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दि केरल स्टोरी: करारा प्रहार से बदनीयती बेनकाब

प्रशांत रंजन

सिनेमा अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम है। लोकप्रिय व व्यावसायिक फिल्म उद्योग में मन के हल्के उद्गार को भी इस प्रकार प्रस्तुत कर दिया जाता है कि देखने वालों के मन पर गहरा असर होता है। उसमें भी अगर किसी क्रूर सत्य पर फिल्म बनाई जातह है, तो उसकी छाप और भी अधिक तीक्ष्ण हो जाती है। सुदीप्तो सेन द्वारा हालिया निर्देशित फिल्म ’दि केरल स्टोरी’ ऐसी ही है। बलात् मतांतरण के बाद केरल प्रांत से गायब हो रही लड़कियों की आपबीती को चार लड़कियों की कहानी बनाकर प्रस्तुत किया गया है, जिसमें तीन पीड़िता हैं।

’दि केरल स्टोरी’ की कहानी सरल है, जिसके केंद्री में तीन पात्र हैं। शालिनी उन्नीकृष्णन उर्फ फातिमा बा (अदा) को आईएस आतंकी होने के अपराध में अमेरिकी सैनिकों द्वारा पकड़ा जाता है, जहां पूछताछ के दौरान वह अपनी आपबीती सुनाती है। उसकी आपबीती ही पूरी फिल्म की कहानी है, जो फ्लैशबैक के बाद से सामने आती है। पहले दृश्य में शालिनी को दिखाकर, फिर उसके काॅलेज के दिनों की कहानी को एक बाद एक फ्लैशबैक के माध्यम से जब दिखाया जा रहा होता है, तो सपाट कथानक के बीच भी दर्शकों में यह उत्सुकता बनी रहती है कि आखिर शालिनी फातिमा बनकर उस दर्दनाक परिस्थिति तक पहुंची कैसे? इस उत्सुकता के कारण सवा दो घंटों में आप ऊबते नहीं हैं। सुदीप्तो सेन की यह निर्देशकीय सफलता है।

काल्पनिक कहानी को मनचाहे ढंग से प्रस्तुत कर सकते हैं। लेकिन, तथ्यों के आधार पर कथा बुनने और उसे पात्रों के माध्यम से व्यक्त करने में की अपनी सीमाएं हैं। ये सीमाएं ’दि केरल स्टोरी’ में भी परिलक्षित होती हैं। जैसे यथार्थ के पात्रों का खुरदुरा व गहरा चित्रण होना चाहिए। लेकिन, सेन की टीम ने शालिनी उन्नीकृष्णन (अदा शर्मा) समेत उसकी सहेलियों गीतांजलि (सिद्धि इदनानी) और निमा मैथ्यू (योगिता बिहानी) का चित्रण आदर्शात्मक बनाने के चक्कर में हल्का बना दिया है। हिंदू लड़कियों के पात्र इस प्रकार गढ़े गए हैं कि वे हर दृश्य में अनिवार्य रूप से रिसिविंग एंड पर हैं। उनके मुंह पर उनके अराध्यों का अपमान किया जाता है और वे प्रत्युत्तर में कुछ कह नहीं पातीं, क्योंकि कुछ जानती ही नहीं हैं।

हालांकि, इस बीच आसिफा (सोनिया बलानी) के किरदार में नाटकीय ही सही, परंतु गहराई है। दूसरी सीमा, कथा के सिक्वेंस को लेकर है। लोभ या षडयंत्र से इस्लाम कबूल करवाने का खेल और आतंकी संगठन के नापाक मंसूबों के बीच कहानी बंटी लगती है, जिसे पैच करने की कोशिश है। तीसरी सीमा, एक अतिआवश्यक व अतिगंभीर सामाजिक व राष्ट्रीय मुद्दे पर कहानी होने के बावजूद यह देश-समाज से कटी सी लगती है। मतलब तीन पीड़िता व उनका परिवार और दूसरी ओर आसिफा व उसके पुरुष सहयोगी के अलावा मीडिया, सरकार, राजनेता आदि की सहभागिता नहीं दिखती, जबकि इस विषय पर विगत एक दशक से लगातार मीडिया में खबरें आती रहीं है। केरल के दो मुख्यमंत्रियों से लेकर वहां के चर्च के फादर तक इस पर चिंता व्यक्त कर चुके हैं। इस लिहाज से इसकी कहानी को इसोलेटिंग टेंडेंसी से बचाना चाहिए था।

