प्रशांत रंजन
मैथिली सिनेमा की छवि अब तक यही रही है कि एक अत्यंत ही समृद्ध और मिठास भरी भाषा में कुछ प्रयोगधर्मी फिल्मकार महज अपने रचनात्मक शौक के लिए फिल्में बनाते हैं। लेकिन, हाल ही में धुनी फिल्मकार नितिन चंद्रा द्वारा निर्देशित मैथिली थ्रिलर फिल्म ’जैक्सन हॉल्ट’ देखने के बाद मैथिली सिनेमा की यह छवि बदलेगी और भारतीय सिनेमा के अन्य फिल्मी उद्योगों की तरह मैथिली फिल्म उद्योग भी धीरे-धीरे आकार लेने लगेगा। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि जैक्सन हॉल्ट मैथिली फिल्म उद्योग का प्रस्थान बिंदु है।
’जैक्सन हाॅल्ट’ की कहानी सामान्य सी है, लेकिन उसका फिल्मांकन अत्यंत ही सशक्त और ठोस है। लंदन में रहने वाले एनआरआई ऋषि राज (अभिषेक निश्चल) अपनी पैतृक संपत्ति का हिसाब करने मिथिलांचल स्थित अपने गांव आता है और वापसी की ट्रेन पकड़ने के क्रम में जैक्सन हॉल्ट नामक छोटे से रेलवे स्टेशन पर पहुंच जाता है, जहां स्टेशन मास्टर (रामबहादुर रेणु) से उसकी भेंट होती है। वहां उसके साथ अप्रत्याशित घटना घटती है। यह अप्रत्याशित घटना या यूं कहें घटनाओं कि शृंखला ही फिल्म का असल रोमांच है। मात्र तीन प्रमुख पात्र और न्यूनतम लोकेशन के साथ जिस प्रकार से कथानक रचा गया है और उसको प्रस्तुत करने के लिए कसावट भरी पटकथा लिखी गई है, उसके लिए निर्देशक नितिन चंद्रा के साथ-साथ पूरी लेखन टीम बधाई की पात्र है। यह सूझबूझ भरे पटकथा लेखन का ही जादू है कि फिल्म के पात्रों के मुख से निकले संवाद के बाद अगले संवाद सुनने की प्रतीक्षा दर्शक सांस रोककर करते हैं। इसके साथ ही दो संवादों के बीच व्याप्त मौन को भी दर्शक गहरे रूप में आत्मसात करते हैं। यही कारण है कि पूरे दो घंटे की इस फिल्म में दर्शक को सिर हिलाने या पलक झपकाने का भी अवसर नहीं मिलता है। यद्यपि, अल्फ्रेड हिक्चकॉक से लेकर रामगोपाल वर्मा तक ने इस प्रकार की थीम पर फिल्में बनाई हैं। लेकिन, ऐसी थीम को मैथिली में देखना एक अलग अनुभव देता है। यहां यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि मिलते-जुलते थीम का मतलब मिलती-जुलती कहानी से नहीं है, क्योंकि इसकी कहानी एकदम फ्रेश है।
नितिन चंद्रा एक परिश्रमी, उत्साही और जज्बाती फिल्मकार हैं। उन्होंने आउटसाइडर नामक डॉक्यूमेंट्री से लेकर देसवा जैसी भोजपुरी में फीचर फिल्म तक बनाई। ’देसवा’ से आगे बढ़कर ’मिथिला मखान’ के रास्ते जैक्सन हाॅल्ट तक का सफर नितिन चंद्रा के लिए संतोषजनक है, क्योंकि इस फिल्मी यात्रा ने उनको एक निर्देशक के रूप में समृद्ध किया है। उनकी निर्देशकीय समृद्धि की एक बानगी देखिए। पूरी फिल्म में मोबाइल नेटवर्क खराब दिखाया गया है। देश में एक ओर जहां 5जी नेटवर्क का प्रसार हो रहा है, वहीं मिथिला क्षेत्र में सामान्य ढंग से बात करने भर भी नेटवर्क नहीं है। क्या यह देश में व्याप्त असमानता पर फिल्मकार द्वारा किया गया फिल्मी कटाक्ष है? दूसरा उदाहरण- ’जैक्सन हाॅल्ट’ में फिल्म का पात्र स्नैक्स के रूप तरुआ खाता है और विद्यापति की रचनाएं पढ़ता है। इस प्रकार एक क्राइम थ्रिलर फिल्म में सहलता के साथ मिथिला संस्कृति का चित्रण कर दिया गया। एक ओर देसवा में जहां घटनात्मक कथा के केंद्र में उसके पात्र परिधि की भूमिका में थे, वहीं जैक्सन हॉल्ट में फिल्म के किरदार केंद्र में हैं और घटना उनकी परिधि में। कथा कहने के लिए ये दो भिन्न रूप हैं, जिनको नितिन चंद्रा ने विगत 10 वर्षों में साधा है। फिल्मकार ने अपने राजनीतिक रुझान को भी संकेतों में जता दिया है। एक दृश्य में स्टेशन मास्टर का पात्र कहता है कि आजकल बहुत कुछ को फिर से लिखा जा रहा है। भारत सरकार द्वारा एनसीईआरटी पुस्तकों में कुछ तथ्य जोड़ने या हटाने के प्रयासों पर यह तंज है।
