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पाटलिपुत्र सिने सोसायटी के कार्यक्रम में विशेषज्ञ बोले— सिनेमा स्वयं एक भाषा

पटना : मानव का एक विशेष गुण है और वह है कल्पना। इसी के परिणामस्वरूप विज्ञान व कला के क्षेत्र के नित नए आयाम गढ़े जाते हैं। कला के विविध आयाम एक—दूसरे की मदद करते हैं। सिनेमा व साहित्य का रिश्ता भी ऐसा ही है। कलाएं बस होती हैं, उन्हें बलात बनाया नहीं जाता है। उक्त बातें पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय के शिक्षक प्रो. शिव कुमार यादव ने रविवार को कहीं। वे पाटलिपुत्र सिने सोसायटी के आॅनलाइन कार्यक्रम में बतौर मुख्य वक्ता बोल रहे थे। विषय था— सिनेमा और साहित्य। उन्होंने कहा कि अल्बर्ट कामू की शब्दों में कला कृत्रिम नियमों को नहीं मानती। जॉर्ज आॅर्वेल कला को प्रोपगैंडा मानते हैं। वे इसे पॉलिटिकल पर्पस भी कहते हैं। साहित्य व सिनेमा मानव के हित में हो, तभी वह कला के मानकों पर खरा उतरता है। कम स्थान लेकर अधिक बातें कहना अच्छे साहित्य का गुण है।

अकीरा कुरुसावा की ‘रासोमन’ की चर्चा करते हुए डॉ. शिवकुमार यादव ने कहा कि मानव मन की उलझनों व अवचेतन के अनुभव का सत्य पर कैसे प्रभाव हो सकता है, यह हमें रासोमन से पता चलता है। कल्पना की जटिलता को साहित्य व सिनेमा सरल कर परोसता है। साहित्य अकेला होता है। उसकी रचना एकांत में होती है, जबकि सिनेमा का निर्माण लोगों के समूह द्वारा किया जाता है। यह भी मानना चाहिए कि सिनेमा ने खोये हुए साहित्य को पुनर्जीवित किया है। बहुत सी ऐसी फिल्में हैं जो ऐसी सहित्य पर आधारित थी जो लगभग गुमनाम हो चुकी थी लेकिन सिनेमा की सफलता ने उस साहित्य को फिर से जिंदा किया। उदाहरण के तौर पर- फिल्म Slumdog Millionaire ने विकास स्वरूप की किताब Q&A को लोक​प्रिय बना दिया।

उन्होंने कहा कि सिनेमा स्वयं एक भाषा है। लेकिन, यह एक मेटफॉरिकल भाषा है। साहित्य का तकनीकी विस्तार है सिनेमा। साहित्य की लिखावटों को फिल्म दृश्य में बदल देती है। साहित्य पढ़ने के लिए है, वहीं सिनेमा देखने के लिए है। दोनों में यही अंतर है। हां, यह भी कि एक ही विषय पर रचा गया साहित्य व सिनेमा अगल-अलग वर्ग समूह को स्पर्श करते हैं। साहित्य के आधार पर फिल्में बनती हैं। लेकिन, लंबे काल में विश्लेषण करने पर पता चलेगा कि साहित्य व सिनेमा दोनों एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। साहित्य को जन-जन तक पहुँचाने का जरिया है फिल्म। साहित्य व सिनेमा, दोनों समाज को आइना दिखाते हैं। इसमें भी सिनेमा लोगों को जल्दी व प्रभावी तरीके से छूता है। सत्यजीत रे ने फिल्म ‘शोले’ को संपूर्ण सिनेमा कहा था। यह बताता है कि सरस ढंग से कथा कहने वालीं लोकप्रिय फिल्मों का कितना गहन मर्म है। फिल्मों में साहित्य के खो जाने की चुनौती रहती है। इसको अमिताभ बच्चन में एक पुस्तक के प्राक्कथन में लिखते हैं।

कार्यक्रम में जुड़े जानेमाने फिल्म विश्लेषक प्रो. जय देव ने कहा कि पिछले दिसंबर में सिनेमा विधा के सवा सौ वर्ष पूरे हो चुके हैं। पाटलिपुत्र सिने सोसायटी द्वारा बिहार के लोगों में सिनेमाई जागरुकता का प्रसार करने के लिए लॉकडाउन के दौरान सिनेमा व समाज के विविध पक्षों पर विशेषज्ञों द्वारा व्याख्यानमाला शुरू किया, जिससे धीरे—धीरे समाज में सिनेमा को लेकर सही विमर्श तैयार हो रहा है। सोसायटी के कार्यक्रमों को युवाओं, किशारों व उनके अभिभावकों का जुड़ाव होगा। आज के विमर्श के बारे में प्रो. देव ने कहा कि साहित्य और सिनेमा में एक आवाजाही चलती रहती है। बाजार का दबाव से साहित्य मुक्त कहाँ रहा? साहित्य में भी
बेस्टसेलर और टॉप टेन का ट्रेंड चल रहा है।

अभिलाष दत्त ने कार्यक्रम को मॉडरेट किया। तकनीकी सहयोगी के रूप में युवा फिल्मकार कार्तिक कुमार उपस्थित थे। इस कार्यक्रम में सिने सोसायटी के सदस्यों के अलावा पटना विवि, पाटलिपुत्र विवि, मगध विवि के छात्र—छात्रा एवं बिहार के विभिन्न हिस्सों से फिल्म व साहित्य प्रेमी जुड़े थे।