शिल्प की दृष्टि से आंकें, तो पृष्ठभूमि और किरदारों को स्थापित करने में जल्दबाजी की गई है। दुष्कर्म के दृश्य सपाट और सतही लगते हैं। इन्हें सूक्ष्म अंदाज में फिल्माया जा सकता था। लेकिन, गुणी फिल्मकार ने संभवतः मात्रात्मक तीक्ष्णता को दिखाने के लिए ऐसा किया हो। ’दि कश्मीर फाइल्स’ में चौबीस कश्मीरी हिंदुओं को पंक्तिबद्ध कर सिर में गोली मारने का दृश्य भी मात्रात्मक तीक्ष्णता का फिल्मांकन है। कुछ लोग दि केरल स्टोरी को ’दि कश्मीर फाइल्स’ का केरल संस्करण कह रहे हैं और दोनों फिल्मों को एक साथ कोस रहे हैं, क्योंकि ये दोनों फिल्में उन्हें पाॅलिटकली सूट नहीं करती हैं। असल में ये दोनों फिल्में उस थर्ड सिनेमा की राह पर हैं, जो साठ के दशक में लैटिन अमेरिका में शुरू हुआ था। ’दि केरल स्टोरी’ नफरती, विभाजनकारी व सांप्रदायिक इकोसिस्टम पर सीधी चोट करती है। इसके के परिणाम स्वरूप इस जमात के झंडाबरदारों की कुंठा व कुढ़न इस फिल्म के विरोध के रूप में सामने आ रहे हैं।

यह ठीक है कि किसी भी रचनात्मक कार्य में परफेक्शन की गुंजाइश हमेशा बची रहती है। इस मायने में इस फिल्म में भी चंद तकनीकी गड़बड़ियां हो सकती हैं। लेकिन, जिस आधार पर इस फिल्म का विरोध हो रहा है, वह आधार ही निराधार है। विरोधियों को इस बात से तकलीफ है कि 32 हजार लड़कियों के गायब होने का दावा कर केवल तीन की कहानी क्यों दिखाई? इस हिसाब से तो शिंडलर्स लिस्ट में स्टीवन स्पील्बर्ग साहब को लाखों लोगों के कत्लेआम को दिखाना चाहिए था। ’दि केरल स्टोरी’ में तीन पीड़िताओं को दिखाया गया है। तीन की जगह एक भी पीड़िता पात्र को सूत्रधार बनाकर कथा कही जाती, तब भी यह प्रभावी होती। सेन के तीन पात्र पर्याप्त हैं। दूसरा कुतर्क है कि भारत से जितने लोग आतंकी संगठन में गए हैं, उनकी संख्या यूरोपीय देशों के मुकाबले आनुपातिक दृष्टि से कम है। यह तो कुछ ऐसा है कि किसी हत्यारे ने पूरी जिंदगी में केवल एक ही हत्या की हो, तो उसे अपराधी न माना जाए। यह कितनी बड़ी विडंबना है कि जो लोग डफली लेकर दिन-रात अभिव्यक्ति की आजादी का राग अलापते हैं, वे ’दि केरल स्टोरी’ की अभिव्यक्ति का विरोध कर रहे हैं! ’दि केरल स्टोरी’ को एक नफरती और प्रोपैगैंडावादी फिल्म कहा जा रहा है, क्यों? सिर्फ इसलिए कि कुछ लोगों को यह पाॅलिटकली सूट नहीं कर रहा। विगत 50 वर्षों में सैकड़ों ऐसी फिल्में आईं, जिनमें पुजारियों को पाखंडी दिखाया गया, हर दूसरी फिल्म में कपाल पर टीका लगाया हुआ विलेन दिखाया गया, कश्मीर के मार्तंड मंदिर को शैतान का घर दिखाना, हिंदू मंदिर में मांसाहार का दृश्य दिखाना, हिंदू देवी-देवताओं का अपमानजनक व उपहासात्मक चित्रण करना, हिंदू विवाहिताओं को पुरुषों के जूठन पर लोटने का फिल्मांकन, एक-दो अपवाद छोड़कर अधिकतर फिल्मों में नायक को मुसलमान और नायिका को हिंदू के रूप में प्रस्तुत किया गया, पूजा-पाठ करने वाले हिंदू नायिका के पिता को रुढ़िवादी, दकियानूसी और कट्टर व्यक्ति के रूप में दिखाना…। ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिलेंगे। इस प्रौपैगैंडा को ’अभिव्यक्ति’ के नाम पर परोसा जाता रहा और भारतीवासी चटखारे लेकर देखते रहे। लेकिन, आज जब 50 सालों से चल रहे भारत विरोधी नैरेटिव के जवाब में एक-दो फिल्में आ गईं, तो अमन व अभिव्यक्ति के ठेकेदार बिलबिला उठे। इनका सिलेक्टिव क्राई नंगा हो गया।

