फिल्म ‘लक्ष्मी’: रचनात्मक विकृति का उदाहरण

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किसी भी चीज की अति ठीक नहीं होती है। क्रिएटिविटी की भी जब अति होती है, तो वह विकृति के रूप में सामने आती है। अक्षय कुमार अभिनीत नई फिल्म ‘लक्ष्मी’ के साथ भी यही हुआ। कथानक व प्रस्तुति दोनों में यह फिल्म दोयम दर्जे की लगी। कैसे? आइए समझते हैं।

कहानी दमन के आसिफ (अक्षय कुमार) व उसकी पत्नी रश्मि (कियारा आडवाणी) की है। आसिफ भूत-प्रेतों से उपजे अंधविश्वास को दूर करने का अभियान चलाता है। रश्मि के साथ वह अपने ससुराल जाता है, जहां वह खुद भूतों के चक्कर में पड़ जाता है और फिर शुरू होती है सतही हास्य व कमजोर हॉरर की कहानी। कई कड़ियों में बनी तमिल फिल्म कांचना की रीमेक है। निर्देशक भी तमिल वाले राघव लॉरेंस ही हैं। लेकिन, हिंदी सिनेमा में आकर भी वे अपने क्षितिज को विस्तार नहीं दे पाए हैं।

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फिल्म ‘लक्ष्मी’ अपने पहले ही दृश्य में खुद के भूतहा होने का संकेत दे देती है। उसके बाद अक्षय कुमार की एंट्री सीन में एक जटाधारी बाबा के चमत्कार के पीछे वैज्ञानिक कारण बताकर आसिफ का किरदार स्थापित होता है। लेकिन, बाद की घटनाएं उसी स्थापना को तोड़ने लगती है। यह फिल्मकार के भ्रमित मन का परिणाम है। आसिफ द्वारा पहले दृश्य में बाबा के चमत्कार को विज्ञान का कमाल और फिर अपने ससुराल में सास रत्ना (आएशा रज़ा मिश्रा) के डर को सियोफोबिया बीमारी बताया गया। उस वक्त तक लगा कि ‘लक्ष्मी’ कोई साइकोलॉजिकल थ्रिलर होगी। लेकिन, लक्ष्मण उर्फ लक्ष्मी शर्मा (शरद केलकर) का किरदार पर्दे पर आते ही फिल्म से अपे​क्षाएं भरभरा कर धराशायी हो जाती हैं। अंत में यह फिल्म में एक औसत प्रतिशोध कथा बनकर रह गई है। बाबाओं के चमत्कार को ढोंग बताने वाला आसिफ स्वयं पीर शाहनवाज की शरण में चला जाता है। धार्मिक अंधविश्वास पर कटाक्ष करने भी फिल्म का दोहरा मानदंड सामने आता है।

फिल्म में अक्षय कुमार थे, तो लगा कि इसका फलक बड़ा होगा। हाल के वर्षों में अक्षय कुमार ने भरपूर मनोरंजन के साथ सामाजिक संदेश व देशभक्ति से लबरेज फिल्मों का तोहफा दर्शकों को दिया है। लेकिन, ‘लक्ष्मी’ में ऐसा कुछ नहीं है। पहले लगा कि कोई सामाजिक संदेश न भी हो, तो मनोरंजन के स्तर पर शीर्ष सामग्री देखने को मिलेगी। लेकिन, ‘लक्ष्मी’ देखकर विक्रम भट्ट की फिल्मों के दृश्य टुकड़ों में याद आते हैं। फिल्म में कई स्तरों पर भटकाव है। निर्देशक कहना क्या चाहता है? थोड़ा-थोड़ा सबकुछ कहने के चक्कर में चीजें गुड़गोबर हो गईं। पहले मजहबी अंधविश्वास, फिर किन्नरों की समस्या और उसके बाद प्रतिशोध कथा।

कॉमेडी के नाम पर फूहड़ता परोसना कोई ​क्रिएटिविटी नहीं है। जैसे पारंपरिक भारतीय परिवार की अधेड़ महिला (रत्ना) को बात—बात पर बोतल भर शराब गटकते हुए दिखाना और छोटे बच्चे द्वारा घर के बड़ों को उनके नाम से पुकारते हुए दिखाना, यह निर्देशक की विक्षिप्तता का परिचायक है। ”पत्थरों को भी साड़ी पहना दो, तो मर्द टांग उठाकर चले आते हैं”— ऐसे संवाद भी रचनात्मक विकृति का संकेत देते हैं।

निर्देशक राघव लॉरेंस ने कांचना की पहली कड़ी ठीक-ठाक बनायी। लेकिन, उसके सिक्वल को उस वेवलेंथ पर नहीं रख सके। तकनीकी पक्ष संतोषजनक है। खासकर हॉरर दृश्यों में पार्श्वध्वनि प्रभावी है। पूरी फिल्म में अक्षय कुमार के अलावा केवल शरद केलकर ही याद रहते हैं। राजेश शर्मा, आएशा रज़ा मिश्रा व अश्विनी कलसेकर को जितनी जमीन मिली, उसमें अच्छा काम दिखाया। ‘लक्ष्मी’ के अंतिम दृश्य में भी सिक्वल का संकेत है। परंतु, जब पहली कड़ी ही बेदम साबित हुई हो, तो बाकी का क्या? अगर यह फिल्म सिनेमाघरों में रिलीज होती, तो पहले दिन के बाद दर्शकों का भ्रम टूट जाता। चूंकि, निर्माताओं ने इसे पहले ही मोटी रकम पाकर ओटीटी मंच को बेच दिया है। कमाई पर भले असर न हो, लेकिन खुद अक्षय कुमार को भी लग रहा होगा कि उन्होंने कमजोर फिल्म साइन कर दी थी। ‘लक्ष्मी’ 2020 की सबसे घटिया फिल्म साबित हो सकती है।

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