बिहार की क्षेत्रीय फिल्मों के साथ अब तक यह होता रहा है कि एक खास सीमा में बंधी-बंधाई कथा को एक ही ढर्रे वाले अभिनय और घिसी-पिटी पाश्र्वध्वनि का आवरण चढ़ाकर परोस दिया जाता रहा है। लेकिन, जैक्सन हाॅल्ट इन सब से अलग हटकर एक नए मानक की स्थापना करती है। पहले अभिनय की बात कर लेते हैं।
स्टेशन मास्टर के किरदार में रामबहादुर रेणु हर दृश्य के केंद्र में रहते हैं। पूरी फिल्म में अन्य पात्रों के बीच वे ही सर्वाधिक प्रभावित करते हैं। अगर वे फ्रेम में हैं, तो आपकी आंखें अन्य किसी चीज को नहीं देख पाएंगी। एकदम सधा हुआ अभिनय। संवाद से अधिक चेहरे के भाव और पूरी दैहिक भाषा से वे अभिनय करते हैं। एक उदाहरण देखिए। एक जगह ऋषि पूछता है- ’’कतक देर लागत ट्रेन आवै में?’’ इस पर स्टेशन मास्टर कहते हैं- ’’ट्रेन कनिक लेट भऽ गेल।’’ यह सामान्य सा उत्तर देकर भी रामबहादुर रहस्य बढ़ा देते हैं। रामबहादुर रेणु के बाद यात्री की भूमिका में अभिषेक निश्चल का अभिनय संतुलित है। क्षेत्रीय व नए कलाकारों में व्याप्त अभिनय के अतिरेक से उन्होंने स्वयं को और पूरी फिल्म को भी बचाया है। उनके इस संतुलन से कहानी पटरी पर रही। स्टेशन मास्टर के सहायक की भूमिका में दुर्गेश कुमार ने ध्यान खींचने वाली प्रस्तुति दी है। उनके संवादों की टाइमिंग बेजोड़ है। यह टाइमिंग ही है, जिससे हास्य व रहस्य के मिश्रण का आनंद एक ही दृश्य में प्राप्त होता है। यहां तक कि स्टेशन मास्टर के पात्र को प्रभावित बनाने में भी दुर्गेश कुमार का परिश्रम समाहित है।
तकनीकी आयामों की चर्चा करें, तो पाएंगे कि जैक्सन हाॅल्ट इस धारणा को तोड़ती है कि भोजपुरी या मैथिली फिल्में तकनीकी रूप से निर्बल होती हैं। बापी भट्टाचार्य की हाई आॅक्टेन पाश्र्वध्वनि अंतर्राष्ट्रीय मानक पर खरी उतरने वाली है। थ्रिलर फिल्म को थ्रिलर बनाने में इसके साउंड डिजाइन का खासा महत्व है। विकास सिन्हा के कैमरे ने मिथिलांचल के ग्रामीण परिवेश को कैद करने का प्रयास किया है। कलर टोन की विशेष प्रशंसा होनी चाहिए, जिसने थ्रिलर के थ्रिल में कुछ अंश जोड़े हैं। रात के दृश्यों में तकनीकी टोली की मेहनत नजर आती है।
असल में कहानी से लेकर उसके रचनात्मक और तकनीकी ट्रीटमेंट में जैक्सन हाॅल्ट हिंदी, तमिल या तेलुगु फिल्मों से जरा भी उन्नीस नहीं है। यहां यह कहने में मुझे संकोच नहीं है कि अगर इस कहानी को इसी ट्रीटमेंट के साथ हिंदी, अंग्रेज़ी या कोरियाई में बनाया जाता, तो इसकी पहुंच विस्तृत होती। फिर भी यह सुखद है कि एक अनोखी व शानदार कहानी मैथिली सिनेमा के खाते में आई। यह भी कि चूंकि फिल्म बनाने में धन लगता है। इसलिए बाजार से मुंह मोड़कर किसी भी भाषा का सिनेमा अधिक दिनों तक फलफूल नहीं सकता है। मैथिली सिनेमा भी अब तक बाजार सापेक्ष नहीं हो पाया है। इस लिहाज से देखें, तो ’जैक्सन हाॅल्ट’ एक सामाधान के रूप में सामने आई है। इसका स्वागत होना चाहिए। लेकिन, दुःख है कि हिंदी, अंग्रेजी या दक्षिण भारतीय भाषाओं में बनी फूहड़ व कमजोर फिल्मों को भी खरीदने वाले ओटीटी मंचों ने जैक्सन हाॅल्ट के प्रति उत्साह व रुचि नहीं दिखाई। फिल्म बाजार के खिलाड़ियों को दीवार पर लिखी इबारत पढ़ लेनी चाहिए कि मैथिली सिनेमा करवट ले रहा है और जल्द ही भारतीय सिनेमा की अग्र पंक्ति में यह दमकता हुआ नजर आएगा।