पठान की रिलीज से पहले…. सिनेमा में ‘भारत’ ढूंढता दर्शक

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शाहरुख खान अभिनीत ‘पठान’ कल यानी 25 जनवरी को रिलीज होने वाली है, जो 2023 की पहली बड़ी रिलीज होगी। यह फिल्म शाहरुख के चेहरे और अपने कंटेंट के दम पर चलेगी या नहीं चलेगी। लेकिन, इसके साथ ही बॉयकॉट ट्रेंड का भी थोड़ा असर होगा। यह बॉयकॉट ट्रेंड भले ही सतही लगे। लेकिन, यह उस विमर्श का अंशमात्र लक्षण है, जो भारतीय सिनेमा में विगत कुछ वर्षों से जारी है। उस विमर्श के केंद्र में सबसे महत्वपूर्ण बात है— सिनेमा में भारतीयता होना अथवा इसी बात को उलटकर कहें तो— अभारतीय सिनेमा से परहेज। यद्यपि यह ब्रह्मांडीय सत्य है कि फिल्में अपने कंटेंट के दम पर ही चलतीं हैं, तथापि विमर्श के प्रभाव से इनकार नहीं किया जा सकता।

भारतीय सिनेमा के इतिहास में वर्ष 2022 को विमर्श का वर्ष कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी, क्योंकि इस पूरे वर्ष सिनेमा में ’भारतीयता’ के होने और न होने के बीच एक अदृश्य कसमकस चलती रही। हालांकि कोरोनाकाल के बाद आम भारतीयों की परिवर्तित मनःस्थिति के कारण इस विमर्श की पटकथा 2020 के उत्तरार्ध से शुरू हो गई थी। लेकिन, इस बदलते विमर्श का प्रकटीकरण 2022 में स्पष्ट तौर पर दिखने लगा, जो 2023 में भी जारी रहेगी। इसका एक सहज तरीका है कि किसी भी सामान्य फिल्म प्रेमी से पूछा जाए कि 2022 में उसे कौन-कौन सी फिल्में पसंद आईं? यह भी पूछा जा सकता ळै कि उसने कौन-कौन सी फिल्में देखीं या 2023 में कौन सी फिल्म देखना चाहता है? पांच फिल्मों में से तीन दक्षिण भारत की फिल्में होंगी। यह स्थिति हिंदी पट्टी की है।

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दक्षिण दिखा रहा दम

याद कीजिए 80 व 90 के दशक को जब दक्षिण भारतीय फिल्मी चेहरों के नाम पर ले-देकर कमल हासन, रजनीकांत, वेंकटेश या नागार्जुन को उत्तर भारत के दर्शक पहचानते थे, वह भी इसलिए क्योंकि ये सारे कलाकार यदाकदा हिंदी फिल्मों में भी नजर आते थे। आज स्थिति उलट है। प्रभाष, सूर्या, यश, अल्लु अर्जुन, धनुष, विजय, महेश बाबू, जूनियर एनटीआर आदि ऐसे नाम हैं जिन्हें हिंदी पट्टी का बच्चा भी न केवल जानता है, बल्कि उनका फैन भी है। हालांकि 2022 में जो असर दिख रहा है, उसका बीजारोपण 2015 में आयी ’बाहुबली-1’ से हुआ था। उसके बाद से ’आई’ (2015), ’बाहुबली-2 (2017) ’2.0’ (2018), केजीएफ-1 (2018), साइरा नरसिह्मा रेड्डी (2019), जल्लीकट्टू (2019), दरबार (2020) जैसी फिल्मों ने बड़े पर अपना दम दिखाकर केवल हिंदी क्षेत्र ही नहीं, बल्कि अखिल भारतीय स्तर पर दक्षिण सिनेमा को सर्वस्वीकार्य बनाने की जमीन तैयार कर दी। इससे बड़े बदलाव से करीब एक दशक पहले से छोटे पर्दे पर दक्षिण की फिल्में विशेषकर तमिल व तेलुगु फिल्मों को हिंदी में डबकर परोसा जाता रहा है और हिंदी के दर्शक बड़े चाव से उसका आनंद लेते रहे हैं। यही कारण है कि उत्तर भारत में तेलुगु सिनेमा के हास्य कलाकार ब्रह्मानंदम की लोकप्रियता जाॅनी लीवर, राजपाल यादव से जरा भी कम नहीं है।

एक के बाद एक दक्षिण की फिल्मों की सफलता के कारण मुंबई में बैठे सिनेमाई सुल्तानों की नींद उड़ा दी है। अब तो हिंदी फिल्मों वाले अपनी फिल्म रिलीज करने से पहले यह सुनिश्चित कर रहे है ंकि दक्षिण भारत की कोई फिल्म उसी तिथि पर रिलीज नहीं हो। दक्षिण से टकराने का हश्र ’बच्चन पांडेय’, ’झुंड’ या ’जर्सी’ के निर्माता देख चुके हैं। पहले आरआरआर व बाद में केजीएफ-2 की आंधी में कई हिंदी फिल्में उड़ गईं। पुष्पा ने 326 करोड़ बटोरकर जो धमाकेदार दस्तक दी, उसे आरआरआर ने एक महीने के अंदर 1100 करोड़ और केजीएफ-2 ने 1200 करोड़ का करोबार कर फिल्म उद्योग के पंडितों को नए सिरे से विचार करने को विवश कर दिया। उसके बाद आयी सीता-रामम, कंतारा, पीएस-1 ने सफलता के उस सिलसिले को जारी रखा है।

