। केवल संवाद ही नहीं, पूरी बाॅडी लैंग्वेज से उन्होंने नांबी के पात्र को साधा है। माधवन के बाद नांबी की पत्नी मीना नारायणन का किरदार निभाने वालीं सिमरन का अभिनय मार्मिक है। उनका अभिनय मन को छू लेता है। बाकी के सहायक अभिनेताओं ने भी इमानदारी से अपना काम किया है। विशेषकर विक्रम साराभाई के किरदार में रजित कपूर ने मिले मौके के अनुसार अपना काम किया है, नांबी की संतानों व राॅकेट विज्ञान में उनके सहयोगियों के पात्र भी कुशलता से निभाए गए हैं।
मुख्य भूमिका निभाने के साथ-साथ माधवन पर निर्देशन का भी दायित्व था। दोनों दायित्वों को एक साथ साधने में माधवन सफल रहे हैं, क्योंकि ढाई घंटे से ऊपर की यह फिल्म कभी भी अपने पथ से भटकती नहीं है। एक साक्षात्कार को केंद्रबिंदु बनाकर अरेखिए कथानक को प्रस्तुत किया गया है। दृश्यों में गति एवं वैविध्य होने के कारण कहीं भी नीरसता का बोध नहीं होता। गंभीर विषय को परिस्थ्तिि के अनुरूप रोचक बनाने का प्रयास हुआ है। जैसे फ्रांस जाने वाले भारतीय वैज्ञनिक दल की फाइल पर स्वीकृति के लिए नांबी नारायणन (माधवन) अपने बाॅस से कहते हैं- ’’आप अपना आशीर्वाद इस फाइल में छाल दीजिए।’’ दूसरा उदाहरण रूस के दृश्य में है जब रूसी सुंदरी से परिचय के वक्त नांबी का साथी वैज्ञानिक न चाहते हुए भी आवाक् रह जाएगा।
साठ के दशक का भारत व अमेरिका, सत्तर-अस्सी के दशक का फ्रांस, साइबेरिया के बर्फिले क्षेत्र से लेकर दक्षिण भारतीय मांगलिक कार्य व खान-पान आदि तक का रोचक व प्रभावी फिल्मांकन माधवन ने किया है। पहली निर्देशकीय फिल्म के लिहाज से वे कहीं भी नौसिखिए नहीं लगे हैं। हां, दो-तीन अवसरों पर राॅकेट विज्ञान तकनीक से जुड़े संवादों को उपदेशात्मक शैली में बोला गया है, जो डाॅक्यूमेंट्री के लिए अधिक उपयुक्त होता है। तथापि, बायोपिक में प्रयोग की सीमित संभावना होती है और तथ्यों के साथ छेड़छाड़ की मनाही भी होती है। ऐसे में उतनी छूट माधवन को मिलनी चाहिए। बायोपिक में 60 के दशक के लैंडस्केप दिखाने से लेकर राॅकेट प्रक्षेपण के दृश्यों में वीएफएक्स का उपयोग करना, फिल्म निर्माण का यह विस्तृत क्षितिज है, जिसे माधवन ने निर्देशक के तौर पर कुशलपूर्वक साधा है।
रंगनाथन माधवन एक पेशेवर अभिनेता हैं। चार वर्षों के कड़े परिश्रम के बाद उन्होंने ’राॅकेट्रीः दि नांबी इफेक्ट’ बनायी है। इस अवधि में उन्होंने धनार्जन हेतु कोई भी कार्य नहीं किया, ताकि नांबी महोदय की कहानी पर सारा ध्यान केंद्रित कर सकें। कहानी तैयार करने के बाद जब माधवन ने उसे नांबी महोदय के समक्ष प्रस्तुत किया, तो दिग्गज वैज्ञानिक ने उसमें कुछ संशोधन करने के सुझाव दिए। इस संशोधन कि कारण डेढ़ वर्ष अतिरिक्त लग गए। इससे ज्ञात होता है कि माधवन ने कितनी शिद्दत से इस प्रोजेक्ट पर अपनी ऊर्जा लगायी है। एक फिल्म के लिए इतना तपने के बाद वे आत्मविश्वास से लबरेज हैं, तभी फिल्म प्रोमोशन के दौरान वे छाती ठोककर कहते हैं कि अच्छी फिल्में 40 दिनों में नहीं बनतीं। यह एक तंज है।
इस फिल्म ने रिलीज के पहले सप्ताह में अच्छी कमाई नहीं की। कारण था कि भारत के गौरव को महिमांडित करने वाली कोई भी चीज मीडिया के एक खास वर्ग को सूट नहीं करता है। जैसे आरंभिक दृश्य में ही ’उत्तिष्ठोत्तिष्ठः गोविंद उत्तिष्ठः गरुडध्वज।/उत्तिष्ठः कमलाकान्त त्रैलोक्यं मंगलं कुरु।।’ श्लोक का पाठ सुनकर भी कुछ लोगों को कष्ट हुआ होगा। यही कारण है कि इतने जतन से बनायी गई इस शानदार फिल्म को लेकर आरंभ में उदासी का भाव रहा। लेकिन, माउथ पब्लिसिटी के बाद दूसरे सप्ताह से माधवन की मेहनत का रंग चटख हुआ और एक जरुरी व्यक्ति व उनके साथ घटी दुर्घटना को देशवासियों ने उत्साह एवं आदर पूर्वक देखना शुरू किया। भारतीय सिनेमा को एक आवश्यक फिल्म देने के लिए आर. माधवन को बधाई।