सम्पूर्ण भारत में बिहार एक ऐसा राज्य है जो बाढ़ के साथ ही सूखे की समस्या से त्रस्त है। यह समस्या बहुत पुरानी नहीं है। बिहार में जल संचयन, संरक्षण व प्रबंधन की परम्परागत व्यवस्था, संस्कृति व संरचनाओं को नष्ट करने का प्रयास किया गया इसके बाद यहां बाढ़ और सूखा की समस्या अत्यंत भयावह होती चली गयी। वर्षा व नदी से प्राप्त जल को समेट लेने वाली प्राचीन संरचनाओं की जमीनी हकीकत से सम्बंधित व्यापक सूचना व डाटा न होने के कारण यहां जल प्रबंधन व सिंचाई से जुड़ी योजनाएं हवा में तैर रही हैं। देवेन्द्र काम की बात यह
जल की समस्या को लेकर मैं पिछले कई वर्षों से संघर्ष कर रहा हूं लेकिन आज भी मैं पाता हूं कि यह समस्या एक पहाड़ की भांति हमारे सामने तन कर खड़ी है। अब तक के सारे प्रयास ऊंट के मुंह में जीरा की तरह हंै। ऐसा क्यों? योजनाओं से अपेक्षित परिणाम क्यों नहीं मिले? ऐसे यक्ष प्रश्न हम जैसे और कई लोगों के जेहन में उठते होंगे। ईमानदरी से सोचें तो इसका उत्तर भी हमें मिल जाता है। प्रकृति का यह निःशुल्क उपहार तो पूरी सृष्टि के लिए हैं। आदमी के साथ-साथ पशु-पक्षी, कीट-पतंग, पेड-पौधे सबका इस पर समान अधिकार है। इसीलिए जल की रक्षा की जिम्मेदारी पूरे समाज की थी। हम परमात्मा की कृपा से प्राप्त वर्षा के बूंद-बूंद को समेट लेते थे। प्रकृति का विचार करते हुए हजारों वर्षों के जीवन प्रवाह में हमारे पूर्वजों ने जो तकनीक व संरचना विकसित की थी उसकी उपेक्षा अब हम पर भारी पड़ने लगी है। बिहार को विकसित बनाने के लिए जो योजनाएं बनीं उसमें लोकबुद्धि व हजारों वर्षों के अनुभव से प्राप्त ज्ञान पर आधारित जल संग्रहण व संरक्षण के लिए बने परम्परागत उपक्रमों के अस्तित्व को मिटाया गया। थक-हार कर अब विकास के पश्चिमी माॅडल के हिमायती भी उसी परंपरागत व्यवस्था की ओर देखने लगे हैं; उसको पुनर्जीवित करने की बात होने लगी है। लेकिन, यह विचार व्यवहार से आज भी कोसों दूर है। इसे धरातल पर उतारने में हम तभी सक्षम होंगे जब समाज जागेगा।