प्रश्न है कि यूरोप में शूटिंग कर और अपने मन की कहानी परोस कर भारत के छोटे शहरों व कस्बों से भी पैसा बटोर लेने वाला हिंदी सिनेमा का फाॅर्मूला क्या फेल हो गया है? हिंदी फिल्मों के मुकाबले लोग दक्षिण के सिनेमा को क्यों तरजीह से दे रहे हैं? राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म समीक्षक विनोद अनुपम इस पर कहते हैं कि हिंदी सिनेमा ने हिंदी पट्टी को कभी अपना माना ही नहीं। हिंदी के दर्शक हिंदी फिल्मों से उस प्रकार नहीं जुड़ पाए, जैसे तमिल, तेलुगु, बांग्ला, मराठी फिल्मों के दर्शक उन फिल्मों से जुड़ते हैं। केवल भाषा की सुगमता चलते हिंदी भाषी दर्शक मुंबइया सिनेमा देखता रहा। दक्षिण की ओर से जैसे ही उसे विकल्प मिला, वह उधर सरक गया।

’भारतीयता’ का समावेश होना पहली शर्त

जड़ से जुड़ी कहानियों वाली फिल्में यानी भारतीय सिनेमा में ’भारतीयता’ का समावेश होना वह पहली शर्त है जो दर्शकों को कनेक्ट करती है। देश की संस्कृति, परंपरा, जीवन मूल्य से जुड़ी कहानियां दर्शकों को भाती हैं। रिकाॅर्डतोड़ कमाई करने वाली कांतारा से प्रसिद्ध हुए निर्देशक-अभिनेता ऋषभ शेट्टी मीडिया को दिए एक बयान में कहते हैं कि हमें यह देखने की जरूरत है कि दर्शकों के मूल्य और जीवन के तरीके क्या हैं? इस दृष्टिकोण को आज बाॅलीवुड निर्माता भूल रहे हैं। कांतारा में वनवासी समाज की ’भारतीयता’ के आख्यान को रेखांकित किया गया, जिसे भारत के हर क्षेत्र के लोगों ने आत्मसात किया, जबकि हिंदी सिनेमा ने इस तरह की कहानियों में ’स्टेट ही शोषक’ का आख्यान स्थापित किया। जिन दर्शकों के टिकट के पैसों पर फिल्मकारों व सितारों की कई पीढ़ियां सुख भोग रही हैं, वे उन दर्शकों के मूल्यों से ही खिलवाड़ करते रहे। विकल्प न होने के कारण हिंदी भाषी समाज उन्हें देखता रहा।

जो बात आज ऋषभ शेट्टी कह रहे हैं, सौ साल पहले दादासाहेब फाल्के ने वही काम अपनी फिल्मों में किया यानी भारतीय संस्कृति, मूल्य को पर्दे पर उतारा और अप्रत्याशित सफलता अर्जित की। आज दक्षिण की फिल्में फाल्के के सूत्र को आत्मसात कर सफलता के नए प्रतिमान गढ़ रही हैं। बदलते विमर्श का एक और उदाहरण देखिए। ब्रिटिश राज के कालखंड पर 2022 में दो फिल्में आईं- तेलुगु में आरआरआर और हिंदी में शमशेरा। आरआरआर में जहां भारतीय मूल्यों की कथा है, वहीं शमशेरा में मुख्य विलेन को शिखा व टीका में दिखाया गया है और उसका नाम भी शुद्ध सिंह रखा गया है। यानी हिंदू प्रतीकों व हिंदी भाषा के ’शुद्ध’ जैसे पवित्र शब्द को नकारात्मक शैली में प्रस्तुत किया गया। इस साल दक्षिण भारत के फिल्मों के अतिरिक्त हिंदी के किसी एक फिल्म का सबसे अधिक जलवा रहा, तो वह ’दि कश्मीर फाइल्स’ है। मेकिंग के लिहाज से यह फिल्म साधारण हो सकती है। लेकिन, कश्मीरी हिंदुओं के विस्थापन का जो पक्ष इसने प्रस्तुत किया, वह आजतक किसी अन्य हिंदी फिल्म ने नहीं की।

बाॅयकाॅट के बाद…

यह सही है कि जून-2020 में सुशांत सिंह राजपूत के गुजरने के बाद से बाॅयकाॅट बाॅलीवुड का ट्रेंड पकड़ा है, फिर भी फिल्में अपने कंटेंट के बल पर ही चलती हैं या लुढ़कती हैं। भारत खासकर उत्तर भारत का दर्शक अपनी जड़ों व मूल्यों वाले कंटेंट तलाश रहा है, जो उसे फिलहाल दक्षिण का सिनेमा उपलब्ध करा रहा है। ओटीटी के आने से दर्शक के पास विकल्प की कमी नहीं रह गई है। सबसे महत्वपूर्ण बात की आजादी के अमृतकाल में भारत को गाली देने वाली व परंपरा का उपहास करने वाल कहानियों के दिन लद गए। बंबइया फिल्मकार जितनी जल्दी यह बात समझ लें, उनके लिए अच्छा होगा।

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