अदा शर्मा ने अपने करियर का सर्वश्रेष्ठ अभिनय इस फिल्म में किया है। मलयाली लहजे में हिंदी संवाद उच्चारने से लेकर दैहिक भाषा तक पर उन्होंने श्रम किया है। किरदार में भोलापन थोड़ा कम होता, तो और निखार आता। अदा के बाद सबसे अधिक प्रशंसा सोनिया बलानी की होनी चाहिए। आसिफा के किरदार को नूकीला बनाने में उन्होंने अपनी पूरी ऊर्जा संघनित कर दी है। बाकी पात्रों ने निर्देशक के आदेश का बस पालन कर दिया है। यद्यपि, फिल्मकार ने कथाकली वेश में सजे कलाकार को दिखाकर केरल को स्थापित करने की कोशिश की है, तथापि केरल की सुंदरता को कैमरे के माध्यम से दिखाने में निर्देशक ने कंजूसी की है। केरल से अधिक अफगानिस्तान के फिल्माए गए दृश्य विश्वसनीय लगते हैं।

सेन साहब करीब दो दशकों से फिल्म निर्देशन के क्षेत्र में सक्रिय हैं। उनकी पहली फिल्म ’दि लास्ट मांक’ सिनेमाई दृष्टि से उत्कृष्ट है। बाद में उन्होंने अखनूर और आसमा जैसी फिल्में बनायीं, जो कश्मीर में व्याप्त आतंकवाद की पृष्ठभूमि पर बने हैं। इस बार उन्होंने दक्षिण की राह जरुर पकड़ी है, फिर भी कथा का विषय आतंकवाद ही है। ’दि केरल स्टोरी’ बनाने से पूर्व उन्होंने ’इन दि नेम आॅफ लव’ नाम से वृत्तचित्र बनाई थी, जिसमें पीड़िताओं व उनके परिजनों की आपबीती दर्ज है। इसमें दिखाया गया है कि हिंदू और ईसाई लड़कियों को षडयंत्र के तहत उनका मतांतरण कराकर इराक, सिरिया व अफगानिस्तान आदि देशों में भेजा जाता है, जहां उन्हें आत्मघाती दस्ता व सेक्स स्लेव बनने को विवश किया जाता है। फिल्म देखकर लगता है कि ’दि केरल स्टोरी’ के लिए उन्होंने अपनी ही डाॅक्यूमेंट्री से सामग्री ली है। यह भी कि ’दि केरल स्टोरी’ का फिल्मांकन भी वृत्तचित्रात्मक है, जहां नाटकीयता से अधिक घटनाओं का प्रस्तुतीकरण है।

इस फिल्म में रचनात्मक व तकनीकी दृष्टि से कई कमियां हो सकती है। लेकिन, इसके निर्माता, निर्देशक व लेखन टोली द्वारा की गई ईमानदार कोशिश में कोई कमी नहीं है। हर रचनाकार की एक सामाजिक जिम्मेदारी होती है। जो कहानी लंबे समय पहले कहे जाने की हकदार थी, उसे कहकर सुदीप्तो सेन अपने सामाजिक दायित्व का सफल निर्वहन किया है। दि कश्मीर फाइल्स और दि केरल स्टोरी के बाद भविष्य में और भी कई फाइल्स और स्टोरीज़ आएंगी। सिनेमा सबके साथ न्याय करता है, वह पिक एंड चूज़ कर किसी को नफरती या प्रोपैगैंडावादी नहीं कहता, वह किसी को सांप्रदायिक होने का प्रमाणपत्र नहीं थमाता है। जिसने इस माध्यम को साधा है, उसे अपने बात कहने का अवसर है और यह अवसर सबके लिए समान है, केवल मुट्ठीभर लोगों के लिए नहीं।