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गुलमोहर: रिश्तों में रंग घोलने की कोशिश

प्रशांत रंजन

भारतीय समाज के लोग उत्सव प्रेमी होते हैं और इस बात को हिंदी सिनेमा ने भी समझा है। यही कारण है कि भारत में मनाए जाने वाले लगभग हर प्रमुख पर्व-त्योहारों को हिंदी सिनेमा ने अपने तरीके से परदे पर प्रस्तुत किया है। होली एक ऐसा त्यौहार है जिसे संभवतः सर्वाधिक बार हिंदी सिनेमा ने अपने फलक पर जगह दी है। इस वर्ष होली के समय ऐसी ही एक हिंदी फिल्म आई है- गुलमोहर। राहुल चतेला के निर्देशन में बनी इस फिल्म के मुख्य आकर्षण मनोज बाजपेई और शर्मिला टैगोर हैं।

बत्रा परिवार संयुक्त रूप से दिल्ली के गुलमोहर विला में विगत 34 वर्षों से रह रहा है। अब सबके रास्ते अलग होने वाले हैं। गुलमोहर विला से हमेशा के लिए निकलने से ठीक पहली वाली रात को कुसुम बत्रा (शर्मिला टैगोर) परिवार के सभी सदस्यों को इकट्ठा कर होली इस बार की होली मनाने के लिए 4 दिन और इस विला में रुकने की गुजारिश करती हैं और उन्हीं अगले चार दिनों की घटनाएं अगले 2 घंटे तक फिल्म के कथानक के रूप में हमारे समक्ष दृष्टिगत होती हैं।

बत्रा परिवार की तीन पीढियां एक-दूजे से सामंजस्य स्थापित करने की जद्दोजहद करते हैं। यह हर भारतीय परिवार करता है। खून से बने रिश्तों को प्रेम के धागे से जोड़कर रखना होता है। अलगाव हमेशा पीड़ा देता है। इससे बचने के लिए हृदय का मिला रहना आवश्यक है। याद कीजिए साठ के दशक में बनने वाली पारिवारिक फिल्में, जो इन भावों को सरस रूप में व्यक्त करती थीं। या राजश्री प्रोडक्शन, ऋषिकेश मुखर्जी , बासु चटर्जी की फिल्में। गुलमोहर उन्हीं फिल्मों की जुगाली है। लेकिन, नई सदी के नए रंग के साथ।

अगर यह कहा जाए कि गुलमोहर के कथन से ज्यादा आकर्षक उसका कहन है, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ऐसा इसलिए क्योंकि कथानक के स्तर पर गुलमोहर कई बार बत्रा परिवार से विषयांतर हो जाती है। बत्रा परिवार के घर में काम करने वालों की जिंदगी पर भी गुलमोहर प्रकाश डालती है और इस चक्कर में कथानक के फोकस प्वाइंट से बत्रा परिवार थोड़ा सा ओझल हो जाता है। होली उत्सव के साथ फ़िल्म संपन्न होती है। कथा को गंतव्य तक पहुंचाए बिना। अगर पहले दृश्य में हुए निर्णय के अनुसार होली के बाद सबको अलग ही शिफ्ट हो जाना था, तो इन 4 दिनों में जो बेरंग हो रहे रिश्तो में रंग घोलने की कोशिश थी, उसका क्या तुक रह जाता है? निर्देशक को इन बिंदुओं पर ध्यान देना चाहिए था। गुलमोहर के निर्देशक राहुल चित्तेला मीरा नायर के सहायक रहे हैं। मीरा की छाप राहुल पर दिखती है। खासकर कुसुम की कॉलेज लाइफ या अमृता की सहेली वाले दृश्यों में। लेकिन, मीरा की नाप के जूते पहनने के लिए राहुल को अभी परिश्रम करना होगा।

कुसुम बत्रा के किरदार में शर्मिला जी न केवल फिट हैं, बल्कि अपनी डिस्पोजिशन से उसे और भी आकर्षक बना दिया है। वरिष्ठ अदाकारा ने शानदार वापसी की है। उनका संभाल कर संवाद बोलना… दर्शक इत्मीनान से इंतज़ार करते हैं कि कब सीनियर बत्रा अगली बात कहें। यह प्रशंसनीय है। कुसुम के बेटे अरुण बत्रा के किरदार में मनोज बाजपेई ने जान डाल दिए दी है। जीवन के पांचवें दशक में पहुंच चुका अरुण किस प्रकार से अपने मां का आज्ञाकारी पुत्र तो है लेकिन एक असंतुष्ट पिता भी है, इस मनोभाव के प्रस्तुतीकरण में मनोज बाजपाई ने गजब का संतुलन दिखाया है। मनोज दर्शकों को सम्मोहित कर लेते हैं। अरुण की पत्नी इंदिरा बत्रा (सिमरन) गुलमोहर विला की सारी जिम्मेदारियां ओढ़कर चल रही है। छोटे से किरदार में अमोल पालेकर याद रह जाते हैं। तलत अजीज दाल में तड़के की भांति उपस्थित हैं। अन्य पात्रों के अतिरिक्त गुलमोहर विला भी एक मजबूत पात्र है, जिसके इर्दगिर्द बाकी किरदार घूमते हैं। हां, दिल्ली शहर की उपस्थिति थोड़ी और होनी चाहिए थी।

आज जब एक ओर ओटीटी पर वेब सीरीजों में अश्लीलता और हिंसा का आधिक्य है और दूसरी ओर बड़े पर्दे पर अरबों रुपए की लागत से एक्शन-फंतासी रचे जा रहे हैं, ऐसे समय में गुलमोहर सिनेमाई माध्यम का एक मीठा तोहफा है, जो होली के उपहार स्वरूप ओटीटी के माध्यम से सीधे सिने प्रेमियों के घर आया है। फास्ट पेस स्क्रिप्ट के जमाने में गुलमोहर एक ठहराव की वकालत करता है। लंबी सांस लेकर मौन को सुनने का संकेत करता है। मिलेनियल्स और जेन ज़ी अगर करियर और कामयाबी से परे रिश्तों का मोल समझते होंगे, तो उन्हें गुलमोहर की सुगंध पसंद आएगी।