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चिंटू का बर्थडे : बगदाद में बिहारीपन

सिनेमा देश, काल, परिस्थितियों के अनौपचारिक दस्तावेजीकरण में सहायक है। सत्यांशु सिंह और देवांशु सिंह द्वारा निर्देशित पहली फीचर फिल्म ‘चिंटू का बर्थडे’ इस बात को पुष्ट करता है। कोरोनाकाल में सिनेमाघर बंद हैं, इसलिए इस नन्हीं सी फीचर फिल्म को जी5 पर जून केप्रथम सप्ताह में स्ट्रीम किया गया है।

2004 में इराक में अशांति थी। सत्ता पर काबिज सद्दाम हुसैन का तख्तापलट करने के लिए अमेरिकी फौज इराक की भूमि पर बारूद बरसा रही थी। वैसे तो पूरे भारत से के लोग रोजगार की तलाश में मध्य—पूर्व जाते रहे हैं। लेकिन, उद्योग का अभाव झेल रहे बिहार के लोग अधिक संख्या में मध्य—पूर्व देशों में विभिन्न प्रकार के रोजगार के लिए जाते रहे हैं। बिहार निवासी मदन तिवारी (विनय पाठक) भी उन्हीं में से एक हैं जो वाटर फिल्टर बेचने का काम बिहार में करते थे और बाद में मालिक के आग्रह पर इराक की राजधानी बगदाद में जाकर काम करने लगे। सद्दाम के शासन और अमेरिकी सेना के बीच द्वंद्व के कारण इराक का जनजीवन असामान्य हो गया। वैसे तो इसमें पूरी इराक की जनता पिस रही थी। लेकिन, इसका सर्वाधिक असर राजधानी बगदाद में था। शायद ही किसी दिन सुबह से लेकर शाम तक बिना गोली चले विस्फोट हुए आगजनी हुए दिन बीत जाए। ऐसे माहौल में सामान्य जीवन की कल्पना बेमानी लगती है और जन्मदिन जैसा कोई उत्सव मनाना तो दूर की कौड़ी मालूम पड़ती है। लेकिन, भय के इस माहौल में ‘चिंटू का बर्थडे’ कैसे मनाया जाता है। यही इस फिल्म का कथानक है। कहते हैं कि साहित्य, संगीत या किसी भी प्रकार की खुशियां दमन को चुनौती देती हैं। ‘चिंटू का बर्थडे’ इसे बखूबी दर्शाया है।

‘चिंटू का बर्थडे’ का सबसे बड़ा कौशल उसकी पटकथा है। कसी हुई और तनाव से भरी हुई। वरना एक ही सेट पर कैमरे से 83 मिनट का दृश्य प्रस्तुत करना जोखिम होता। एक ही वस्त्र में किरदार, वही दीवारें, छत, फर्श व चेहरे। ये एकरसता काफी हैं दर्शकों के मन को नीरस बनाने के लिए। लेकिन, रुकिए। सत्यांशु व देवांशु की लेखनी यूं ही विलक्षण नहीं है। फिल्म अपने 83 मिनट के सफर में न कहीं शिथिल होती है और न ही कहीं मूल विषय से भटकती है। निर्देशक द्वय ने पटकथा के तनाव को समझा है। एक ओर चिंटू बाबू के जन्मदिन की तैयारियां और दूसरी और आधुनिक गन थामे घर में घुस आए अमेरिकी सैनिक। एक ओर परिवार, तो दूसरी और दुनिया के सर्वाधिक ताकतवर देश के नुमाइंदे। लेखन की सूक्ष्मता इस बात में है कि परिवार के मध्य भी तनाव रचा गया है। मदन और उनकी सास के बीच। इस तनाव पर माधुर्य की फुहार स्वयं मदन तिवारी डालते हैं, बरास्ता चिंटू बाबू। मकान मालिक माहदी (खालिद मासू) इराक व अमेरिका के शासकों की मंशा व्यक्त करता है।

मदन तिवारी फरमाते हैं— दुल्हन वही जो पिया मन भाए और पेचकस वही जो सुधा जी लाएं। ​चिंटू की जुबान में एनिमेशन के माध्यम से उनके सपरिवार इराक आने की कहानी। कबाड़ से ढूंढकर ओवन को रिपेयर करना। बिस्किट से केक बनाना जैसे कई छोटे—छोटे डिटेल हैं, जिसका लेखकों ने खयाल रखा है। सैनिक के घायल होने पर मदन के परिवार द्वारा मरहम की व्यवस्था भी है।

सिंगल लोकेशन पर कथानक में गति बनाए रखना एक नितांत ही चुनौतीपूर्ण कार्य है। एकल सेट पर पूरी फिल्म बनाने में नीरसता का जोखिम रहता है। लेकिन, विश्व के दिग्गज फिल्मकारों ने इस कार्य को पूरी दिलचस्पी से संपन्न किया है। इस तरह के कार्य में सबसे पहले अल्फ्रेड हिचकॉक याद आते हैं। उनकी ‘रोप’ (1948) और सिडनी ल्यूमेट की ’12 एंग्री मेन’ (1957) उल्लखेनीय है। भारत में भी रामगोपाल वर्मा ने ‘कौन’ (1999) और विक्रमादित्य मोटवाने ने ट्रैप (2016) बनायी है। बहरहाल, ‘चिंटू का बर्थडे’ पर वापस आते हैं। सत्यांशु व देवांशु बिहार के मुंगेर से हैं। सिंह बंधु ने ‘चिंटू का बर्थडे’ निर्देशित करने से पूर्व कई सफल डिजिटल कंटेंट बनाए हैं। इनकी लेखनी जबर्दस्त है। ‘चिंटू का बर्थडे’ में बगदाद की पृष्ठभूमि में इन्होंने बड़ी खूबसूरती से बिहारीपन की झलक पेश की है। तारीफ होनी चाहिए, क्योंकि विनय पाठक को छोड़कर कोई भी बिहार निवासी नहीं है।

मदन की पत्नी सुधा तिवारी का किरदार निभा रहीं तिलोत्तमा शोम बंगाल से हैं। वे अत्यंत ही भावप्रवण अभिनेत्री हैं। चेहरे के भाव व धीमे संवाद के मिश्रण से वे नुकीली तीर जैसे प्रभाव उत्पन्न करती हैं। सीमा पाहवा नानी के पात्र को शालीनता व गांभीर्य से जी जाती हैं। चिंटू की बहन लक्ष्मी गुलदस्ते में रेशम की लड़ी की भांति शोभा बढ़ाती है और सबसे प्यारे चिंटू जी यानी वेदांत छिब्बर। 6 साल के चिंटू के रोल में इस बाल कलाकार ने रंग भर दिए है।

हास्य, भय व चिंटू के जन्मदिन मनाने के पल के बीच पूरी फिल्म एक बड़ी बात कहती है। दुनिया के तकतवर लोग किस प्रकार साधारण लोगों की खुशियों को मिट्टी में मिला रहे हैं— ‘चिंटू का बर्थडे’ इसे प्रभावी ढंग से बयान करती है। वह भी बिना किसी डायलॉगबाजी के। सत्यांशु व देवांशु ने छोटी—छोटी बिंदुओं से यह एक बड़ी लकीर खींची है। उनकी यही बात ‘चिंटू का बर्थडे’ को गुड सिनेमा बनाती है। उम्मीद है कि भविष्य में वे और अच्छी फिल्में लेकर हमारे बीच आएंगे। बधाई।